Tuesday, January 18, 2011

ख़लील ज़िब्रान : एक यायावर

छोटे हों तो उम्र बताने में कोई हर्ज नहीं , इसी तर्ज पर मैं ये साफ़ कर दूँ कि अनुवाद की ये मेरी पहली कोशिश है | अशोक भाई के आह्वान पर कल थोड़ा सोचकर मैंने पाया कि ख़लील ज़िब्रान साहब के लिखे से मैं काफी प्रभावित हूँ | फौरी तौर पर उनकी बिलकुल अलहदा सोच से, जो किसी लेखक के बनिस्बत सूफी संतों के ज्यादा करीब लगती है |

यायावर
चौराहे पर वह मुझे मिला, चोगा पहने हुए, और छड़ी का सहारा लिए | उसके चेहरे पर दर्द साफ़ नुमांया हो रहा था | हमने एक दूसरे का अभिवादन किया, और तब मैंने उससे कहा, "कृपया मेरे घर आकर कुछ दिन मेरे मेहमान बनें |"

उसने स्वीकार किया |

मेरी पत्नी और बच्चे, घर की देहरी पर ही उससे मिले | उन्हें देखकर वह मुस्कुराया, मेरे घरवालों को भी उसका आना भला लगा |

उसके बाद हम लकड़ी के एक तख्ते पर बैठ गए | उसकी शांति और रहस्यमयता की वजह से हमें उसके साथ बैठकर काफी सुकून महसूस हुआ |

रात्रिभोज के बाद हम अलाव के पास बैठ गए, और मैंने उससे उसकी पिछली यात्राओं के बारे में पूछा |

उस रात और उसके अगले दिन उसने हमें कई किस्से सुनाये, लेकिन जो कहानियाँ मैं अभी लिख रहा हूँ वे उसके कडुवे अनुभव के किस्से हैं , हालांकि वो खुद बहुत दयालु था | ये किस्से उसके रास्तों की गर्द और धैर्य के किस्से हैं |

और तीन दिन बाद वो चला गया तो उसका जाना हमें किसी मेहमान का जाना नहीं लगा, बल्कि किसी अपने का ही थोड़ी देर के लिए बगीचे में सैर के लिए जाना जैसा लगा, जो अभी तक वापस नहीं आया है |


लिबास
एक बार सुन्दरता और कुरूपता समंदर के किनारे मिले, उन्होंने एक दूसरे से कहा , "चलो , थोड़ा समंदर में नहा लें |"

उन्होंने अपने कपडे उतारकर एक जगह रखे और पानी में तैरने लगे | और कुछ देर बाद, कुरूपता तट पर वापस आकर और खुद को सुन्दरता की पोशाक में संवारकर और चुपके से वहाँ से चला गया |

और कुछ समय बाद सुन्दरता भी समंदर से बाहर आई, अपनी पोशाक उसे वहाँ पर नहीं मिली | उसे अपनी अवस्था पर काफी शर्म आ रही थी , इसलिए उसने कुरूपता की ही पोशाक पहन ली | और वह अपने रास्ते चली गयी |

और उस दिन के बाद से लोग उन दोनों में , एक को दूसरा समझने की ग़लती करते हैं |

फिर भी कुछ है जिन्होंने सुन्दरता के चेहरे को ध्यान से देखा है और उसके कपड़ों के बावजूद वे उसे पहचान लेते हैं | और कुछ हैं जिन्होंने कुरूपता के चेहरे को जाना है, और उसके कपडे भी उनकी आँखों में धूल नहीं झोंक पाते |

6 comments:

सोमेश सक्सेना said...

बहुत खूब नीरज जी, ये सुंदरता और कुरूपता वाला किस्सा पहली बार पढ़ा। पढ़ाने के लिए शुक्रिया :)

vandana gupta said...

गज़ब कर दिया……………आभार आपका पढवाने के लिए।

मुनीश ( munish ) said...

हालांकि दोनों में कोई अंतर्संबंध नहीं फिर भी जाने क्यों क्यों ख़लील साहब की दूसरी कहानी याद दिल रही है 'Diary of a Nudist ki ' . ६० के दशक की प्यारी फिल्म है , यू ट्यूब पे पूरी मौजूद !

सिद्धान्त said...

अनुवाद की कोशिश अच्छी, इसे और पैनेपन की ज़रुरत है, आशा है की जिसे आप्प्राप्त करेंगे. यहाँ लिखा गया, अपने शिल्प से साम्य नहीं बैठा पाता है,फिर भी विषय अपने में खूबसूरत. शुभकामनाएं..

दर्शन said...

गहरी बात !!!!

कितनी सच है !!
keep it up brother !!

प्रवीण पाण्डेय said...

तब से अब तक दुबारा नहाने नहीं गये वे दोनों।