आमतौर पर मैं इस ब्लॉग पर कहानियां पोस्ट करने का हिमायती नहीं हूं, लेकिन जब आज मैंने सुबह अनिल यादव के पहले कहानी-संग्रह "नगरवधुएं अख़बार नहीं पढ़तीं" के प्रकाशन की सूचना के साथ यह भी कहा था कि आज उनके संग्रह से कुछ अंश यहां प्रस्तुत करूंगा तो मैंने पाया कि अनिल की एक कहानी दंगा भेजियो मौला अपने अपेक्षाकृत छोटे आकार के चलते पूरी की पूरी भी पोस्ट की जा सकती है. इस से आपको अनिल की भाषा और विषय के चुनाव में लिए जाने वाले सायास ज़ोख़िम की बानगी नज़र आएगी. प्रस्तुत है कहानी दंगा भेजियो मौला-
धूप इतनी तेज थी कि पानी से उठती भाप झुलसा रही थी. कीचड़ के बीच कूड़े के ऊंचे ढेर पर एक कतार में छह एकदम नये, छोटे-छोटे ताबूत रखे हुए थे. सामने जहां तक मोमिनपुरा की हद थी, सीवर के पानी की बजबजाती झील हिलोरें मार रही थी, कई बिल्लियों और एक गधे की फूली लाशें उतरा रही थीं.
हवा के साथ फिरते जलकुंभी और कचरे के रेलों के आगे काफी दूरी पर एक नाव पानी में हिल रही थी जिसकी एक तरफ अनाड़ी लिखावट में सफेद पेंट से लिखा था "दंगे में आएंगे" और नाव की नोंक पर जरी के चमकदार कपड़े का एक छोटा सा झंडा फड़फड़ा रहा था.
बदबू के मारे नाक फटी जा रही थी, बच्चों के सिवा सबने अपने मुंह गमछों और काफियों से लपेट रखे थे. पीछे बुरके और सलूके घुटनों तक खोंसे औरतों का झुंड था जिसमें रह-रह हिचकियां फूट रही. कभी-कभार रुलाई की महीन, कंपकंपाती कोई भटकी हुई तरंग और हवा उसे उड़ा ले जाती.
ये सभी बस्ती के उस पार कब्रिस्तान जाने के लिए नाव का इंतजार कर रहे थे. हवा में इठलाते झंडे वाली नाव थी कि जैसे चिढ़ा रही थी कि दंगा होगा तब इस पार आएगी वरना उसे यकीन नहीं है कि ताबूतों में लाशें या लाशों के नाम पर कुछ और.
तैर कर थक जाने के बाद, एक नंग-धड़ंग किशोर नाव में अकेला बैठा, मुंह बाए इस भीड़ को ताक रहा था. छह ताबूत मुंह बांधे कोई पचास लोगों की भीड़, चौंधियाता सूरज और पानी पर सांय-सांय करती बरसात की दोपहर. बस्ती के आधे डूबे मकानों में से किसी छत पर रेडियो से गाना आ रहा था.
अचानक लोग झल्लाकर नाव और लड़के को गालियां देने लगे. लड़का अदृश्य भाप से छन कर आती भुनभुनाहट को कान लगाये लगाये सुनने की कोशिश करता रहा लेकिन भीड़ थप्पड़, मुक्के लहराने लगी तो वह हड़बड़ा कर नाव से कूद पड़ा और फिर तैरने लगा. भीड़ फिर खामोश होकर धूप में लड़के की कौंधती पीठ ताकते हुए इंतजार करने लगी.
बड़ी देर बाद तीन लड़के यासीन, जुएब और लड्डन नाव लेकर इस पार आये और कई फेरे कर ताबूतों को उस पार के कब्रिस्तान में ले गये. नाव दिन भर बस्ती के असहनीय दुख ढोती रही.
शाम होते ही किनारों पर बसी कालोनियों की बत्तियां जलीं और सीवर की झील झिलमिल रोशनियों से सज गयी. लगता था कि यह कोई खूबसूरत सा शांत द्वीप है. रात गये लोग उन छह बच्चों को मिट्टी देकर मुंह बांधे प्रेतों के काफिले की तरह इस पार वापस लौटे.
