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ठिठुरते मौसम की धार
छील छील ले जाती है त्वचाएं
बींधती हुई पेशियां
गड़ जाती हिड्डयों मे
छू लेती मज्जा को
स्नायुओं से गुज़रती हई
झनझना दे रही तुम्हें आत्मा तक...................
सूरज से पूछो, कहां छिपा बैठा है
बर्फ हो रही संवेदनाएं
अकड़ रहे शब्द
कंपकपाते भाव
नदियां चुप और पहाड़ हैं स्थिर!
कूदो
अंधेरे कुहासों में
खींच लाओ बाहर
गरमाहट का वह लाल-लाल गोला
पूछो उससे, क्यों छोड़ दिया चमकना
जम रही हैं सारी ऋचाएं
जो उसके सम्मान में रची गई
तुम्हारी छाती में
कि टपकेंगी आंखों से
जब पिघलेगी
जब हालात बनेंगे पिघलने के
कहो उससे, तेरी छाती में उतर आए!
छाती में उतर आए
कि लिख सको एक दहकती हुई चीख
कि चटकने लगे सन्नाटों के बर्फ
टूट जाए कड़ाके की नीन्द
जाग जाए लिहाफों में सिकुड़ते सपने
और मौसम ठिठुरना छोड़
तुम्हारे आस पास बहने लगे
कल-कल
गुनगुना पानी बनकर
पूछो उससे क्या वह आएगा ?
5 comments:
कहीं से कोई किरण तो पहुँच जाये हम तक भी।
कविता पढ़कर वाकई तन-मन सिहर उठा। वैसे कविता का रचनाकार कौन है, आप हैं या कोई और, उसका नाम भी बताते तो अच्छा होता।
# ghanashyaam maurya, कविता मेरी ही है. ऊपर लिखना भूल गया. और फोटो ग्राफर का नाम भी लिखन भूल गया था .....ठीक किये देता हूँ. थेंक्स...
कहाँ है वो प्रमथ्यु जिसने देवताओं के अग्नि चुराई थी?या विदेघ माथव जो अग्नि धारण कर पूरब के भारत में जंगलों को जलाता चला गया था? सूरज फिलहाल छुट्टी पर है.
अद्भुत कविता अजेय जी. किसी मूर्त,स्थूल,ऐन्द्रिक भाव को लाजवाब महीनता से अमूर्तन की ओर ले जाती.कितने कितने भाव एक साथ जगाती.
bahut achcha likhe hain.
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