ब्यूँस की टहनियाँ
तोमलिङ नाले से आगे जा कर एक जगह जुनिपर और चट्टानो से भरा एक मनोरम स्थल है. धूप काफी तेज़ हो रही है, जब कि नाले की बर्फानी हवा भी बेहद तीखी है. हम ने यहीं विश्राम करने का फैसला लिया है. उन औरतों ने अपने किल्टों से बक्पिणि निकाला है और पुग भी. पुग जौ के भुने हुए दाने हैं . लाहुल की स्त्रियाँ अपनी कतर की जेबों में भरे रखतीं हैं. काम काज या सफर के बीच मुट्ठी भर निकाल कर सब को बाँटती हैं और खुद भी खा लेतीं हैं. यह अल्पाहार बाँटते हुए पहली बार मेरा ध्यान इन औरतों की हथेलियों पर गया है . बीच में बेतरह घिसी हुईं और लाल. किनारे से खुरदुरी, बिवाईयों वाली, काली बेढब, गाँठ दार टेढ़ी मेढ़ी उंगलियाँ. जिन मे पुराने घावों के अनेक निशान दिख रहे हैं.
फिर उस छोटी लड़की की नाज़ुक उंगलियों को देखता हूँ. भीतर कुछ पिघलने लगा है.
ऐसा स्वच्छ मन, मधुर कंठ, उन्मुक्त ठहाके......... लेकिन हाथों की यह दुर्दशा कुछ और ही कहानी कह रही है. आदिवासी स्त्रियाँ अपना दर्द गीतों और ठहाकों में उडेल देती हैं. मुझे ब्यूँस की टहनियाँ याद आईं है ........
जैसा चाहो लचकाओ दबाओ
झुकती , लहराती रहेंगी
जब तक हम में लोच है
सूख जाने पर लेकिन
कड़क कर टूट जाएंगी
हम् ब्यूँस की टहनियाँ हैं
अचानक इन खिलते हुए चेहरों के पीछे छिपी हुई गहरी व्यथा की झलक मिल गई है मुझे. बेचैन हो उठता हूँ. दराटी से झाड़ झंखाड़ साफ करती माँ सामने आ गई हैं. उस की हथेलियों में काँटे चुभे हुए हैं और मैं एक ज़ंग लगी सूई से उन्हे निकालने की कोशिश कर रहा हूँ. पर काँटे हैं कि खत्म ही नहीं होते. एक निकालता हूँ तो दूसरा दिख जाता.....
यह सरकारी काम निपटा कर के दो दिन घर में माँ के पास रहूँगा. उस के हाथों से तमाम काँटे निकाल फैकूँगा......!
उस आदमी ने अरक की बोतल से दो घूँट गटक लिए हैं फिर बोतल आगे पास कर के उदासीन भाव से पुग चाबने लगा है.... कुटुर..कुटुर....कुटुर... मुझे ज़ोर की भूख लगी है. कभी कभी कुछ ध्वनियाँ भी एपिटाईज़र का काम करतीं हैं . औरतों से थोड़ी और बक्पिणि माँग कर खाने लगा हूँ. .......चौहान जी को अरक तो पसन्द है, लेकिन पुग अच्छा सेलेड नहीं है. फिर भी आज भाई जी प्रसन्न हैं... और खूब पी रहे हैं. फटी पेंट की परवाह किए बिना.
............... चाँगुट कितनी दूर है?
(जारी)
1 comment:
रोचक।
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