हिन्दुस्तान लखनऊ संस्करण के सम्पादक नवीन जोशी उर्फ़ नवीन दा के उपन्यास दावानल के कुछेक अंश आप कबाड़ख़ाने पर पढ़ चुके हैं. हाल ही में नवीन दा ऑस्ट्रेलिया के भ्रमण से लौटे हैं, मेरे इसरार पर उन्होंने यह आलेख विशेषतः कबाड़ख़ाने के लिए भेजा है. उनका धन्यवाद.
विशाल समृद्ध भू-भाग और सीमित आबादी, अच्छी कमाई, घर-घर में न्यूनतम दो महँगी कारें और ऐशो-आराम का पूरा लुत्फ उठाते लोग। यूं देखने पर आस्ट्रेलिया खाये-अघाये लोगों लोगों का मुल्क लगता है। है भी, लेकिन इस समृद्धि-लोक में जीवन की जंग लड़ रहे लोग भी हैं। यह अलग बात है कि उनका चेहरा दयनीय या रुलंटा नहीं बल्कि तमाशे या मनोरंजन की वस्तु के रूप में हँसता-खिलखिलाता ही सामने आता है।
सबसे पहले मूल आस्ट्रेलियाई आदिवासी हैं, जिन्हें यहां ‘एबोरिजनल्स’ के नाम से जानते-पुकारते हैं। आज के आस्ट्रेलिया में सत्ता और समृद्धि के समस्त संसाधनों पर यूरोपीय मूल के लोगों का कब्जा है और ‘एबोरिजनल्स’ वंचित समुदा्य हैं। सन् 1770 में कैप्टन कुक की आस्ट्रेलिया की खोज के बाद से आस्ट्रेलिया ब्रिटिश उपनिवेश बना और कम से कम 40 हजार साल से वहाँ रह रहे मूल आस्ट्रेलियावासियों को मारा-खदेड़ा जाने लगा। प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश उपनिवेश से मुक्त होने तक मूल आस्ट्रेलियाई निवासियों की संख्या बहुत कम हो गई थी। आज भी मूल आस्ट्रेलियाईयों की आबादी आस्ट्रेलिया की कुल जनसंख्या की दो-ढाई प्रतिशत ही है। आज भी वे उपेक्षित-वंचित हैं, उनके संगठन बने हैं और यदा-कदा आंदोलन-प्रदर्शन-सेमिनार भी वे अपने हक के लिए करते रहते हैं।
तो, आज के समृद्ध आस्ट्रेलिया में एक सतत संघर्ष इन मूल निवासियों का है जो मुख्य धारा से दूर धकेल दिए गए थे. आज उनमें से कई अच्छी निजी व सरकारी सेवाओं में भी हैं, मगर ‘वन ऑफ देम’ (उनमें से एक) कह कर इंगित किए जाते हैं। कई मूल निवासी परिवार जो ज़्यादा पढ़-लिख नहीं पाए हैं, अपनी पुरातन कला-संस्कृति का जगह-जगह प्रदर्शन करके रोजी-रोटी कमाते हैं। हमने उन्हें सिडनी हार्बर जैसी लोकप्रिय और व्यस्त जगह पर खुले में बैठे ‘डिजेरिडू’ (लकड़ी का भ्वांकरा जैसा) बजाते, बूमरैंग और लकड़ी के भाले फेंकने का प्रदर्शन और अन्य करतब करते देखा। लोग उनके सामने रखे बक्से में डॉलर डाल रहे थे। ज़्यादातर पर्यटन स्थलों पर इस तरह के प्रदर्शन खुद सरकारी स्तर पर भी कराए जाते हैं। सिडनी के म्यूज़ियम में ‘एबोरिजनल्स’ की समृद्ध लोक कला-संस्कृति की बड़ी दीर्घा है। हमने कैर्न्स के ‘रेनफॉरस्टेशन नेचर पार्क’ में भी उनके ऐसे ही कला-प्रदर्शन देखे जहॉ पर्यटक बाकायदा टिकट लेकर जाते हैं। आस्ट्रेलियाई सरकार के तमाम दावों के बावजूद आस्ट्रेलिया के मूल निवासी अपने अस्तित्व और अधिकारों के लिए एक कमजोर सी लड़ाई लड़े जा रहे हैं। सिडनी के रॉयल बॉटेनिक गार्डन में हमें उनका एक बड़ा-सा पोस्टर दिखाई दिया, जिसमें लिखा था- ‘‘आप नए आस्ट्रेलियाई हैं, लेकिन हम पुराने आस्ट्रेलियाई हैं। हम सिर्फ न्याय, शालीन व्यवहार और निष्पक्षता की माँग कर रहे हैं। क्या यह माँग बहुत ज़्यादा है?’’
