( प्रो शमसुल इस्लाम की किताब ' वी आर अवर नेशनहुड डिफांइंड -ए क्रिटिक' से… अनुवाद मेरा)
आर एस एस ने हमेशा भारत के सभी हिन्दूओं की सरपरस्ती का दावा किया है। यह इस देश के हिन्दुओं सबसे बड़ा संगठन होने का भी दावा करता है। बहरहाल, यह निष्कर्ष निकालना कोई मुश्किल काम नहीं है कि गोलवलकर और संघ के लिये भारत का मतलब केवल उत्तर भारत तक सीमित था। जब वे ‘हिन्दू स्वर्ण काल’ की बात करते थे तो इसका मतलब होता था उत्तर भारत का स्वर्ण काल।[1] यह केवल मुसलमानों और इसाईयों को ही बहिष्कृत नहीं करता था बल्कि उत्तरभारतीय ब्राह्मणों को छोड़कर अन्य सभी हिन्दुओं को भी बहिष्कृत करता था। इसे 17 सितंबर 1960 को गुजरात विश्वविद्यालय के सामाजिक विज्ञान अध्ययन केन्द्र के विद्यार्थियों को दिये गये गोलवरकर के भाषण में साफ़ तौर पर देखा जा सकता है। इस भाषण में नस्ल सिद्धांत पर अपने दृढ़ विश्वास को रेखांकित करते हुए वह भारतीय समाज में पिछले समय में मानवजाति की संकर नस्लों के प्रयोग (cross breeding) के मुद्दे को छूते हैं। वह कहते हैं-
‘आजकल संकर प्रजाति के प्रयोग केवल जानवरों पर किये जाते हैं। लेकिन मानवों पर ऐसे प्रयोग करने की हिम्मत आज के तथाकथित आधुनिक विद्वानों में भी नहीं है। अगर कुछ लोगों में यह देखा भी जा रहा है तो यह किसी वैज्ञानिक प्रयोग का नहीं अपितु दैहिक वासना का परिणाम है। आइये अब हम यह देखते हैं कि हमारे पुरखों ने इस क्षेत्र में क्या प्रयोग किये। मानव नस्लों को क्रास ब्रीडिंग द्वारा बेहतर बनाने के लिये उत्तर के नंबूदरी ब्राह्मणों को केरल में बसाया गया और एक नियम बनाया गया कि नंबूदरी परिवार का सबसे बड़ा लड़का केवल केरल की वैश्य, क्षत्रिय या शूद्र लड़की से शादी कर सकता है। एक और इससे भी अधिक साहसी नियम यह था कि किसी भी जाति की विवाहित महिला की पहली संतान नंबूदरी ब्राह्मण से होनी चाहिये और उसके बाद ही वह अपने पति से संतानोत्पति कर सकती है। आज इस प्रयोग को व्याभिचार कहा जायेगा, पर ऐसा नहीं है क्योंकि यह तो पहली संतान तक ही सीमित है।‘[2] (ज़ोर हमारा)
गोलवलकर का यह बयान कई तरीके से अत्यंत अपमानजनक है। पहला तो यह कि इससे साबित होता है कि गोलवलकर का विश्वास था कि भारत में हिन्दुओं की एक बेहतर नस्ल या वंशावली है तथा एक कमतर नस्ल भी है जिसे क्रास ब्रीडिंग द्वारा ख़ुद को सुधारे जाने की ज़रूरत है। दूसरा, उनके विश्वास का और अधिक चिंतनीय पहलू यह है कि उनके अनुसार केवल उत्तर भारतीय ब्राह्मण ; ख़ासतौर पर नंबूदरी ब्राह्मण ही उस बेहतर नस्ल से संबंध रखते थे। इस नस्लीय श्रेष्ठता के कारण ही नंबूदरी ब्राह्मणों को उत्तर से केरल में वहां के हिन्दूओं की, जिसमें वहां के ब्राह्मण भी शामिल थे, हीन प्रजाति कि सुधारने के लिए भेजा गया था। यह रोचक है कि यह तर्क एक ऐसे आदमी के द्वारा दिया जा रहा है जो दुनिया भर के सारे हिन्दूओं की एकता स्थापित करने की बात करता है। तीसरा, वह एक पुरुष वर्चस्ववादी की तरह यह विश्वास करते थे कि केवल उत्तर भारत की एक श्रेष्ठ नस्ल से संबंद्ध नंबूदरी ब्राह्मण पुरुष ही दक्षिण की हीन मानव नस्ल को सुधार सकते थे। उनके लिये केरल की हिंदू महिलाओं की गर्भ की पवित्रता का कोई मतलब नहीं था और वे केवल उन नंबूदरी ब्राह्मणों से सहवास द्वारा प्रजाति सुधारने के लिये उपयोग की जाने वाली