ये चार लड़के और दो लड़कियां आज सुबह तक पानी में डूबे एक घर की छत पर खेल रहे थे. डेढ़ महीने से पानी में आधा डूबा मिट्टी के गारे का मकान अचानक भरभरा कर बैठ गया और वे डूब कर मर गये. थोड़ी ही देर में उनकी कोमल लाशें बिल्लियों की तरह फूलकर बहने लगीं. मकान की साबुत खड़ी रह गयी एक मुंडेर पर उनका खाना जस का तस धरा रह गया और जो राम जी के सुग्गे (ड्रैगनफ्लाई) उन्होंने पकड़ कर करघे के रेशमी धागों से बांधे थे वे अब भी वहीं उड़ रहे थे.
इन रंग-बिरंगी रेशमी पूंछ वाले पतंगों के पंखों की सरसराहट जितना जीवन वे छोड़ गये थे, वही इस सड़ती काली झील के ऊपर नाच रहा था. बाकी बस्ती सुन्न थी. पानी में डूबे घरों में उन बच्चों की मांओं की सिसकियों की तरह कुप्पियां भभक रही थीं.
नदी के किनारे बसे शहर के बाहरी निचले हिस्से में आबाद मोमिनपुरा का हर साल यही हाल होता था. बरसात आते ही पानी के साथ शहर भर का कूड़ा-कचरा मोमिनपुरा की तरफ बहने लगता और जुलाहे ताना-बाना, करघे समेट कर भागने लगते. इसी समय मस्जिद के आगे जुमे के रोज लालटेनें, नीम का तेल, प्लास्टिक के जूते और बांस की सीढ़ियां बेचने वाले अपना बाजार लगा लेते थे.
सबसे पहले मकानों के तहखानों में करघों की खड्डियों में पानी भरता और गलियों में अनवरत गूंजने वाला खड़क-खट-खड़क-खट-खड़क का रोटी की मिठास जैसा संगीत घुटने भर पानी में डूब कर दम तोड़ जाता. लोग बरतन-बकरियां, मुर्गियां, बुने अधबुने कपड़ों के थान और बच्चों को समेट कर शहर में ऊपर के ठिकानों की तरफ जाने लगते फिर भी एक बड़ी आबादी का कहीं ठौर नहीं था. वे मकानों की ऊपर की मंजिलों में चले जाते. एक मंजिला घरों की छतों पर सिरकियां, छोलदारियां लग जातीं.
इसी समय मोमिनपुरा की बिजली काट दी जाती क्योंकि पानी में करंट उतरने से पूरी बस्ती के कब्रिस्तान बन जाने का खतरा था. पावरलूम की मशीनें खामोश होकर डूबने लगतीं क्योंकि उन्हें इतनी जल्दी खोदकर कहीं और ले जाना संभव नहीं था. तभी दूसरे छोर पर बढियाई नदी के दबाव से पूरे शहर की सीवर लाइनें उफन कर उल्टी दिशा में बहने लगतीं. मैनहोलों पर लगे ढक्कन उछलने लगते और बीस लाख आबादी का मल-मूत्र बरसाती रेलों के साथ हहराता हुआ मोमिनपुरा में जमा होने लगता.
चतुर्मास में जब साधु-संतों के प्रवचन शुरू होते, मंदिरों में देवताओं के श्रृंगार उत्सव होते, कंजरी के दंगल आयोजित होते और हरितालिका तीज पर मारवाड़िनों के भव्य जुलूस निकलते तभी यह बस्ती इस पवित्र शहर का कमोड बन जाती थी. मोमिनपुरा को पानी सप्लाई करने वाले पंपिंग स्टेशन पर कर्मचारी ताला डालकर छुट्टी पर चले जाते क्योंकि कटी-फटी पाइप लाइनों के कारण मोमिनपुरा पूरे शहर में महामारी फैला सकता था.
मोमिनपुरा वाले चंदा लगाकर मल्लाहों से दस-बारह नावें किराए पर ले आते और वहां का जीवन अचानक शहर की बुनकर बस्ती की खड़कताल से बिदक कर बाढ़ में डूबे, अंधियारी कछारी गांव की चाल चलने लगता. मल्लाह नावें तो दे देते थे लेकिन यहां आकर चलाने के लिए राजी नहीं होते थे. थोड़ी ज्यादा आमदनी पर गू-मूत में नाव खेने से उन्हें एतराज नहीं था, डर था कि कई एकड़ की झील में अगर मुसलमान काट कर फेंक देंगे तो किसी को पता भी नहीं चलेगा.
