Thursday, May 19, 2011

इतना मत रोना मेरी राधे!

नरेन्द्र कोहली हिंदी गद्य लेखन में पहचाना नाम है | पौराणिक पात्रों और चरित्रों को उन्होंने मानवीय आधार देकर वैज्ञानिक धरातल पर खड़ा किया | बहुत सारे लोग उन्हें अभ्युदय, महासमर, अभिज्ञान जैसी रचनाओं से जानते हैं | एक व्यंग्यकार के रूप में भी वे काफी ख्याति बटोर चुके हैं | एब्सर्ड उपन्यास हिंदी में उनका अनूठा प्रयोग रहा | वैसे उन्होंने अपनी शुरुआत हास्य कविताओं से की थी, आज उनकी एक शुरूआती कविता मुझे पाथेय के अक्टूबर-दिसंबर 2009 अंक में मिली, सो साझा करने का मन हो आया |




इतना मत रोना मेरी राधे!

(1)
जाता हूं
अब विदाई दो मुझको |
प्राण! साथ ही वचन भी यह दो -
मेरी अनुपस्थिति में तुम नहीं रोओगी |
नैनों को अपने निशि-दिन अश्रु-कणों से नहीं धोओगे |

(2)
कहते हैं -
ब्रज की गोपिकाओं में राधा थी कोई |
श्रीकृष्ण के मथुरा जाने पर वह बहुत थी रोई |
तुम,
इतना मत रोना मेरी राधे!
रो-रोकर नयन-ज्योति मत खोना मेरी राधे!
आंखें अपनी मूल्यवान हैं,
आंखों वाले भाग्यवान हैं,
रो-रोकर इन आंखों से हाथ न धोना मेरी राधे!
सच है, आंखें धुंधली होने पर
बाजार से चश्मा मिल सकता है |
हम यदि अपना जोर लगा दें
नेत्र-पुष्प फिर खिल सकता है |
पर मेरी राधा
यह तो मानोगी तुम भी-
हैं मूर्ख, व्यर्थ जो पैसे खोते हैं |
सच जानो तुम
चश्मे के फ्रेम बड़े महंगे होते हैं |

(3)
इतना मत रोना मेरी राधे!
अश्रु बाढ़ में
भूमि को अपनी न डुबोना मेरी राधे!
में गोकुल का ग्वाला कृष्ण नहीं कि
नगरी को अपनी बचा लूंगा |
न ही विष्णु का अवतार कृष्ण हूं
कि गोवर्धन को मैं उठा लूंगा |
(औ' यह यमुना का ब्रज नहीं
लौह नगरी टाटा की है |)
यदि बाढ़ में डूबी नगरी यह
तो अनर्थ महा इक हो जाएगा |
कारखाने को
बाढ़ का पानी धो जाएगा |
कार्य ठप होगा सारा
इस्पात का उत्पादन भी बंद हो जायेगा |
इस्पात नहीं होने से
योजना पर क्या आघात न होगा?
दौड़ में उन्नति की
देश हमारा मात न होगा?
सोचो तुम ही
देश से अपने क्या विश्वासघात न होगा?
फिर सारे देश में चंदा होगा |
नया- नया पर धंधा होगा |
जाने कितने लोग
इस धंधे में अपनी जेब भरेंगे |
देंगे भाषण, चित्र खिचाएंगे |
नेता बनकर नाम करेंगे |
कह सकती हो
ऐसे में बेकारों को कुछ काम मिलेंगे |
नेता भी कुछ
शायद जनता में जाकर हिले-मिलेंगे |
पर भूलती हो-
तुम प्रेयसी हो मेरी,
सरकार का इम्प्लाइमेंट एक्सचेंज नहीं,
कहते हो जो उम्मीदवारों से,
खड़े रहो तुम धूप में जाकर
तुम्हारे लिए कुरसी-मेज नहीं |'

(4)
इतना मत रोना मेरी राधे!
कि अश्रु-धार को बांधने को
सरकार हमारी डैम बना दे |
कहीं अफसर कोई
रिश्तेदारों को अपने ठेका न दिला दे |
ठेकेदार ऐसा होगा कहां,
जो सीमेंट के बदले बालू न मिला दे |
इस भारत में
बांध नहीं कोई बना है ऐसा
जिसमें न कोई छिद्र हुआ हो |
ऐसा कोई माँ का लाल नहीं
जिसने देश के धन से
न खिलवाड़ किया हो |
सच जानों तुम,
टंगा नहीं फांसी पर कोई,
जिसने ऐसा व्यापार किया हो |

(5)
औ' यदि बांध ही ली
सरकार ने अश्रुधार तुम्हारी |
होगी क्या न हार तुम्हारी ?
शायद फिर तेरी आंखों के खारे पानी से
सरकार हमारी नमक निकाले |
कह सकता है कौन, कहीं वह
नमक बनाने को नव धंधा न चला दे |
मैं नहीं चाहता मेरी राधे
कि नमक तुम्हारी आंखों का
बाजार में बारह नए पैसों में इक सेर बिके |
बहुतों ने बेचा हैं पानी अपनी आखों का
पर नहीं चाहता मैं कि -
तुम्हारी भी आंखों के पानी का मोल लगे |
इतना मत रोना मेरी राधे!

:नरेन्द्र कोहली 

4 comments:

vandana gupta said...

वाह ………………गज़ब ……शानदार व्यंग्य्।

Riya Sharma said...

Interesting !

प्रवीण पाण्डेय said...

अद्भुत पंक्तियाँ।

प्रेम जनमेजय said...

पत्रिका का नाम पाथेय नहीं है , पत्रिका का नाम व्यंग्य यात्रा है जिसके पाथेय स्तम्भ में यह रचना प्रकाशित हुई है . प्रकाशन के लिए धन्यवाद, भविष्य में यदि लेखक और संपादक को सूचित करें तो दोनों को अच्छा लगेगा