Tuesday, September 28, 2010

जब वह निकल पड़ता है

महमूद दरवेश की कविताएं - ७

जब वह निकल पड़ता है

वह दुश्मन जो चाय पीता है हमारे बाड़े में
उसके पास एक घोड़ा है धुंए में, एक बेटी
घनी भवों वाली, भूरी उसकी आंखें और उसके कन्धों पर
गुंथी हुईं चोटियां जैसे गीतों की एक रात.
उसके पास अपनी बेटी की तस्वीर हमेशा हुआ करती है
जब वह हमारी चाय पीने आता है
लेकिन वह भूल जाता है हमें अपनी रात की गतिविधियों के बारे में बताना,
पहाड़ी की चोटी पर छोड़ दिए गए
पुरातन गीतों वाले एक घोड़े के बारे में.
हमारे झोपड़े में दुश्मन अपनी राइफ़ल को टिकाता है
मेरे दादाजी की कुर्सी से
और हमारी डबलरोटी खाता है किसी भी मेहमान की तरह
कुछ पल को झपकी लेता है आरामकुर्सी पर.
फिर जब वह बाहर जाता हुआ झुककर हमारी बिल्ली को सहलाने को झुकता है
वह कहता है: "जो शिकार हो गया उसे दोष मत दो"
"और कौन हो सकता है वह?" हम पूछते हैं
"ख़ून जो रात में नहीं सूखता."
उसके कोट के बटन चमकते हैं जब वह बाहर जा रहा होता है.
आप सब को शुभरात्रि! हमारे कुंएं को सलाम कहना!
गूलर के हमारे पेड़ों को सलाम कहना! जौ के खेतों में
हमारी छायाओं पर सम्हलकर चलना.
हमारे ऊंचे चीड़ों का अभिवादन करना. लेकिन कृपा करके
दरवाज़ा खुला रखना रात को
और भूलना मत कि घोड़ों को हवाई जहाज़ों से डर लगता है.
और वहां हमारा अभिवादन करना, अगर तुम्हारे पास समय हो तो.
दरवाज़े पर दर असल हम यह कहना चाहते हैं.
वह इसे साफ़ सुनता है
मगर खांसता हुआ उसे अनसुना कर देता है
परे हटाता हुआ.
तो वह हर शाम क्यों आता है शिकार के पास
हमारी कहावतों को कन्ठस्थ कर लेता है, जैसा हम करते हैं
हमारी विशिष्ट जगहों और पवित्र स्थानों के बारे
में हमारे गीत दोहराता है?
अगर यह सब एक बन्दूक के लिए न होता
तो हमारी बांसुरियों ने एक जुगलबन्दी बजाई होती.
जब तक हमारे भीतर धरती घूम रही है अपने गिर्द
युद्ध ख़त्म नहीं होगा
तो भला बने रहा जाए.
उसने हमसे कहा कि हम भले बने रहें जब तक यहां हैं
वह आइरिश हवाबाज़ के बारे में लिखी येट्स की कविता सुनाता है:
"वे जिनसे मैं लड़ता हूं, उनसे नफ़रत नहीं मुझे
वे जिनकी रखवाली मैं करता हूं, उनसे प्यार नहीं मुझे."
फिर वह हमारी जर्जर झोपड़ी से चला जाता है
और चलता जाता है अस्सी मीटर तक
मैदान के छोर पर पत्थर के हमारे पुराने घर तक.
हमारे घर का अभिवादन करना ओ अजनबी.
कॉफ़ी के प्याले वही हैं.
क्या तुम अब भी उन पर हमारी उंगलियां सूंघ सकते हो?
क्या तुम चोटियों और घनी भवों वाली
अपनी बेटी को बता सकते हो
कि उसका एक अनुपस्थित दोस्त है
जो उस से मिलना चाहता है, उसके आईने में प्रवेश कर
उसका रहस्य देखना चाहता है.
इस जगह पर किस तरह खोज सकी वह उसकी उम्र?
उससे नमस्ते कहना, अगर तुम्हारे पास समय हो तो.
वह भली तरह सुनता है
जो हम उसे बताना चाहते हैं
लेकिन वह मगर खांसता हुआ उसे अनसुना कर देता है
परे हटाता हुआ.
उसके कोट के बटन चमकते हैं
जब वह बाहर जा रहा होता है.

* विलियम बटलर येट्स: बीसवीं सदी के महान अंग्रेज़ी कवि.

6 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत जबरदस्त...और न जाने कितनी बार पढ़नी होगी मुझे यह रचना पूरी उतारने के लिए.

Majaal said...

इस तरह कविता की कथात्मक शैली तो पहली बार पढ़ी है. प्रस्तुतीकरण तो प्रभावशाली है... क्या ये अनुवाद है ? नीचे अंग्रेज कवि का नाम लिखा है और शीर्षक में महमूद साहब का नाम है ...

प्रज्ञा पांडेय said...

BEHAD SUNDAR !!

आशुतोष कुमार said...

मार डाला.
क्या कविता !क्या अनुवाद!! उफ़!!!

Ashok Pande said...

@ Malaal: यह अनुवाद ही है जनाब. ख़ाकसार का किया हुआ. अंग्रेज़ी के कवि को कविता में सन्दर्भित किया गया है इसलिए फ़ुटनोट लगाने की ज़रूरत पड़ी.

धन्यवाद.

प्रवीण पाण्डेय said...

बेहतरीन कविता और भावानुवाद।