हर घर की छत तक, कीचड़ में धंसा कर बांस की एक सीढ़ी लगा दी जाती. राशन, सौदा-सुल्फा लोग पास के बाजारों से ले आते. एक नाव दिन रात पास के मोहल्लों से पीने के पानी की फेरी करती रहती थी. लोग कपड़ों की फेरी करने नाव से पास के गांवों, शहरों में जाते, बच्चे दिन भर पानी में छपाका मारते या खामखां मछली पकड़ने की बन्सियां डालकर बैठे रहते. छतों पर टंगे लोग हर शाम सड़ते पैरों और जानलेवा खुजली वाले हिस्सों पर नीम का तेल पोतते. लुंगी, टोपी, बधना हर चीज में मौजूद झुंड की झुंड चीटियों से जूझते और पानी जल्दी उतरने की मन्नतें करते. महीना-पचीस दिन में काली झील सिकुड़ने लगती और बस्ती पर बीमारियां टूट पड़तीं. हैजा, गैस्ट्रो, डायरिया से सैकड़ो लोग मरते जिनमें ज्यादातर बच्चे होते. उन्हें दफनाने के कई महीने बाद कहीं जाकर रोटी के मिठास वाला संगीत फिर सुनाई देने लगता और जिंदगी धीरे-धीरे पटरी पर लौट आती.
इस साल डेढ़ महीना गया पानी नहीं उतरा. दानवाकार काली झील का दायरा फैलता ही जा रहा था. छतों पर टंगे लोग हैरत और भय से पानी को घूरते रहते. …एक दिन अचानक बढ़ता पानी बोलने लगा.
बस्ती की जिंदगी और इस पानी का रंग, रूप, नियति एक ही जैसे थे. आचमन करने और हाथ में जल लेकर गंगा-जमुनी तहजीब का हवाला देने के दिन कब के लद चुके थे. यह शहर अब इस पानी और बस्ती दोनों से छुटकारा पाना चाहता था. इस बार पानी कुछ कह रहा था… डभ्भक-डभ्भाक… डभ्भक-डभ्भाक… बस्ती के लोग सुनते थे लेकिन समझ नहीं पा रहे थे.
भोर के नीम अंधेरे में जब मोमिनपुरा के लोग एक दूसरे से नजरें चुराते हुए, कौओं की तरह पंजों से मुंडेरों को पकड़े शौच कर रहे होते ठीक उसी वक्त आगे मोटर साइकिलों, पीछे कारों पर सवार लोगों की प्रभात फेरी शहर से निकलती. शंख-घंटे-तुरहियां बजाते कई झुंड बस्ती से सटकर गुजरते हाई-वे की पुलिया पर रुकते, गगनभेदी नारों के बीच वे टार्चों की रोशनियां छतों पर टंगे जुलाहों पर मारते और कहकहे लगाते. फिर बूढ़े, जवान और किशोर एक साथ किलक कर गले बैठ जाने तक चिल्लाते रहते -
"पाकिस्तान में ईद मनायी जा रही है"
"डल झील में आतिशबाजी हो रही है" सुबह सूरज निकलने तक घंटे-घड़ियाल बजते रहते.
झील का पानी बोलता रहा. इस साल कई और नये अपशकुन हुए. मल्लाहों ने नावें देने से मना कर दिया, उनका कहना था कि जिस नाव से भगवान राम को पार उतारा था उसे भला गू-मूत में कैसे चला सकते हैं. म्यूनिसिपैलिटी ने इस साल पानी निकासी के लिए एक पंप नहीं लगाया, अफसरों ने लिख कर दे दिया सारे पंप खराब हैं, मरम्मत के लिए पैसा नहीं है, सरकार पैसा भेजेगी तो पानी निकाला जाएगा. लोक निर्माण विभाग ने घोषित कर दिया कि हाईवे की पुलिया से हर साल की तरह अगर पानी की निकासी की गयी तो जर्जर सड़क टूट सकती है और शहर का संपर्क बाकी जगहों से कट सकता है. आपदा राहत विभाग ने ऐलान कर दिया कि यह बाढ़ नहीं मामूली जलभराव है, इसलिए कुछ करने प्रश्न ही नहीं पैदा होता.
