श्रेष्ठ कबाड़ी अनिल यादव का पहला कहानी संग्रह "नगरवधुएं अख़बार नहीं पढ़तीं" आज प्रेस से छप कर आ गया है. अंतिका प्रकाशन से छपे इस संग्रह का ब्लर्ब अग्रणी कथाकार योगेन्द्र आहूजा ने लिखा है जबकि हमारे समय के बड़े चित्रकार अशोक भौमिक ने पुस्तक का मनमोहक आवरण तैयार किया है. अनिल को बधाई.
प्रस्तुत है पुस्तक का ब्लर्ब:
हिंदी में कहानी की दुनिया में इस वक्त एक खलबली, एक उत्तेजना, एक बेचैनी है । एक जद्दोजहद, जो शायद अभूतपूर्व है, जारी है कहानियों के लिये एक नया स्वरूप, नयी संरचना, नया शिल्प पाने की । इस जददोजहद का हिस्सा अनिल यादव की कहानियां भी हैं । इस समय जबकि संकल्पनायें टूट रही हैं, प्राथमिकतायें बदल रही हैं, हमारे राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन में नयी सत्तायें और गठजोड़ उभर रहे हैं, जो निरंतर व्याख्या की मांग करते है, आर्थिक संबंध तेजी से बदल रहे हैं और उसके नतीजे में सामाजिक ढ़ांचा और यथार्थ जटिल से जटिलतर होते जा रहे हैं - स्वाभाविक है कि उन्हें व्यक्त करने की कोशिश में कहानी का स्वरूप वही न रहे, उसका पारंपरिक रूपाकार भग्न हो जाये । लेकिन अपने समकालीनों से अनिल यादव की समानता यहीं तक है, इतनी ही - और उनकी कहानियों का वैशिष्ट्य इसमें नहीं है ।
अनिल पूरी तरह सचेत हैं कि नये शिल्प के माने यह नहीं कि कहानी शिल्पाक्रान्त हो जाये या भाशिक करतब को ही कहानी मान लिया जाये । ऐसी रचना जिसमें चिंता न हो, विचार न हो, कोई प्क्ष न हो, किसी तरह की बौद्धिक मीमांसा न हो, वह महज लफ्जों का एक खेल होती है, कहानी नहीं । अनिल का सचेत चुनाव है, शायद मुश्किल और कष्टपूर्ण भी, कि वे कहानी की दुनिया में चल रहे इस फैशनेबल, आत्महीन खेल से बाहर रहेंगे । ऐसी कहानियां उनका लक्ष्य नहीं जो केवल क्लासिकी गद्य या वाक्यों की भंगिमाओं और हरकतों से लिख ली जाती हैं, जिनमें सिर्फ वाचा के स्वाद की गारंटी होती है, किसी तरह की समझ का वादा नहीं । वे कहानियों के लिये किसी ऐसे समयहीन वीरान में जाने से इंकार करते हैं जहां न परंपरा की गांठें हों, न इतिहास की उलझनें । वे अपने ही मुश्किल, अजाने रास्ते पर जाते हैं । तलघर, भग्न गलियों, मलिन बस्तियों, कब्रिस्तान, कीचड़, कचरे और थाने जैसी जगहों से वे कहानियां बरामद कर लाते हैं । तभी लिखी जाती हैं ‘नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़तीं’ और ‘दंगा भेजियो मौला’ जैसी अद्वितीय ‘डार्क’ कहानियां, इस पुरानी बात को फिर याद दिलाती हुई कि एक संपूर्ण और प्राणवान रचना न केवल अनुभवों, विवरणों या सूचनाओं से बनती है, न केवल भव्य और आकर्षक शिल्प से । वह बनती है तकलीफ और त्रासदी के संदर्भों को मनु्ष्य की न्यायकामना के सातत्य में रख पाने से, यह याद दिला पाने से कि कुछ भी पूरी तरह व्यक्तिगत या तात्कालिक नहीं होता, हर अकस्मात के आगे और पीछे अदृश्य धागे होते हैं, हर शख्स के, हर घटना के पीछे एक पूरा इतिहास सक्रिय होता है । इसी तरह ‘लोक कवि का बिरहा’ और ‘लिबास का जादू’ में, अन्य कहानियों में भी, हम देखते हैं कहन का एक नया अंदाज, दृश्यों का अपूर्व रचाव, नैसर्गिक ताना बाना और संतुलित और सधा हुआ शिल्प, लेकिन अंततः उन्हें जो कहानी बनाता है वह है जीवन की एक मर्मी आलोचना । इन कहानियों का अनुभवजगत बहुत विस्तृत है, लेकिन उतना ही गझिन और गहरा भी । आज के कथा परिदृश्य में ‘लोक कवि का बिरहा’ जैसी कहानी का, जो एक ग्राम्य अंचल में एक लोकगायक के जीवन का, उसकी दहशतों, अपमान, अवसाद और संघर्श का मार्मिक आख्यान है, समकक्ष उदाहरण तलाश पाना मुश्किल होगा, और ऐसी कहानी शायद आगे असंभव होगी ।
इस वक्त हिंदी की दुनिया में हर जानी पहचानी चीज के अर्थो में तोड़ फोड़ की जा रही है । जहां अस्प्ष्टता को एक गुण मान लिया जाये वहां अर्थों की स्पष्टता भी एक अवगुण हो सकती है । इन कहानियों में न अस्प्ष्टता है, न चमकदार मुहावरे, न एकांत आत्मा का नाटक, न अनंत दूरी पर स्थित किसी सत्य को पाने की कोशिश या आकांक्षा, न आत्मालाप, न आत्मा पर जमी गर्द को मिटाने की कोशिश । लेकिन इनमें दर्द से भरे चेहरे बेशुमार हैं जिन्हें आप स्पर्श कर सकते हैं ।
पुस्तक मिलने का पता:
अंतिका प्रकाशन
सी-५६/यूजीएफ़-४
शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन-II
ग़ाज़ियाबाद-२०१००५ (उ.प्र.)
(पुस्तक के कुछ अंश आज ही ज़रा देर में.)
7 comments:
बधाई अनिलजी को।
बहुत बहुत बधाई अनिल जी को।
बधाई हो अनिल भाई
मित्रों आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
अनलि यादव की बया के जनवरी-मार्च अंक में प्रकाशित इस कहानी में बड़ा विषय न केवल उठाया गया है बल्कि उसे बखूबी निबाहा भी है कथाकार ने। अपनी निर्मिति में अच्छी कहानी है यह। अब इसी शीर्षक से संग्रह भी आया है तो जानकर खुशी हुई। कथाकार को बधाई। इस संग्रह से संबंधित यह लिंक भी देखने लायक है
http://mohallalive.com/2011/05/24/about-anil-yadav-s-first-story-collection/
My heartiest congratulations to you and your fans as well. I think everyone has been waiting for the arrival. The title is very what they say in yuppy angrezi...catchy...yess very catchy like ketchup :)Hope to get a copy soon.
why not Munish, please send your current postal adress. And thank you for yummy ketchup!
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