Sunday, May 29, 2011

एक गीत ताकि नष्ट न हों हम


एक गीत ताकि नष्ट न हों हम

ज़्बिग्नियू हेर्बेर्त

वे जो समुद्री यात्रा पर निकले भोर के वक्त
लेकिन जो लौटेंगे नहीं कभी
वे छोड़ गए अपने निशान एक लहर पर -

एक सीप गिरी समुद्र के तल में
पत्थर में बदल गए होंठों जैसी सुन्दर

वे जो चले एक रेतीली सड़क पर
लेकिन नहीं पहुंच सके किवाड़दार खिड़कियों तक
अलबत्ता उन्होंने तब तक देख लिया था छत को -

उन्हें शरण मिल चुकी है हवा की एक घंटी के भीतर

लेकिन वे जो अपने पीछे छोड़ जाते हैं फ़कत
चन्द किताबों से ठण्डा पड़ गया एक कमरा
एक खाली दवात और सफ़ेद काग़ज़

वास्तव में वे पूरी तरह नहीं मरे हैं
उनकी फुसफुसाहट सफ़र करती है वॉलपेपर के झुरमुट के पार
उनका ऊंचा सिर अब भी रहता है छत पर

हवा से बना हुआ था उनका स्वर्ग
और पानी चूने और मिट्टी से, हवा का एक फ़रिश्ता
अपने हाथों चूरचूर करेगा शरीर को
उन लोगों को
ले जाया जाएगा इस संसार के चरागाहों से ऊपर से.

6 comments:

Patali-The-Village said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति| धन्यवाद|

प्रवीण पाण्डेय said...

हर घटना एक महीन सी तरंग छोड़ जाती है, लगातार।

nilesh mathur said...

लेकिन वे जो अपने पीछे छोड़ जाते हैं फ़कत
चन्द किताबों से ठण्डा पड़ गया एक कमरा
एक खाली दवात और सफ़ेद काग़ज़.........


बेहतरीन अभिव्यक्ति!

Unknown said...

बात क्या है आजकल जानमारू और सटीक लिख रहे हैं। या पुरानी कविता है।

vandana gupta said...

ज़िन्दगी की सच्चाई बयाँ कर दी।

Surendra shukla" Bhramar"5 said...

पाण्डेय जी जिन्दगी के अजीबोगरीब रंग दिखा गयी ये रचना सुन्दर -बधाई हों निम्न बहुत अच्छी पंक्तियाँ

वास्तव में वे पूरी तरह नहीं मरे हैं
उनकी फुसफुसाहट सफ़र करती है वॉलपेपर के झुरमुट के पार
उनका ऊंचा सिर अब भी रहता है छत पर

शुक्ल भ्रमर 5