Monday, April 18, 2011

एक सुदूर नदी मेरी देह में घुल जाती है


महमूद दरवेश की एक और कविता

प्रार्थना

तुम्हें प्यार करना या तुम्हें प्यार न करना-
मैं जाता हूं दूर, अपने पीछे छोड़कर जाता
पते जो खो ही सकते हैं और इन्तज़ार करना
उनका जो लौटेंगे; उन्हें मेरी मृत्यु के
मुलाक़ात के घन्टों के बारे में पता है, सो वे आएंगे.
जब मैं तुम्हें प्यार करता हूं
तुम होती हो वह जिसे प्यार नहीं करता मैं. दिन के दरम्यान
सिकुड़ती हैं बेबीलोन की दीवारें, बड़ी होती हैं तुम्हारी आंखें
और एक लपट में प्रदीप्त होता तुम्हारा चेहरा.
कोई सोच सकता है कि तुम अभी पैदा ही नहीं हुई हो; हमें पहले अलग नहीं किया गया था; तुमने मुझे नहीं गिराया था काट कर.
तूफ़ान की सतहों पर हर शब्द सुन्दर है; हर मुलाक़ात
एक विदा.
हमारे बीच और कुछ नहीं सिवा इस मुलाकात के; कुछ नहीं सिवा
इस विदा के.
तुम्हें प्यार करना या तुम्हें प्यार न करना-
मेरा माथा मुझे छोड़कर चला जाता है; मुझे अहसास होता है कि तुम
या तो कुछ नहीं हो या सब कुछ; कि तुम हार सकती हो.

तुम्हें चाहना या तुम्हें न चाहना-
धाराओं की मन्द आवाज़ मेरे रक्त में झुलसती हुई. जिस दिन तुम्हें देखूंगा
मैं चला जाऊंगा.
मैंने खोई हुई चीज़ों से दोस्ती को दोबारा खोजना चाहा -
हो गया!
मैंने उन आंखों के बारे में डींगें हांकने का प्रयास किया जो हर पतन को अपने में समेटे हैं -
मैंने तुम्हारी कमर के गिर्द जैतून के लिए उचित एक नाम तराशना चाहा
लेकिन वह एक सितारा बन गया.

मैं जब कहता हूं तुम्हें नहीं चाहता, तुम्हें चाहता हूं दर असल.
मेरा चेहरा ढुलक जाता है.
एक सुदूर नदी मेरी देह में घुल जाती है. और बाज़ार में वे मेरा रक्त
डिब्बाबन्द सूप की तरह बेचते हैं.
मैं जब कहता हूं तुम्हें नहीं चाहता, तुम्हें चाहता हूं दर असल -
वह स्त्री, जिसने भूमध्यसागर के तटों को रख लिया है अपनी गोद में,
एशिया के बग़ीचों को अपने कन्धों पर,
और सारी ज़ंजीरों को अपने दिल में

तुम्हें चाहना या तुम्हें न चाहना-
धाराओं का मन्द स्वर, चीड़ की सरसराहट, समुद्रों
की उठान, और कोयल के पंख -
सारे मेरे रक्त को झुलसाते हैं.
जिस दिन देखूंगा तुम्हें, मैं चला जाऊंगा


तुम्हें गाना या तुम्हें न गाना-
मैं चुप लगा जाता हूं. मैं गाता हूं. रोने या चुप लगा जाने के लिए
कोई ख़ास वक़्त नहीं होता. तुम मेरा इकलौता रुदन हो.
तुम मेरी अकेली ख़ामोशी हो,
मेरी त्वचा कस जाती है मेरे गले के चारों ओर, मेरी खिड़की
के नीचे वर्दी पहने हवा मार्च करती है; अन्धेरा
प्रस्फुटित होने लगता है बिना चेतावनी दिए.
जब सिपाही छोड़ देंगे मेरी हथेलियों को
मैं कुछ लिखूंगा
जब सिपाही छोड़ जाएंगे मेरे पैरों को
मैं थोड़ा सा टहलूंगा.
जब सिपाही मुक्त कर देंगे मेरी दृष्टि को
मैं तुम्हें देखूंगा और ख़ुद को फिर से खोजूंगा.

तुम्हें गाना या तुम्हें न गाना-
तुम इकलौता गीत हो; तुम गाती हो जब मैं चुप हो जाता हूं.
तुम हो इकलौती ख़ामोशी.

4 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

बेहतरीन।

सुनील गज्जाणी said...

बाबा को शत शत नमन !
अच्छा आएल्ह , साधुवाद !
सादर !

सुनील गज्जाणी said...

महमूद दरवेश स्साब को पढवाने का शुक्रिया ! अच्छी कविता !
साधुवाद !@

दीपशिखा वर्मा / DEEPSHIKHA VERMA said...

मैं कुछ लिखूंगा
जब सिपाही छोड़ जाएंगे मेरे पैरों को
मैं थोड़ा सा टहलूंगा.
जब सिपाही मुक्त कर देंगे मेरी दृष्टि को
मैं तुम्हें देखूंगा और ख़ुद को फिर से खोजूंगा.


दरवेश के ज़रिये अनकही बातें सुनाई पड़ती हैं!!