वस्तुएं थीं जिनसे उनका कोई संबंध नहीं था। इस प्रकार गोलवलकर, दरअसल, इस आरोप को पुष्ट कर रहे थे कि पुराने समय के पुरुष प्रधान उच्च जाति के समाजों में दूसरी जाति की नवविवाहित महिलाओं को अपनी पहली रातें ‘श्रेष्ठ’ जाति के पुरुषों के साथ बिताने पर मज़बूर किया जाता था। इस प्रकार की घृणित परंपरा के समर्थन में में दिये गये गोलवलकर के तर्क बिल्कुल वही हैं जो बीते समय में नीची कही जाने वाली जातियों के अपमान को सही ठहराने के लिये सामंती तत्व दिया करते थे। यह एक सुपरिचित तथ्य है कि भारत के सामंती शासक अक्सर नीची कही जाने वाली जातियों की नवविवाहिताओं को उनकी पहली रातें अपने महलों में गुज़ारने पर बाध्य किया करते थे। आश्चर्यजनक रूप से गोलवलकर ने अपना यह नस्ली, अमानवीय, स्त्री विरोधी और समानता विरोधी दृष्टिकोण किसी अनपढ़ों या गुण्डों की भीड़ के आगे नहीं बल्कि गुजरात के एक प्रमुख विश्विद्यालय के छात्रों और शिक्षकों की एक श्रेष्ठ सभा में प्रस्तुत किया। वस्तुतः, आर्गेनाइज़र में छपी रिपोर्ट के अनुसार सभागृह में पहुंचने पर उनका स्वागत एक अत्यंत प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री डा बी आर शेनाय द्वारा किया गया।[3] प्रेस रिपोर्टों से यह स्पष्ट है कि इन फ़ासिस्ट और उपहासजनक विचारों के ख़िलाफ़ विरोध की कोई फुसफुसाहट भी नहीं हुई। इससे पता चलता है कि गुजरात में उच्च जाति के वक्ताओं का कितना सम्मान था और यह विवेचित होता है कि कैसे हिन्दुत्व इस क्षेत्र में पांव पसार पाया।
गोलवरकर के ये महान विचार खुले तौर पर केरल की महिलाओं और समाज के लिये अपमानजनक होने के बावज़ूद आर एस एस के मुखपत्र आर्गेनाइज़र में ‘क्रास ब्रीडिंग में हिन्दू प्रयोग’ के नाम से प्रकाशित हुए थे।[4] हालांकि हाल के दिनों में आर एस एस ने गोलवलकर की इस थीसिस को छिपाने की कोशिश की। इसने जब 2004 में श्री गुरुजी समग्र नाम से गोलवलकर के समस्त कार्यों को 12 खण्डों में प्रकाशित किया तो उनके भाषण के इस हिस्से को छोड़ दिया। खण्ड पांच (आइटम नं 10) में पेज़ 28-32 में यह भाषण संकलित है लेकिन वे दो पैराग्राफ हटा दिये गये हैं जिनमें गोलवलकर की पुरुष वर्चस्ववादी थीसिस है। दुर्भाग्य से वे पुस्तकालयों से आर्गेनाइज़र की पुरानी प्रतियां हटा पाने में सक्षम नहीं हो पाये हैं। ऐसा लगता है कि आर एस एस अब भी समझता है कि वह हमेशा और हर आदमी को उल्लू बना सकता है।
[1] देखें, ज्याफ़्री हास्किंग और जार्ज़ स्काफलिन द्वारा संपादित किताब ‘मिथ्स आफ़ नेशनहुड’ में एंथनी स्मिथ का लेख ‘द गोल्डेन एज़ एण्ड द नेशनल रिवाइवल’ पेज़ 7 पर, प्रकाशक – हर्स्ट एण्ड कंपनी, लंदन, 2000
[2] देखें, आर्गेनाइज़र के 2 जनवरी 1961 के अंक का पेज़ 5
[3] देखें, आर्गेनाइज़र, जनवरी 2, 1961 का पेज़-5
6 comments:
कबाड़खाने में सिर्फ कबाड़ ही हो तो अच्छा, नायाब चीजों की आदत नहीं है|
बेहतरीन...यह अंश तो कमाल का है.... अनुवाद किसने किया है....बहुत खूब...
अनुवास मैने ही किया है भाई!
बेहतरीन अनुवाद अशोक जी ....आशा है आप जल्दी पूरा कर लेंग ..प्रतीक्षा रहेगी.
.....!!!
Brahmins are pretty poor chaps and i simply love them :) Not because u , me and publisher are all NIBs ,but because they are simply sweet .
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