सिडनी हार्बर पर ही हम शनिवार-रविवार को, जब वहाँ खूब भीड़ जुटती है, तरह-तरह के शारीरिक करतब करती टीमों को देखते हैं। उन्हें देखकर भारतीय सड़कों के किनारे रस्सी पर चलते युवक या लोहे के नन्हे छल्ले से अपना शरीर पार करती लड़की, जैसे विविध करतब दिखाकर रोजी-रोटी कमाते लोगों की याद आती है। यानी वंचितों का रोटी का संघर्ष सब जगह एक जैसा है। एक युवक को तो हमने पूरे साढ़े पाँच फुट की लचीली, खूबसूरत गुड़िया के साथ बॉल-डांस करते देखा। वह डांस का पद-संचालन ही नहीं सिखा रहा था, बल्कि भड़काऊ संगीत पर कुशल नर्तक जोड़ी के ताली-पीटू कौशल भी दिखा रहा था। उस पर भी डॉलर और सीलिंग न्यौछावर हो रहे थे।
और सिडनी हार्बर के पीछे की एक व्यस्त सड़क के फुटपाथ पर अपनी टोपी धरे, सिर झुकाए एक व्यक्ति को दो-दिन लगातार देखने के बाद हमने जिज्ञासा की तो पता चला कि वह भीख मांगता है और अक्सर इसी तरह बैठा मिलता है। हमने सोचा था, आस्ट्रेलिया जैसे समृद्ध देश में कोई भीख नहीं मांगता होगा!
रात को थके-मांदे जब हम होटल लौटे तो लेटते-लेटते सुबह के ‘सिडनी मार्निंग हेरल्ड’ पर नजर डाली। उस दिन की लीड थी -
‘सिडनी के अस्पतालों में ऑपरशन टलने से सैकड़ों मरीज परेशान।’ दूसरी लीड थी-‘सिडनी पुलिस नशीले पदार्थों का व्यापार करने वाले बड़े लोगों पर तो हाथ डाल नहीं पाती, शरीफ नागरिकों को जरूर खूब तंग करती है।’
आस्ट्रेलिया की समृद्धि और मस्ती का आतंक हमारे दिल-दिमाग से उतरने लगा और फिर हम सुकून से सो पाए।
(सिडनी म्यूज़ियम में एबोरिजिनल कला दीर्घा)
(सिडनी बोटैनिक गार्डन में लगा एबओरिजिनीज़ का पोस्टर - हमें न्याय चाहिये)
(सिडनी टावर पर जोशी जी)
(पैसा फेंको, तमाशा देखो - सिडनी हार्बर पर तमाशा)
(एबोरोजिनल्स, हार्बर किनारे, पापी पेट के वास्ते)
(आदमकद गुड़िया के साथ बॉल डान्स - चन्द डॉलर का सवाल है जी)
5 comments:
मूलनिवासियों के साथ उपनिवेशवादियों का व्यवहार कभी भी अच्छा नहीं रहा है।
मेरे ख़याल से तो हर देश,समाज या संस्कृति के दो चेहरे होते ही हैं . तीन भी हो सकते हैं ,चार भी ..पर दो से कम तो कतई नहीं ! अब देखिये हमारे ऊपर snake charmers का जो ठप्पा है, वो हमारे बेचारे software engineers कहाँ हटा पाए !
P.S. - Douglas Nicholas,Adam Goodes n Jade North are celebrity aboriginal.
# baabusha ,सही है. किंतु उसे ठप्पा न कहें. दर असल
हम भारतीय थे ही स्नेक चार्मर्ज़.... मदारी , सपेरे, जंगली, खना बदोश, दलित.....हमारी असली पहचान वही है और हमे उस पर कोई शर्म नहीं होनी चाहिए कि *ठप्पा* जैसा शब्द इस्तेमाल करें .
जो सामंत, सत्ता पुरुष, धर्म पुरुष और साहुकार हैं वो सब नए भारतीय हैं.....बाहर से आए हैं. उन मूल निवासियों पर राज कर रहे हैं नहीं ?
सेलिब्रिटीज़ की बात आप ठीक कहे.
हमारे बलि , एक्लब्य, चाणूर ,से ले कर अम्बेड्कर तक को कोन् नायक मानता है? ऑस्ट्रेलिया वालो ने कम से कम उन के मेधा को पहचाना तो सही. हमारे यहाँ तो मूल निवासियों का किसी भी क्षेत्र मे आगे निकलना हज़म नही किया जाता.
गत वर्ष एक सेलिब्रिटी ब्राहमण ने कहा था कि सचिन तेंडुल कर इस लिए अच्छा क्रिकेटर है कि वह ब्राहमण है.अद्भुत हैं हमारे ये उपनिवेशी...
कुछ ख़ास लोगों को वहां भेज दिया जाए ...
१. कुछ ऐसे लोग जो ये साबित कर सकें कि aboriginals खुद इन सब चीज के लिए जिम्मेदार हैं |
२. कुछ ऐसे लोग जो ये साबित कर सकें कि नए आये ऑस्ट्रेलियन धर्मांध हैं, तो उनसे लड़ने के लिए aboriginals को भी अपने रीति रिवाजों को कट्टरपंथ की हद तक ले जाना चाहिए , हथियार उठाने चाहिए |
सबसे बड़ी बात है कि हम ये देखकर खुश होंगे , कि बढ़िया ... देखो ऑस्ट्रिलिया में भी तो उनके मूल निवासिओं पे अत्याचार होते हैं, और वे unnoticed चले जाते हैं | ऑस्ट्रेलियाई कितने खराब हैं | दुनिया में एक हमारा ही देश अच्छा है , इतनी महान संस्कृति.. जहाँ दंगा करने के भी सबको बराबर मौके मिलते हैं |
मेरे महान देश , इसकी महान संस्कृति , और सर्वधर्मसमभाव की जय हो
अजेय जी से सहमत और नीरज भाई के गुस्से में सम्मिलित
Post a Comment