निराला को देखते ही हमें क्या दिखता है ? उलझे बाल, बेतरतीब दाढ़ी, तीखी नाक , कबीर जैसा मनमौजी इन्सान , चप्पल चटकाते या शायद नंगे पाँव चलता होगा | हिंदी में महान लोगों की कमी कभी रही नहीं , आज भी नहीं है | वैचारिक जुगाली, साहित्यिक, परिमार्जित , शैली प्रांजल और जो भी , सर्वहारा वर्ग, किसान वर्ग के कवि , अकेलेपन के कवि, रोमानी ख़याल , विद्रोही तेवर आदि आदि, के कवि समय समय पर हिंदी जगत को समृद्ध करते रहे | लेकिन निराला, वो सही में निराला था | अपने टाइम का सबसे फक्कड़ , कबाड़ी टाइप का कवि (भारतेंदु से अब तक , फक्र है) | जब वह तोडती पत्थर कहता है , तो लगता है वो भी वहीं रास्ते पे धूप में खड़ा था | या भिखारी की दशा को चित्रित करते हुए कहता है , 'पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक चल रहा लकुटिया टेक' तो पेट-पीठ का मिलकर एक होना, सच कहता हूँ, मेरे लिए काव्य का पहला चमत्कार था | महादेवी और पन्त के साथ उन्हें छायावाद के प्रमुख स्तंभों में गिना जाता है | एक बात और , निराला के बारे में कोई भी मुझसे ज्यादा ही जानता होगा | मैंने तो सिर्फ ये बात छेड़ी है, ताकि और कुछ भी पता चले | मुझे तो बस उनकी शक्ल देखके ही लगता है कि बन्दा धांसू लिखता तो रहा ही होगा , 'कूल डूड' भी रहा होगा | हालाँकि विकिपीडिया पर पढ़ा उनका जीवन चरित्र काफी दुःख भरा लगता है |
इस कबाड़ी कवि को कबाड़खाने का सलाम |
'सरोज स्मृति' जिसका एक अंश आज पोस्ट किया जा रहा है, निराला की बहुत भावुक रचना है, जो उन्होंने अपनी दिवंगत पुत्री सरोज के लिए लिखी थी |
ऊनविंश पर जो प्रथम चरण
तेरा वह जीवन-सिन्धु-तरण;
तनये, ली कर दृक्पात तरुण
जनक से जन्म की विदा अरुण!
गीते मेरी, तज रूप-नाम
वर लिया अमर शाश्वत विराम
पूरे कर शुचितर सपर्याय
जीवन के अष्टादशाध्याय,
चढ़ मृत्यु-तरणि पर तूर्ण-चरण
कह - "पित:, पूर्ण आलोक-वरण
करती हूँ मैं, यह नहीं मरण,
'सरोज' का ज्योति:शरण - तरण!" --
अशब्द अधरों का सुना भाष,
मैं कवि हूँ, पाया है प्रकाश
मैंने कुछ, अहरह रह निर्भर
ज्योतिस्तरणा के चरणों पर।
जीवित-कविते, शत-शर-जर्जर
छोड़ कर पिता को पृथ्वी पर
तू गई स्वर्ग, क्या यह विचार --
"जब पिता करेंगे मार्ग पार
यह, अक्षम अति, तब मैं सक्षम,
तारूँगी कर गह दुस्तर तम?" --
कहता तेरा प्रयाण सविनय, --
कोई न था अन्य भावोदय।
श्रावण-नभ का स्तब्धान्धकार
शुक्ला प्रथमा, कर गई पार!
धन्ये, मैं पिता निरर्थक था,
कुछ भी तेरे हित न कर सका!
