Monday, May 30, 2011

कंकड़

कंकड़

ज़्बिग्नियू हेर्बेर्त

एक दोषरहित जीव होता है

अपने ही जितना
अपनी सीमाओं को जानने वाला

उसकी गन्ध किसी भी चीज़ की याद नहीं दिलाती
वह डराता नहीं न इच्छा को जन्म देता है

उसकी ललक और ठण्डापन
न्यायसंगत और गरिमापूरित होते हैं

जब मैं उसे थामता हूं अपने हाथ में
मुझे महसूस होता है एक भारी पछतावा
और उसकी शरीफ़ देह
व्यापती है झूठी ऊष्मा से

-पालतू नहीं बनाए जा सकते कंकड़
आख़िर में वे देखेंगे हमें
एक स्थिर और बेहद साफ़ निगाह के साथ.

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

कहीं भी, कैसे भी, पड़ा रहता है।

vandana gupta said...

बेहद उम्दा।