मेरे पास परसों ही डाक से मित्र कपिलेश भोज का नया कवितासंग्रह पहुंचा है - यह जो वक़्त है.
इस की कुछेक कविताएं मैं समकालीन तीसरी दुनिया के अक्टूबर-दिसम्बर अंक में पढ़ चुका था पर परिकल्पना प्रकाशन से निकले इस संग्रह को देखना सुखद है. इसके पहले कि मैं भरपूर समय निकाल कर इस संग्रह पर तफ़सील से लिखूं आज इस संग्रह से एक कविता आपको पढ़वाता हूं -
बनाई गई है यह जो दुनिया
हम ही बनाते हैं
सड़कें, इमारतें
गाड़ियां, स्कूल, अस्पताल
और
जीवन को आरामदायक व सुन्दर बनाने के
सारे साज़ोसामान
लेकिन फिर ये ही चीज़ें
हो जाती हैं हमारे लिए
कितनी अजनबी
और उनके नज़दीक जाने से
डरने लगते हैं हम
बीमारियों
सड़क दुर्घटनाओ
बारिश, बाढ़, भूकम्प
और शीत - गरमी से हम मरते रहते हैं
असमय ही
आख़िर
कैसी बनाई गई है यह दुनिया
जहां
हमारी ही बनाई चीज़ें
होती जाती हैं
बड़ी और बड़ी
और हम होते जाते हैं
छोटे और छोटे और छोटे
क्या ऐसे ही बनाते रहेंगे
और फिर
3 comments:
अपनी कृतियों से ऊब होने लगे तो चिन्तन होना चाहिये।
mae bhi aajkal KAPILESH ji ko padh rahi hoon kuch kavitaayen to ek baithak me khatm kar daali fir MUKTIBODH yaad aaye KAHEEN BHI KHATM KAVITA NAHI HOTI
बधाई !
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