Sunday, May 15, 2011

मेहनतकश जनता के महान नाट्यकर्मी का अवसान


बादल सरकार को जन संस्कृति मंच की श्रद्धांजलि

पिछले साल 14 जुलाई, २०१० को जब बादल दा ८५ के हुए थे, हम में बहुत से साथियों ने लिख कर और उन्हें सन्देश भेजकर जन्मदिन की बधाई के साथ यह आकांक्षा प्रकट की थी कि वे और लम्बे समय तक हमारे बीच रहें . लेकिन परसों १३ मई,२०११ को वे हम सबसे अलविदा कह गए. भारतीय रंगमंच के क्रांतिकारी, जनपक्षधर और अनूठे रंगकर्मी बादल दा को जन संस्कृति मंच लाल सलाम पेश करता है. उनके उस लम्बे, जद्दोजहद भरे सफर को सलाम पेश करता है, जो १३ मई को अपने अंतिम मुकाम को पहुंचा. लेकिन हमारे संकल्प , हमारी स्मृति और सबसे बढ़कर हमारे कर्म में बादल दा का सफ़र कभी विराम नहीं लेगा. क्या उन्होंने ही नहीं लिखा था, "और विश्वास रखो, रास्ते में विश्वास रखो. अंतहीन रास्ता, कोइ मंदिर नहीं हमारे लिए. कोइ भगवान नहीं, सिर्फ रास्ता. अंतहीन रास्ता"

जनता का हर बड़ा उभार अपने सपनों और विचारों को विस्तार देने के लिए अपना थियेटर माँगता है. बादल दा का थियेटर का सफ़र नक्सलबाड़ी को पूर्वाशित करता सा शुरू हुआ, जैसे कि मुक्तिबोध की ये अमर पंक्तियाँ जो आनेवाले कुछेक वर्षों में ही विप्लव की आहट को कला की अपनी ही अद्वितीय घ्राण- शक्ति से सूंघ लेती हैं-

अंधेरी घाटियों के गोल टीलों, घने पेड़ों में
कहीं पर खो गया,
महसूस होता है कि वह , बेनाम
बेमालूम दर्रों के इलाकों में
( सचाई के सुनहरे तेज़ अक्सों के धुंधलके में )
मुहैय्या कर रहा लश्कर
हमारी हार का बदला चुकाने आएगा
संकल्प्धर्मा चेतना का रक्ताप्लावित स्वर
हमारे ही ह्रदय का गुप्त स्वर्णाक्षर
प्रकट हो कर विकट हो जाएगा.

नक्सलबाड़ी के महान विप्लव ने जनता के बुद्धिजीवियों से मांग की कि वे जन -कला की क्रांतिकारी भूमिका के लिए आगे आएं. सिविल इंजीनियर और टाउन प्लैनर के पेशे से अपने वयस्क सकर्मक जीवन की शुरुआत करने वाले बादल दा जनता की चेतना के क्रांतिकारी दिशा में बदलाव के किए तैय्यार करने के अनिवार्य उपक्रम के रूप में नाटक और रंगमंच को विकसित करनेवाले अद्वितीय रंगकर्मी के रूप में इस भूमिका के लिए समर्पित हो गए. थर्ड थियेटर की ईजाद के साथ उन्होने जनता और रंगमंच, दर्शक और कलाकार की दूरी को एक झटके से तोड दिया. नाटक अब हर कहीं हो सकता था. मंचसज्जा, वेषभूशा और रंगमंच के लिए हर तरीके की विशेष ज़रूरत को उन्होंने गैर- अनिवार्य बना दिया. आधुनिक नाटक गली, मुहल्लों ,चट्टी-चौराहों , गांव-जवार तक यदि पहुंच सका , तो यह बादल दा जैसे महान रंगकर्मी की भारी सफलता थी. 1967 में स्थापित ”शताब्दी” थियेटर संस्था के ज़रिए उन्होंने बंगाल के गावों में घूम-घूम कर राज्य आतंक और गुंडा वाहिनियों के हमलों का खतरा उठाते हुए जनाक्रोश को उभारनेवाले व्यवस्था-विरोधी नाटक किए. उनके नाटको में नक्सलबाडी किसान विद्रोह का ताप था.

हमारे आन्दोलन के नाट्यकर्मियों ने खासतौर पर १९ ८० के दशक में बादल दा से प्रेरणा और प्रोत्साहन प्राप्त किया. वे इनके बुलावे पर इलाहाबाद और हिंदी क्षेत्र के दूसरे हिस्सों में भी बार बार आये, नाटक किए, कार्यशालाएं कीं, नवयुवक रंगकर्मियों के साथ-साथ रहे , खाए , बैठे और उन्हें सिखाया. जब मध्य बिहार के क्रांतिकारी किसान संघर्षों के इलाकों में युवानीति और हमारे दूसरे नाट्य-दलों पर सामंतों के हमले होते तो साथियों को जनता के समर्थन से जो बल मिलता सो मिलता ही, साथ ही यह भरोसा और प्रेरणा भी मन को बल प्रदान करती कि बादल सरकार जैसे अद्वितीय कलाकार बंगाल में यही कुछ झेल कर जनता को जगाते आए हैं.

एवम इंद्रजीत, बाकी इतिहास, प्रलाप, त्रिंगशा शताब्दी, पगला घोडा, शेष नाइ, सगीना महतो ,जुलूस, भोमा, बासी खबर और स्पार्टाकस (अनूदित) जैसे उनके नाटक भारतीय थियेटर को विशिष्ट पहचान तो देते ही हैं, लेकिन उससे भी बडी बात यह है कि बादल दा के नाटक किसान, मजूर, आदिवासी, युवा, बुद्धिजीवी, स्त्री, दलित आदि समुदाय के संघर्षरत लोगों के साथी हैं, उनके सृजन और संघर्ष में आज ही नहीं, कल भी मददगार होंगे, उनके सपनॉ के भारत के हमसफर होंगे.

(प्रणय कृष्ण, महासचिव, जन संस्कृति मंच द्वारा जारी)

6 comments:

अरुण चन्द्र रॉय said...

बादल दा को श्रधांजलि !

Ria Sharma said...

Bhav bhenee shraddhanjali...

apne kary se ve hamesha amar rahenge !

जीवन और जगत said...

बादल जी को मेरी ओर से भी श्रद्धांजलि।

अजेय said...

श्रद्धाँजलि !

Abhishek Roy said...

बादल जी को मेरी ओर से भी श्रद्धांजलि। पर अशोक जी एक त्रुटी रह गयी है, जिसे दुरुस्त करने की जरूरत है. आपने १३ मई की जगह गलती से १३ जुलाई लिख दिया है.

Ashok Pande said...

धन्यवाद अभिषेक जी. ठीक कर दिया.