जाना तो अर्थागमोपाय,
पर रहा सदा संकुचित-काय
लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ-समर।
शुचिते, पहनाकर चीनांशुक
रख सका न तुझे अत: दधिमुख।
क्षीण का न छीना कभी अन्न,
मैं लख न सका वे दृग विपन्न;
अपने आँसुओं अत: बिम्बित
देखे हैं अपने ही मुख-चित।
सोचा है नत हो बार बार --
"यह हिन्दी का स्नेहोपहार,
यह नहीं हार मेरी, भास्वर
यह रत्नहार-लोकोत्तर वर!" --
अन्यथा, जहाँ है भाव शुद्ध
साहित्य-कला-कौशल प्रबुद्ध,
हैं दिये हुए मेरे प्रमाण
कुछ वहाँ, प्राप्ति को समाधान
:सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
इस कबाड़ी कवि को कबाड़खाने का सलाम |
'सरोज स्मृति' जिसका एक अंश आज पोस्ट किया जा रहा है, निराला की बहुत भावुक रचना है, जो उन्होंने अपनी दिवंगत पुत्री सरोज के लिए लिखी थी |
ऊनविंश पर जो प्रथम चरण
तेरा वह जीवन-सिन्धु-तरण;
तनये, ली कर दृक्पात तरुण
जनक से जन्म की विदा अरुण!
गीते मेरी, तज रूप-नाम
वर लिया अमर शाश्वत विराम
पूरे कर शुचितर सपर्याय
जीवन के अष्टादशाध्याय,
चढ़ मृत्यु-तरणि पर तूर्ण-चरण
कह - "पित:, पूर्ण आलोक-वरण
करती हूँ मैं, यह नहीं मरण,
'सरोज' का ज्योति:शरण - तरण!" --
अशब्द अधरों का सुना भाष,
मैं कवि हूँ, पाया है प्रकाश
मैंने कुछ, अहरह रह निर्भर
ज्योतिस्तरणा के चरणों पर।
जीवित-कविते, शत-शर-जर्जर
छोड़ कर पिता को पृथ्वी पर
तू गई स्वर्ग, क्या यह विचार --
"जब पिता करेंगे मार्ग पार
यह, अक्षम अति, तब मैं सक्षम,
तारूँगी कर गह दुस्तर तम?" --
कहता तेरा प्रयाण सविनय, --
कोई न था अन्य भावोदय।
श्रावण-नभ का स्तब्धान्धकार
शुक्ला प्रथमा, कर गई पार!
धन्ये, मैं पिता निरर्थक था,
कुछ भी तेरे हित न कर सका!
जाना तो अर्थागमोपाय,
पर रहा सदा संकुचित-काय
लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ-समर।
शुचिते, पहनाकर चीनांशुक
रख सका न तुझे अत: दधिमुख।
क्षीण का न छीना कभी अन्न,
मैं लख न सका वे दृग विपन्न;
अपने आँसुओं अत: बिम्बित
देखे हैं अपने ही मुख-चित।
सोचा है नत हो बार बार --
"यह हिन्दी का स्नेहोपहार,
यह नहीं हार मेरी, भास्वर
यह रत्नहार-लोकोत्तर वर!" --
अन्यथा, जहाँ है भाव शुद्ध
साहित्य-कला-कौशल प्रबुद्ध,
हैं दिये हुए मेरे प्रमाण
कुछ वहाँ, प्राप्ति को समाधान
:सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
20 comments:
सरोज स्मृति पूरी पढ़ी, आँखों में अश्रु छलक आये थे। पिता के शब्दों में पुत्री को इतनी स्नेहमयी अभिव्यक्ति कभी नहीं सुनी।
पूरी कविता देनी थी। इस एक कविता में ही उनके पूरे रेंज के दर्शन हो जाते हैं - कान्यकुब्ज कुल कुलांगार, चमरौधे जूते से सकेल से लेकर युवती सरोज के अधरों पर थर थर काँपते लावण्य़ भार तक।
पहली 12 पंक्तियाँ तो एक अकिंचन की पुत्री की मृत्यु को भी निर्वाणी गरिमा देती हैं और अंत तक आते आते कर्मों का तर्पण करते जब वज्रपात की बात कहते हैं तो सारा संयम टूट जाता है ... अपने सीमित अध्ययन के दौरान मेरे ध्यान में ऐसी कोई शोकगीति नहीं आई है। विश्व साहित्य की एक धरोहर है यह कृति।
मैंने निराला जी के बारे में बहुत पढ़ा है लेकिन उनकी रचनाओं का गहन अध्यन नहीं किया है...जितना भी किया है उस से वो सबसे अलग और बेजोड़ कवि के रूप में सामने आते हैं...
