Tuesday, September 28, 2010

महमूद दरवेश से डालिया कार्पेल की बातचीत - १

एक "विनम्र कवि" की वापसी

अपने हाइफ़ा भ्रमण को लेकर वे वाक़ई कितने उत्साहित हैं? इस रपट का उन पर क्या प्रभाव पड़ा कि माउन्ट कार्मेल के एक ऑडिटोरियम में इस रविवार को होने वाले उनके काव्यपाठ के लिए जारी किए गए कुल १४५० में १२०० टिकट एक ही दिन में बिक गए?

*क्या महमूद दरवेश को इस तरह हाथों हाथ लिया जाना, जो फ़िलिस्तीन के राष्ट्रीय कवि माने जाते हैं, और पिछले सालों से ज़्यादातर अम्मान में और कभी कभी रामल्ला में रहते आए हैं, विचलित करता है?

"पचास की उम्र पार कर लेने के बाद मैंने अपनी भावनाओं पर काबू पाना सीख लिया था." रामल्ला में हुए एक वार्तालाप के दौरान दरवेश कहते हैं. "मैं बिना किसी प्रत्याशा के हाइफ़ा जा रहा हूं. मेरे दिक पर एक बैरियर लगा हुआ है.हो सकता है जब मैं श्रोताओं के सम्मुख खड़ा होऊं तो मेरे दिल में कुछ आंसू टपकें. मुझे ऊष्माभरे स्वागत की उम्मीद है, लेकिन मुझे यह भय भी है कि कि श्रोतागण निराश हो सकते हैं क्योंकि मैं बहुत सारी पुरानी कविताओं का पाठ करने की मंशा नहीं रखता. मैं किसी देशभक्त या किसी नायक या प्रतीक की तरह नज़र नहीं आना चाहता. मैं एक विनम्र कवि की तरह सामने आऊंगा."

* फ़िलिस्तीन की राष्ट्रीय नैतिकता के प्रतिनिधि से एक विनम्र कवि होने का सफ़र आप कैसे तय करते हैं?

"ऐसे किसी प्रतीक का अस्तित्व न मेरी चेतना में है न कल्पना में. मैं कोशिश कर रहा हूं कि उस प्रतीक से रखी जाने वाली आशाओं को बिखेर सकूं और इस प्रतीकात्मक स्थिति से बाहर निकल आऊं. मैं चाहता हूं कि लोग मुझे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखने की आदत डालें जो अपनी कविता और अपने पाठकों के आस्वाद को बेहतर बनाने की ख़्वाहिश रखता है हाइफ़ा में मैं वास्तविक होऊंगा. और मैं ऊच्च स्तर की कविताएं छांटूंगा."

* आपको अपनी पुरानी कविताओं से ऐसी हिकारत क्यों है?

"जब भी कोई लेखक कहता है कि उसकी पहली किताब उसकी सर्वश्रेष्ठ है तो यह बुरी बात है. मैं एक से दूसरी किताब में विकसित होता जाता हूं. मुझे अब भी यह तय करना बाक़ी है कि मैं श्रोताओं को क्या सुनाऊंगा. मैं मूर्ख नहीं हूं. मैं जानता हूं कि बहुत सारे लोग पुरानी चीज़ें सुनना चाहेंगे."

अम्मान से दरवेश इसी हफ़्ते सोमवार की सुबह रामल्ला पहुंचे थे. आने वाले दिनों में उनकी मुलाक़ातें तय थीं और उसके बाद उन्हें हाइफ़ा जाना था, वह शहर जहां १९५० के दशक में उन्होंने अपनी साहित्यिक राह शुरू की थी. वे अब भी नहीं जानते वे यह यात्रा कैसे करने वाले हैं - बहुत से स्वयंसेवक हैं जो उन्हें अपनी गाड़ियों में गैलिली के बाशिन्दों से हाइफ़ा में मुलाक़ात करवाने ले जाना चाहते हैं. शाम का आयोजन कवयित्री और साहित्यिक पत्रिका मशरेफ़ की सम्पादिका सिहाम दाऊद ने, अरबी-यहूदी राजनैतिक दल हदश के सहयोग से किया था. दरवेश एक वक्तव्य देंगे और क़रीब बीस कविताओं का पाठ करेंगे. समीर जुब्रान आउद पर उनकी संगत करेंगे जबकि गायक अमाल मुर्कुस कार्यक्रम का संचालन करेंगे. दरवेश उम्मीद कर रहे है कि आन्तरिक मामलों का मन्त्रालय उन्हें इज़राइल में एक हफ़्ते रहने की अनुमति दे देगा हालांकि उन्हें मिला हुआ एन्ट्री परमिट सिर्फ़ दो दिनों के लिए वैध है.

कवयित्री से वार्तालाप रामल्ला के ख़लील साकाकिनी सांस्कृतिक केन्द्र में शाम चार बजे शुरू होता है. इस शानदार और करीने से रखवाली की गई इमारत में एक कलादीर्घा है और फ़िल्मों और कन्सर्ट्स के लिए एक हॉल. इस में एक खूब बड़ा दफ़्तर भी है जहां से दरवेश कविता की पत्रिका अल- कारमेल का सम्पादन करते हैं.

