Friday, January 14, 2011
मैं मीर मीर कह उस को बहुत पुकार रहा
गली में उसकी गया सो गया न बोला कुछ
मैं मीर मीर कह उस को बहुत पुकार रहा
कल देर रात एक मित्र से ख़ुदा-ए-सुखन मीर तकी मीर की शायरी पर चर्चा होती रही.
कहना ने होगा मीर को मैं दुनिया का महानतम प्रेम कवि मानता हूँ. मीर से यह लगाव बरसों पुराना है और हमारी यह पहचान उत्तरोत्तर गहरी होती चली गयी है.
मीर की बात करूं और उनका कोई शेर न पेश किया जाए ऐसा मुमकिन नहीं. सिरहाने मीर के अहिस्ता बोलो, अभी टुक रोते-रोते सो गया है कहने वाले मीर का एक पसंदीदा शेर इस तरह है:
या रोये या रुलाया, अपनी तो यूँ ही गुज़री
क्या ज़िक्र हमसफीरां यारान-ए-शादमां का
बाबा मीर की कविता ये लगाव मेरे प्रिय समकालीन हिंदी कवियों में एक आलोक धन्वा का भी शगल है. उनकी एक कविता मीर को समर्पित है और बहुत सादा शब्दों में मीर की शायरी पर एक ज़रूरी कमेन्ट कराती है और अहसास कराती है की मीर को समझने के लिए तबीयत में एक फक्कड़पन और सीने में गहरे ज़ख्मों का होना बुनियादी ज़रूरत है. कविता प्रस्तुत है:
मीर
मीर पर बातें करो
तो वे भी उतनी ही अच्छी लगती हैं
जितने मीर
और तुम्हारा वह कहना सब
दीवानगी की सादगी में
दिल-दिल करना
दुहराना दिल के बारे में
जोर देकर कहना अपने दिल के बारे में की
जनाब यह वही दिल है
जो मीर की गली से हो आया है.
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आलोक धन्वा,
मीर तकी मीर
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7 comments:
मीर पढ़ा नहीं, पर पढ़ने का मन है।
Mast
दिवाने,दिवानो के काम आते है
वाह! क्या बात है! मीर साहब की तो बात ही अलग है!
लब तेरे मीर ने भी देखें हैं
पंखुड़ी एक गुलाब की सी है
बातें सुनते तो ग़ालिब हो जाते
:गुलज़ार
shaandar ! khoob !
सोचा! कुछ देर इस पोस्ट पर रुककर मीर - मीर पुकारलूँ।
हम फकीरों से बेअदाई क्या
आन...
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