नीरज
सच्चे फ़कीर थे निराला ......खालिस ....ये कविता दस्तावेज़ है ..एक वक़्त का...मोह का...रिश्ते का......
... behatreen post !!
कबाडखाना मेरा प्रिय ब्लॉग है.. टिप्पणी के तौर पर मैं पूरी कविता प्रस्तुत करता हूँ..
सरोज स्मृति / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
ऊनविंश पर जो प्रथम चरण
तेरा वह जीवन-सिन्धु-तरण;
तनये, ली कर दृक्पात तरुण
जनक से जन्म की विदा अरुण!
गीते मेरी, तज रूप-नाम
वर लिया अमर शाश्वत विराम
पूरे कर शुचितर सपर्याय
जीवन के अष्टादशाध्याय,
चढ़ मृत्यु-तरणि पर तूर्ण-चरण
कह - "पित:, पूर्ण आलोक-वरण
करती हूँ मैं, यह नहीं मरण,
'सरोज' का ज्योति:शरण - तरण!" --
अशब्द अधरों का सुना भाष,
मैं कवि हूँ, पाया है प्रकाश
मैंने कुछ, अहरह रह निर्भर
ज्योतिस्तरणा के चरणों पर।
जीवित-कविते, शत-शर-जर्जर
छोड़ कर पिता को पृथ्वी पर
तू गई स्वर्ग, क्या यह विचार --
"जब पिता करेंगे मार्ग पार
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तारूँगी कर गह दुस्तर तम?" --
कहता तेरा प्रयाण सविनय, --
कोई न था अन्य भावोदय।
श्रावण-नभ का स्तब्धान्धकार
शुक्ला प्रथमा, कर गई पार!
धन्ये, मैं पिता निरर्थक था,
कुछ भी तेरे हित न कर सका!
जाना तो अर्थागमोपाय,
पर रहा सदा संकुचित-काय
लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ-समर।
शुचिते, पहनाकर चीनांशुक
रख सका न तुझे अत: दधिमुख।
क्षीण का न छीना कभी अन्न,
मैं लख न सका वे दृग विपन्न;
अपने आँसुओं अत: बिम्बित
देखे हैं अपने ही मुख-चित।
सोचा है नत हो बार बार --
"यह हिन्दी का स्नेहोपहार,
यह नहीं हार मेरी, भास्वर
यह रत्नहार-लोकोत्तर वर!" --
अन्यथा, जहाँ है भाव शुद्ध
साहित्य-कला-कौशल प्रबुद्ध,
हैं दिये हुए मेरे प्रमाण
कुछ वहाँ, प्राप्ति को समाधान
पार्श्व में अन्य रख कुशल हस्त
गद्य में पद्य में समाभ्यस्त। --
देखें वे; हसँते हुए प्रवर,
जो रहे देखते सदा समर,
एक साथ जब शत घात घूर्ण
आते थे मुझ पर तुले तूर्ण,
देखता रहा मैं खडा़ अपल
वह शर-क्षेप, वह रण-कौशल।
व्यक्त हो चुका चीत्कारोत्कल
क्रुद्ध युद्ध का रुद्ध-कंठ फल।
और भी फलित होगी वह छवि,
जागे जीवन-जीवन का रवि,
लेकर-कर कल तूलिका कला,
देखो क्या रँग भरती विमला,
वांछित उस किस लांछित छवि पर
फेरती स्नेह कूची भर।
धन्य हो महाप्राण। सादर नमन्।
One more interesting input --Nirala used to converse in chaste English and at one stage of life only in English . Don't ask me the exact source but thats a fact and i read it in someone's memoirs in Dharmyug .