अस्पतालों ने मोमिनपुरा के मरीजों को भर्ती करने से मन कर दिया कि जगह नहीं है और संक्रमण से पूरे शहर में महामारी का खतरा है. पावरलूम की मशीनें और मकानों का मलवा खरीदने के लिए कबाड़ी फेरे लगाने लगे. पानी में डूबे मकानों का तय-तोड़ होने लगा. रियल इस्टेट के दलाल समझा रहे थे कि हर साल तबाही लाने वाली जमीन से मुसलमान औने-पौने में जितनी जल्दी पिन्ड छुड़ा लें उतना अच्छा है. यासीन की खाला ने अपने दूल्हा भाई को संदेश भेजा था कि मोमिनपुरा में अबकी न घर बचेगा न रोजगार बचेगा, इसलिए फिजूल की चौकीदारी करने बजाए जल्दी से कुनबे समेत यहां चले आएं, उनके बसने और रोटी का इंतजाम हो जाएगा. परवेज और इफ्फन के पूरे खानदान को उनके मामू जबरन अपने साथ घसीट ले गये थे.
परवेज और इफ्फन, ये दोनों भाई मोमिनपुरा के मशहूर स्पिनर थे. यासीन उस निराली टीम का कप्तान था जिसका कोई नाम नहीं था. इसके ज्यादातर खिलाड़ी ढरकी और तानी भरने की उम्र पार कर चुके थे. अब वे बिनकारी, डिजाइनिंग और फेरी के वक्त ग्राहकों से ढाई गुना दाम बताकर आधे पर तय-तोड़ करना सीख रहे थे. लेकिन यह सब वे अब्बुओं और फूफियों से काफी फटकारे-धिक्कारे जाने के बाद ही करते थे.
ज्यादातर समय वे तानों के रंग-बिरंगे धागों से घिरे मैदान में खपच्चियां गाड़ कर क्रिकेट की प्रैक्टिस किया करते थे. किट थी लुंगी, ढाका से आयी रबड़ की सस्ती चप्पलें और गोल नमाजी टोपी. गिजा थी बड़े का गोश्त और आलू का सालन. रियाज था तीन दिन में पचास गांवों की साइकिल से फेरी और कोच था टेलीविजन. शुएब अख्तर, सनत जयसूर्या, सचिन तेन्दुलकर, जोन्टी रोडस, डेरेल टफी, शेन वार्न सभी दिन में उनकी नसों में बिजली की तरह फिरते थे और रातों को सपने में आकर उनकी पसंद की लड़कियों और प्रेमिकाओं को हथिया ले जाते थे.
मोमिनपुरा की लड़कियां भी कैसी बेहया थीं जो छतों से छुप-छुप कर इशारे उन्हें करती थीं, तालियां उनके खेल पर बजातीं थीं लेकिन हरजाई हंसी हंसते हुए उन चिकनों की लंबी-लंबी गाड़ियों में बैठ कर फुर्र हो जाती थीं.
अब ये ब्लास्टर, स्विंगर और गुगलीबाज छतों पर गुमसुम लेटे आसमान में मंडराती चीलों को ताकते थे, भीतर कहीं घुमड़ती मस्जिद की अजान सुनते थे और नीचे बजबजाते पानी से बतियाते रहते थे.
खबर आयी कि बढ़ियाई नदी में पंप लगाये जा रहे हैं जिनका पानी भी इधर ही फेंका जाएगा. एक दिन हवा के थपेड़ों से पगलाये पानी ने यासीन से पूछा, "तुम्हारे अल्ला मियां कहां है? क्या अब भी…” यासीन ने कुढ़कर सोचा, अब यहां का गंधाता पानी निकालने के लिए भी क्या अल्ला मियां को ही आना होगा.
मल्लाहों के नाव देने से मना कर देने के बाद बस्ती के जैसे हाथ-पांव ही कट गये थे. ऐसे में पता नहीं कहां से पैसे इकट्ठा कर यासीन और उसके निठल्ले दोस्त एक पुरानी नाव खरीद लाये. टीम काम पर लग गयी. लड़कों ने पुरानी नाव को रंग-रोगन किया, जरी के एक टुकड़े पर एमसीसी लिख कर डंडे से टांग दिया. इस तरह उस गुमनाम टीम का मोमिनपुरा स्पोर्टिंग क्लब पड़ गया और दो चप्पुओं से बस्ती की जिंदगी सीवर के पानी में चलने लगी. फिर टीम मदद मांगने बाहर निकली.
