खबला – मयाड़ घाटी का प्रवेश द्वार
16 अप्रेल 1995, प्रातः 8:30 बजे।
हम मयाड़ घाटी के लिए प्रस्थान कर गए हैं।
आज का डेस्टिनेशन है—चाँगुट गाँव . आज हम भारी नाश्ता कर के रवाना हुए हैं। पिछले कल की गलती नहीं दुहराना चाहते थे.
मयाड़ घाटी में जाने का मतलब है विश्व के दुरूहतम पर्वत मालाओं मे से एक , ज़ंस्कर रेंज को चीरते हुए उत्तर की ओर चलते चले जाना. भौगोलिक कारणो के चलते यह क्षेत्र आर्थिक रूप से पिछड़ गया है, और आदिम संस्कृति के कुछ अवशेष यहाँ फॉसिल की तरह बचे रह गए हैं।
शुरू में घाटी ‘U’ आकार की है. दोनों तरफ सापड़ ढाँक और बीच में शोर मचाती हुई मयाड़ नदी. नदी के मुहाने पर घना वेजिटेशन है. ज़्यादातर पाईन प्रजाति के पेड़ हैं. सुबह की बर्फानी हवा में बिरोज़े की तीखी गन्ध घुल रही है।
सहगल जी ने मुझे फोबरङ शिखर दिखाया है. सफेद चोटी पर पसरी सुनहरी धूप देखते हुए मैं मंत्रमुग्ध सा चल रहा हूँ . चौहान जी नज़रें ज़मीन पर गड़ाए हुए चल रहे हैं. सहगल जी आदतन कुछ गुनगुनाते हुए कदम बढ़ा रहे हैं।
खड़ी चट्टान को काट कर सड़क बनाई गई है. किसी ज़माने में जब सड़क नही बनी थी तो रास्ता इस ढाँक के ऊपर से हो कर जाता था. यह रास्ता खबला कहलाता है.नदी का अधिकतर हिस्सा हिमस्खलन के कारण बर्फ से ढका है. कहीं कहीं विशाल क्रेवासेज़ से उफनती नदी के दर्शन होते हैं तो मैं अवाक उसे देखता रह जाता हूँ।
साथ मे कुछ स्थानीय लोग भी हैं – एक अधेड़ मर्द , दो स्त्रियाँ और एक संभवतः स्कूल में पढ़ने वाली लड़की. मैं उन लोगों से घाटी के बारे पूछता जाता हूँ और अपनी समझ के अनुसार वे उत्तर देते जा रहे हैं. ये लोग बहुत मिलनसार एवं निश्छल हैं. बाहरी सभ्यता के प्रति स्वाभाविक जिज्ञासा और नया सीखने की अकूत लालसा लिए हुए. अपनी अभिव्यक्ति मे ये लोग बेबाक हैं . आम ग्रामीण लोगों की तरह ये संकोची , शरमीले और रूढ़िवादी न हो कर बिन्दास, ज़िन्दादिल और उदार हैं. अपने पिछड़ेपन को ले कर इन मे कोई हीनभावना नहीं दिख रही रही है।
(जारी)
16 अप्रेल 1995, प्रातः 8:30 बजे।
हम मयाड़ घाटी के लिए प्रस्थान कर गए हैं।
आज का डेस्टिनेशन है—चाँगुट गाँव . आज हम भारी नाश्ता कर के रवाना हुए हैं। पिछले कल की गलती नहीं दुहराना चाहते थे.
मयाड़ घाटी में जाने का मतलब है विश्व के दुरूहतम पर्वत मालाओं मे से एक , ज़ंस्कर रेंज को चीरते हुए उत्तर की ओर चलते चले जाना. भौगोलिक कारणो के चलते यह क्षेत्र आर्थिक रूप से पिछड़ गया है, और आदिम संस्कृति के कुछ अवशेष यहाँ फॉसिल की तरह बचे रह गए हैं।
शुरू में घाटी ‘U’ आकार की है. दोनों तरफ सापड़ ढाँक और बीच में शोर मचाती हुई मयाड़ नदी. नदी के मुहाने पर घना वेजिटेशन है. ज़्यादातर पाईन प्रजाति के पेड़ हैं. सुबह की बर्फानी हवा में बिरोज़े की तीखी गन्ध घुल रही है।
सहगल जी ने मुझे फोबरङ शिखर दिखाया है. सफेद चोटी पर पसरी सुनहरी धूप देखते हुए मैं मंत्रमुग्ध सा चल रहा हूँ . चौहान जी नज़रें ज़मीन पर गड़ाए हुए चल रहे हैं. सहगल जी आदतन कुछ गुनगुनाते हुए कदम बढ़ा रहे हैं।
खड़ी चट्टान को काट कर सड़क बनाई गई है. किसी ज़माने में जब सड़क नही बनी थी तो रास्ता इस ढाँक के ऊपर से हो कर जाता था. यह रास्ता खबला कहलाता है.नदी का अधिकतर हिस्सा हिमस्खलन के कारण बर्फ से ढका है. कहीं कहीं विशाल क्रेवासेज़ से उफनती नदी के दर्शन होते हैं तो मैं अवाक उसे देखता रह जाता हूँ।
साथ मे कुछ स्थानीय लोग भी हैं – एक अधेड़ मर्द , दो स्त्रियाँ और एक संभवतः स्कूल में पढ़ने वाली लड़की. मैं उन लोगों से घाटी के बारे पूछता जाता हूँ और अपनी समझ के अनुसार वे उत्तर देते जा रहे हैं. ये लोग बहुत मिलनसार एवं निश्छल हैं. बाहरी सभ्यता के प्रति स्वाभाविक जिज्ञासा और नया सीखने की अकूत लालसा लिए हुए. अपनी अभिव्यक्ति मे ये लोग बेबाक हैं . आम ग्रामीण लोगों की तरह ये संकोची , शरमीले और रूढ़िवादी न हो कर बिन्दास, ज़िन्दादिल और उदार हैं. अपने पिछड़ेपन को ले कर इन मे कोई हीनभावना नहीं दिख रही रही है।
(जारी)
2 comments:
मयाड़ घाटी की यात्रा में हम भी साथ हैं, मानसिक रूप से।
जारी रहे यह!
बहुत बढ़िया!
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