....and i salute the maestro who perhaps doesn't have a decent memorial dedicated to his life, times and creations.
अश्रुपूर्ण करती पंक्तियाँ !! भला कौन लिख सकता था इन्हें , बिना निराला के क्योंकि उन्हीं में यह कह सकने का साहस भी था कि '' मैं कवि हूँ , पाया है प्रकाश '' !!
adbhut samarthya ke saath likhi gayi kavita hai yeh. aisi kavita koi racketeer nahin likh sakta.
Yeh Basaliyal ji jo bhi hain, hain achchhe adami. Kabaadkhaana ko ab jaakar kuchh input mil raha hai aur usmein quality bhi hai.
Jab kabhi unki niji aur samvednaatmak pareshaniyon ke baare mein jaankar ashoke bhai se kehata tha ki din mein ek hi post kaafi hai to vah mujhe ashcharychakit karte huye din men swam do do postein daal dete the aur kehte the ki ab se yehi silsila rakhna hai. yah kehne mein atishayokti n hogi ki Hindi blog jagat ke sachche sipahi hain ashoke bhai. main us daur ki baat kar rahaa hoon jab ashok bhai logon ko blog se dafaa karane ki chitthiyaan likhne vaale the. lekin basliyal ji ke aane se ashoke ji ko avashya raahat hui hogi, yeh mere liye bhi sukoon ki baat haai. kyonki duniya men maine ashoke pande jaise kam mehnat karnewale dekhe hain. kripya isse thothi taareef na samjha jaaye!
गजब की कविता हैा विदयार्थी जीवन में इस कविता का उल्लेख कई स्थानों पर पढा था किन्तु कविता आज पहली बार इस पोस्ट पर पढी हैा निराला जेसा महाप्राण ही एक शोकगीत में भी पारलौकिक ओज भर सकता थाा हिन्दी साहित्य में सम्भवत: यह सर्वश्रेष्ठ शोकगीत हैा आजकल के हिन्दी पाठकों को शायद ऐसी शब्दावली की कविता पढने में असुविधा हो निराला ने अपनी बात को प्रभावशाली ढंग से कहने या ओजपूर्वक कहने के लिए ऐसी ही भाषा का प्रयोग किया हैा अपनी एक अन्य कविता 'राम की शक्ति पूजा' में भी उन्होंने ऐसी ही भाषा का प्रयोग किया हैा
गजब की कविता हैा विदयार्थी जीवन में इस कविता का उल्लेख कई स्थानों पर पढा था किन्तु कविता आज पहली बार इस पोस्ट पर पढी हैा निराला जेसा महाप्राण ही एक शोकगीत में भी पारलौकिक ओज भर सकता थाा हिन्दी साहित्य में सम्भवत: यह सर्वश्रेष्ठ शोकगीत हैा आजकल के हिन्दी पाठकों को शायद ऐसी शब्दावली की कविता पढने में असुविधा हो निराला ने अपनी बात को प्रभावशाली ढंग से कहने या ओजपूर्वक कहने के लिए ऐसी ही भाषा का प्रयोग किया हैा अपनी एक अन्य कविता 'राम की शक्ति पूजा' में भी उन्होंने ऐसी ही भाषा का प्रयोग किया हैा
thank you Vijay bhai
@ Arun,
kavita kaafi badi hai, aapne bhi adhuri hi di hai. :)
"निराला" का काव्य उनके समय से कहीं आगे है, वास्तव में ह्रदय में टीस उठा देने वाली कविता |
@@ नीरज जी
कविता बड़ी थी और कमेन्ट बाक्स में समा नहीं पायी थी...
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अति सुंदर
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