पहले वे उन नेताओं, समाज सेवियों और अखबार वालों के पास गये जो दो बरस पहले हुए दंगे के दौरान बस्ती में आये थे और उन्होंने उनके बुजुर्गों को पुरसा दिया था. वे सभी गरदनें हिलाते रहे लेकिन झांकने नहीं आए. फिर वे सभी पार्टियों के नेताजियों, अफसरों-हाकिमों, स्वयंसेवी संगठनों के भाईजियों और मीडिया के भाईजानों पास गये.
हर जगह टीम के ग्यारह मुंह एक साथ खुलते, "जनाब, खुदा के वास्ते बस एक बार चल कर देख लीजिए हम लोग किस हाल में जी रहे हैं. पानी ऐसे ही बढ़ता रहा तो सारे लोग मर जाएंगे"
किसी ने सीधे मुंह बात नहीं की. पता चलते ही कि मोमिनपुरा वाले हैं उन्हें बाहर से टरका दिया जाता था. वे गू-मूत में लिथड़ी महामारी थे जिनसे हर कोई बचना चाहता था. फलां के पास जाओ, पहले कागज लाओ, देखते हैं… देख रहे हैं… देखेंगे… ऐसा करते हैं, वैसा करते हैं… सुनते-सुनते वे बेजार हो गये.
देर रात गये जब वे अपनी साईकिलें नाव पर लाद कर वे जब घरों की ओर लौटते, अंधेरी छतों से आवाजें आतीं, "क्या यासीन मियां वे लोग कब आएंगे?”
अंधेरे में लड़के एक दूसरे को लाचारी से ताकते रहते और नाव चुपचाप आगे बढ़ती रहती. टीम के लड़के दौड़ते रहे, लोग टरकाते रहे और बस्ती पूछती रही. एक रात बढ़ियाते पानी ने घर लौटते लड़कों से, "बेटा, अब वे लोग नहीं आएंगे"
"काहे?" यासीन ने पूछा.
तजुरबे की बात है उस दुनिया के लोग यहां सिर्फ दो बखत आते हैं या दंगे में या इलेक्शन में. गलतफहमी में न रहना कि वे यहां आकर तुम्हारे बदन से गू-मूत पोंछ कर तुम लोगों को दूल्हा बना देंगे. अगले ही दिन यासीन ने दांत भींचकर हर रात, सैकड़ो आवाजों में पूछे जाने वाले उस एक ही सवाल का जवाब नाव पर सफेद पेंट से लिख दिया – "दंगे में आएंगे" ताकि हर बार जवाब देना न पड़े.
काला पानी कब से लोगों से यही बात कह रहा था लेकिन वे जाने किससे और क्यों मदद की उम्मीद लगाये हुए थे. भोर की प्रभात फेरी में पाकिस्तानियों को ईद की मुबारकबाद देने वालों की तादाद बढ़ती जा रही थी. घंटे-घड़ियाल और शंख की ध्वनियां नियम और अनुशासन के साथ हर सुबह और गगनभेदी होती जा रही थीं.
छह बच्चों के दफनाने के बाद एमसीसी के लड़कों ने घर जाना बंद कर दिया था. तीन-चार लोग नाव पर रहते थे, बाकी एक ऊंचे मकान पर चौकसी करते थे. दो महीने से पानी में डूबे रहने के बाद अब मकान आये दिन गिर रहे थे. रात में गिरने वाले मकानों में फंसे लोगों की जान बचाने के लिए यह इंतजाम सोचा गया था.
दिन बीतने के साथ बदबूदार हवा के झोकों से नाव झील में डोलती रही, तीन तरफ से बस्ती को घेरे कालोनियों की रोशनियां काले पानी पर नाचती रहीं, हर रात बढ़ते पानी के साथ बादलों से झांकते तारों समेत आसमान और करीब आता रहा. सावन बीता, भादों की फुहार में भींगते शहर से घिरे दंड-द्वीप पर अकेली नाव में रहते काफी दिन बीत गये और तब लड़कों के आगे रहस्य खुलने लगे.