जिस कमरे में हम हैं उसमें अरबी किताबों का शानदार संग्रह है अलबत्ता उनके बीच कुछ हिब्रू की किताबें भी हैं. हिब्रू साहित्यिक पत्रिका इटोन ७७ द्वारा प्रकाशित एक कविता संकलन है, नामा शेफ़ी का "द रिंग ऑफ़ मिथ्स: इज़राइलीज़, वागनर एन्ड द नात्सीज़" है, कवि यित्ज़ाक लाओर द्वारा सम्पादित साहित्यिक-राजनैतिक पत्रिका मित’आम की प्रतियां हैं और सामी शालोम चेरिट का एक कविता संग्रह भी.

पहले से कहीं दुबले दरवेश शालीन कपड़े पहने हैं और मित्रवत हैं. ऐसे व्यक्ति के हिसाब से लिसे आठ साल पहले चिकित्सकीय रूप से मृत घोषित कर दिया गया था और चमत्कारिक रूप से वापस जीवित किया गया, वे अपने छियासठ सालों के लिहाज़ से चुस्त और युवतर नज़र आ रहे हैं.


"क्या इस देश के लिए कोई उम्मीद है?" मैं पूछता हूं. घोर निराशावादी दरवेश इस बात तक की परवाह नहीं करते कि मेरा मतलब किस देश से है. "जब उम्मीद न भी हो, हमारा फ़र्ज़ बनता है कि हम उसका आविष्कार और उसकी रचना करें. उम्मीद के बिना हम हार जाएंगे. उम्मीद ने सादगीभरी चीज़ों से उभरना चाहिये. प्रकृति की महिमा से, जीवन के सौन्दर्य से, उनकी नाज़ुकी से. केवल अपने मस्तिष्क को स्वस्थ रखने की ख़ातिर आप कभी कभी ज़रूरी चीज़ों को भूल ही सकते हैं. इस समय उम्मीद के बारे में बात करना मुश्किल है. यह ऐसा लगेगा जैसे हम इतिहास और वर्तमान की अनदेखी कर रहे हैं. जैसे कि हम भविष्य को फ़िलहाल हो रही घटनाओं से काट कर देख रहे हैं. लेकिन जीवित रहने के लिए हमें बलपूर्वक उम्मीद का आविष्कार करना होगा."


* आप ऐसा कैसे कर सकते हैं?

"मैं उपमाओं का कर्मचारी हूं, प्रतीकों का नहीं. मैं कविता की ताक़त पर भरोसा करता हूं, जो मुझे भविष्य को देखने और रोशनी की झलक को पहचानने की वजहें देती है. कविता एक असल हरामज़ादी हो सकती है. वह विकृति पैदा करती है. इस के पास अवास्तविक को वास्तविक में और वास्तविक को काल्पनिक में बदल देने की ताक़त होती है. इसके पास एक ऐसा संसार खड़ा कर सकने की ताक़त होती है जो उस संसार के बरख़िलाफ़ होता है जिसमें हम जीवित रहते हैं. मैं कविता को एक आध्यात्मिक औषधि की तरह देखता हूं. मैं शब्दों से वह रच सकता हूं जो मुझे वास्तविकता में नज़र नहीं आता. यह एक विराट भ्रम होती है लेकिन एक पॉज़िटिव भ्रम. मेरे पास अपनी या अपने मुल्क की ज़िन्दगी के अर्थ खोजने के लिए और कोई उपकरण नहीं. यह मेरी क्षमता के भीतर होता है कि मैं शब्दों के माध्यम से उन्हें सुन्दरता प्रदान कर सकूं और एक सुन्दर संसार का चित्र खींचूं और उनकी परिस्थिति को भी अभिव्यक्त कर सकूं. मैंने एक बार कहा था कि मैंने शब्दों की मदद से अपने देश और अपने लिए एक मातृभूमि का निर्माण किया था."

*आपने एक बार लिखा था: "यह धरती हम सब पर घेराबन्दी करती है." और हताशा और निराशा की भावना आज पहले से कहीं अधिक डरावनी लगती होगी.

"आज की स्थिति इस क़दर ख़राब है कि हमने कभी उसकी कल्पना भी नहीं की होगी. और फ़िलिस्तीनी आज संसार में अकेले नागरिक हैं जिन्हें निश्चित रूप से महसुस होता है कि आज का दिन उस से बेहतर है जो आने वाले कल में धरा हुआ है. आने वाला कल हमेशा एक अधिक बुरी स्थिति की तरफ़ संकेत करता है.यह फ़क़त अस्तित्ववाद का एक सवाल भर नहीं है. मैं इज़राइली पक्ष के बारे में नहीं कह सकता; उसमें मेरी विशेषज्ञता नहीं है. मैं केवल फ़िलिस्तीनी पक्ष की बाबत बोल सकता हूं. १९९३ ही में, ओस्लो समझौते की पिछली शाम को ही मैं जान गया था कि इस समझौते में ऐसा कोई आश्वासन नहीं कि हम फ़िलिस्तीन के लिए सच्ची शान्ति-आधारित स्वतन्त्रता और इज़राइली कब्ज़े के अन्त तक पहुंच पाएंगे. उसके बावजूद मुझे लगा था कि लोग उम्मीद का अनुभव कर रहे थे. उन्होंने सोचा था कि शायद एक बुरी शान्ति सफल युद्ध से बेहतर विकल्प है. वे धोख़ेबाज़ सपने थे. ओस्लो से पहले कोई जांच-चौकियां नहीं थीं, रिहाइशें इस कदर नहीं फैली थीं और फ़िलिस्तीनियों के लिए इज़राइल में रोज़गार था."

(जारी)

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