Wednesday, January 26, 2011

परम पद पा गया वह पहाड़ी स्वर !


कुछ सुरों की ताब श्रोता के मानस में ऐसा घर कर लेती है कि वह सामने हो न हो कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता.किराना घराने के शीर्षस्थ स्वर साधक पं.भीमसेन जोशी ने पिछले पचास बरसों में कुछ ऐसी ही मुकम्मिल जगह बना ली थी. वे शरीरी लोक के बाहर के वासी हो गये थे और पुरी दुनिया में फ़ैले उनके मुरीदों की संख्या शायद उनके परिजनों से कहीं अधिक और लाखों में थी. पहाड़ी आवाज़ के धनी पं.भीमसेन जोशी की क़ामयाबी का सिलसिला कुछ देरी से शुरू हुआ क्योंकि जिस कालखण्ड में वे युवा थे उस समय कई दिग्गज स्वर परिदृश्य पर सक्रिय थे. ख़ुद उनके घराने की हीराबाई बड़ोदेकर और गंगूबाई हंगल महफ़िलों की शान बढ़ा रहीं थीं और पं.ओंकारनाथ ठाकुर,उस्ताद अमीर ख़ाँ,उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ,उस्ताद फ़ैयाज़ ख़ाँ,पं.विनायकराव पटवर्धन जैसी आवाज़ों का जलवा सर्वत्र मौजूद था. भीमसेनजी के करियर का फ़ैलाव भी कुछ वैसे विलम्बित गति में ही हुआ जैसी कि उनकी गायकी का होता रहा है. लेकिन जैसे ही वे उसकी गायकी लय पा लेती थी वैसे ही भीमसेनजी की शख़्सियत का पाया भी गढ़ता गया.ख़रामा-ख़रामा पं.भीमसेन जोशी पूरे देश में संगीत समारोहों की क़ामयाबी का अचूक फ़ार्मूला बन गये.
पं.भीमसेन जोशी की स्वर-यात्रा ख़ालिस तौर तपस्या का का जगमगाता दस्तावेज़ है.
पण्डितजी को जब जब भी सुना गया ; कभी ऐसा नहीं लगा कि आज कोई कोर-कसर बाक़ी रह गई. इसकी ख़ास वजह यह थी कि वे उस पीढ़ी के नुमाइंदे थे जो गायकी को एक इबादत की तरह लेती थी और मानती थी कि आयोजक से बड़ी ज़िम्मेदारी कलाकार की होती कि वह वह अपना १००% देकर अपना फ़र्ज़ ही पूरा कर रही है.

पण्डित भीमसेन जोशी के जाने के बाद एक सितारा चला गया, मैं तो उनसे बहुत प्रभावित थी और उन्होंने मुझे हमेशा आशीर्वाद दिया, वो तो मेरे लिये गुरू जैसे ही थे ऐसे कई वक्तव्य आपको अख़बारों और टीवी चैनल्स पर पढ़ने को और सुनने को मिलने वाले हैं लेकिन समझने की बात यह है कि यह समय पं.जोशी से रिश्तेदारी और अपनापा दिखाने का नहीं उनकी गायकी के उस स्वर-वैभव को अपने भीतर महसूस करने का है.नई पीढ़ी के कई कलाकार भीमसेन जोशी गायकी का अनुसरण करते हैं और नक़ल भी करना चाहते हैं लेकिन मुझे लगता है कि वे यहीं ग़लती करते हैं. स्वयं भीमसेनजी ने अपने गुरू सवाई गंधर्व की गायकी के अनूठेपन को आत्मसात किया,उनकी आवाज़ को नहीं.रचनाधर्मिता को लेकर आज संगीत जगत में हमेशा बड़-चढ़ कर बातें की जाती रहीं हैं.लेकिन भीमसेनजी को याद करें तो लगता है कि शास्त्र की मर्यादा में रहकर भी उन्होंने फ़िल्म संगीत,अभंग,नाट्य-संगीत और भक्ति पद गाने से गुरेज़ नहीं किया.और तो और उन्होंने दूरदर्शन के लिये बनाए गये वृत्तचित्र मिले सुर मेरा तुम्हारा और देसराग में भी अपना स्वर दिया. इन्दौर के पचकुईया शिव मंदिर में वे बरसों तक आते ही रहे और अपनी स्वरांजली पेश करते रहे. शास्त्र के लिहाज़ से देखें तो तीनों सप्तकों में सहजता से फ़िरता पण्डितजी का स्वर एक विशिष्ट टैक्चर का बना हुआ था और उसमें मौजूद ठोस खरज नाभि से उठकर ब्रह्मनाद बन जाया करता था. आकार की तानों के साथ खेलने का उनका एक बेजोड़ अंदाज़ था सुरों के साथ वे मनचाही लयकारी से समाँ बांध देते थे.संगीत की धजा को हमेशा ऊँचा रखने फ़हराने वाले महान साधक के रूप में भारतरत्न पण्डित भीमसेन जोशी का नाम उस फ़ेहरिस्त में शुमार हो गया है जिसका आग़ाज़ तानसेन,बैजूबावरा,भातखण्डे,पलुस्कर,सवाई गंधर्व,अलादिया ख़ाँ,रहमत अली ख़ाँ जैसे नामों का शुमार है.देह से ज़रूर पण्डित भीमसेन जोशी हमसे विलग हुए हैं लेकिन उनकी गायका का वितान मनुष्यता को एक सुरीली छाँह देता रहेगा जिससे हम मनुष्य बने रहें.

(इन्दौर के प्राचीन शनि मंदिर में अपनी सुर-सखी स्व.वत्सलाताई के साथ पण्डितजी..तस्वीर तक़रीबन सन चौरासी की है)

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

एक सितारा टूट गया।

-सर्जना शर्मा- said...

oदिल्ली के कई संगीत समारोहों में पंडित जी को सुना आंख बंद करके पंडित जी गाते तो पूरे हाल में सन्नाटा छा जाता । उनके कई गीत आज भी कानों में गूंजते हैं और उनका स्वर आंखें भीगो जाता है । पंडित जी नहीं रहे तो क्या उनका स्वर अमर है और जब भी हम सुनना चाहेगें सुन लेंगें । जब भी उनकी याद आयेगी आंखें बंद करके उनकी वही छवि याद करेंगें जो दिल्ली के लाइव कंसर्ट में देखी थी । उन्हें शत शत नमन