पानी, हवा, घंटे-घड़ियाल, मर कर उतराते जानवर, गिरते मकान, रोशनियों का नाच, सितारे और चींटियों के झुंड सभी कुछ न कुछ कह रहे थे. एक रात जब पूरी टीम बादलों भरे आसमान में आंखें गड़ाए प्रभात-फेरी का इंतजार कर रही थी, पानी बहुत धीमें से बुदबुदाया, "दंगा तो हो ही रहा है"
"कहां हो रहा है बे", यासीन के साथ पूरी टीम हड़बड़ा कर उठ बैठी.
रूंधी हुई मद्धिम आवाज में पानी ने कहा, "ये दंगा नहीं तो और क्या है. सरकार ने अफसरों को इधर आने से मना कर दिया है. डाक्टरों ने इलाज से मुंह फेर लिया है. जो पंप यहां लगने चाहिए उन्हें नदी में लगाकर पानी इधर फेंका जा रहा है. करघे सड़ चुके, घर ढह रहे हैं, बच्चे चूहों की तरह डूब कर मर रहे हैं. सबको इसी तरह बिना एक भी गोली-छुरा चलाये मार डाला जाएगा. जो बेघर-बेरोजगार बचेंगे, वे बीमार हो कर लाइलाज मरेंगे"
नाव की पीठ पर सिर पटकते हुए पानी रो रहा था.
टीम में सबसे छोटे गुगलीबाज मुराद ने सहम कर पूछा, "यासीन भाई हम सबको क्यों मार डाला जाएगा"
"क्योंकि हम लोग मुसलमान हैं बे. इतना भी नहीं जानते" यासीन तमतमा गया.
"हम लोग जिनके पास गये थे, क्या वे लोग भी हमें नहीं बचाने आएंगे?"
"आएंगे, आएंगे जब आमने सामने वाला दंगा होगा तब आएंगे"
उस रात के बाद पानी से टीम की एक साथ कोई बात नहीं हुई. सब अलग-अलग लहरों को घूरते और बतियाते रहे.
अगले जुमे को एमसीसी की टीम के सभी ग्यारह खिलाड़ियों ने फजर की नमाज के वक्त नाव में सिजदा कर एक ही दुआ मांगी, "दंगा भेजियो मोरे मौला, वरना हम सब इस नर्क में सड़ कर मर जाएंगे. गू-मूत में लिथड़ कर मरने की जिल्लत से बेहतर है कि खून में डूब कर मरें"
दो दिन बाद मोमिनपुरा में भरते पानी के दबाव से हाई-वे की पुलिया टूट गयी. काली झील कई जगहों से सड़क तोड़ कर उफनाती हुई पास के मोहल्लों और गांवों के खेतों में बह चली. घंटे-घड़ियाल-शंखों का समवेत शोर बर्दाश्त के बाहर हो गया.
प्रभात फेरी करने वालों की अगुवाई में शहर और गांवों से निकले जत्थे मोमिनपुरा पर चढ़ दौड़े. सीवर के बजबजाते पानी में हिंदू और मुसलमान गुत्थमगुत्था हो गये. अल्लाह ने हताश लड़कों की दुआ कबूल कर ली थी.
9 comments:
अनिल भाई ... क्या कहूँ कि जो नोर्मल भी लगे और कहानी की सही तारीफ भी हो जाए, बड़ी मुश्किल में खुद को पा रहा हूँ | बिना किसी की कोई हैवानी शक्ल दिखाए आपने सबको आइना दिखा दिया |
बहुत अच्छा लगा इसे पढ़ना।
अनिलजी को बधाई, सामाजिक समझ की सशक्त अभिव्यक्ति।
किसी दिन ऐसा लिख पाने की उम्मीद रखता हूँ..
अनिलजी को बधाई
Wah anil ji wah... kya khoob kaha
oh....kya likha hai....oh mola kya likha hai....
अनिल यादव हमारे समय के एक शानदार किस्सागो हैं। भाषा और बिम्ब पर इनकी पकड़ शानदार है और कथानक के तो कहने ही क्या है।
अनिल यादव हमारे समय के एक शानदार किस्सागो हैं। भाषा और बिम्ब पर इनकी पकड़ शानदार है और कथानक के तो कहने ही क्या है।
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