Sunday, June 19, 2011

उसने जब कहा...

यह साल मजाज की भी जन्मशती है...उस आवारा शायर की जिसने हुस्नो इश्क के साथ इन्कलाब के भी गीत गाये...जिसने सबका तो इलाज किया बार खुद अपना इलाज न कर सका...शराब ने लील लिया उसे...लेकिन क्या सिर्फ शराब ने? सच तो यह है कि हम अपने शायरों की कद्र ही नहीं जानते......फैज़ अहमद फैज़ उनके बारे में लिखते हैं- "मजाज़ की इन्कलाबियत आम इंकलाबी शायरों से अलग है. आम इंकलाबी शायर इन्कलाब को लेकर गरजते हैं,सीना कूटते हैं इन्कलाब के मुताल्लिक गा नहीं सकते. वे इन्कलाब की भीषणता को देखते हैं उसके हुस्न को नहीं पहचानते." वह पहचानता था...इससे ज्यादा क्या लिखूं उस पर ... बस उसकी कुछ नज्में...कुछ गजलें पेश कर रहा हूँ...

१-उसने जब कहा मुझसे गीत एक सुना दो ना

उसने जब कहा मुझसे गीत एक सुना दो ना
सर्द है फिजा दिल की, आग तुम लगा दो ना

क्या हसीं तेवर थे, क्या लतीफ लहजा था
आरजू थी हसरत थी हुक्म था तकाजा था

गुनगुना के मस्ती में साज़ ले लिया मैं ने
छेड़ ही दिया आख़िर नगमा-ऐ-वफ़ा मैंने

यास का धुवां उठा हर नवा-ऐ-खस्ता से
आह की सदा निकली बरबत-ऐ-शिकस्ता से

२- अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?
अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?

मैने माना के तुम इक पैकर-ए-रानाई हो
चमन-ए-दहर में रूह-ए-चमन आराई हो
तलत-ए-मेहर हो फ़िरदौस की बरनाई हो
बिन्त-ए-महताब हो गर्दूं से उतर आई हो
मुझसे मिलने में अब अंदेशा-ए-रुसवाई है
मैने खुद अपने किये की ये सज़ा पाई है
ख़ाक में आह मिलाई है जवानी मैने
शोलाज़ारों में जलाई है जवानी मैने
शहर-ए-ख़ूबां में गंवाई है जवानी मैने
ख़्वाबगाहों में गंवाई है जवानी मैने
हुस्न ने जब भी इनायत की नज़र ड़ाली है
मेरे पैमान-ए-मोहब्बत ने सिपर ड़ाली है
उन दिनों मुझ पे क़यामत का जुनूं तारी था
सर पे सरशरी-ओ-इशरत का जुनूं तारी था
माहपारों से मोहब्बत का जुनूं तारी था
शहरयारों से रक़ाबत का जुनूं तारी था
एक बिस्तर-ए-मखमल-ओ-संजाब थी दुनिया मेरी
एक रंगीन-ओ-हसीं ख्वाब थी दुनिया मेरी
क्या सुनोगी मेरी मजरूह जवानी की पुकार
मेरी फ़रियाद-ए-जिगरदोज़ मेरा नाला-ए-ज़ार
शिद्दत-ए-कर्ब में ड़ूबी हुई मेरी गुफ़्तार
मै के खुद अपने मज़ाक़-ए-तरब आगीं का शिकार
वो गुदाज़-ए-दिल-ए-मरहूम कहां से लाऊँ
अब मै वो जज़्बा-ए-मासूम कहां से लाऊँ

३-जुनून-ए-शौक़ अब भी कम नहीं है
जुनून-ए-शौक़ अब भी कम नहीं है
मगर वो आज भी बर्हम नहीं है

बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना,
तेरी ज़ुल्फ़ों के पेच-ओ-ख़म नहीं है

बहुत कुछ और भी है जहाँ में,
ये दुनिया महज़ ग़म ही ग़म नहीं है

मेरी बर्बादियों के हम्नशिनों,
तुम्हें क्या ख़ुद मुझे भी ग़म नहीं है

अभी बज़्म-ए-तरब से क्या उठूँ मैं,
अभी तो आँख भी पुर्नम नहीं है

'मज़ाज़' एक बादाकश तो है यक़ीनन,
जो हम सुनते थे वो आलम नहीं है

४- ख्वाबे सहर
मेहर सदियों से चमकता ही रहा अफलाक पर,
रात ही तारी रही इंसान की अदराक पर।
अक्ल के मैदान में जुल्मत का डेरा ही रहा,
दिल में तारिकी दिमागों में अंधेरा ही रहा।
आसमानों से फरिश्ते भी उतरते ही रहे,
नेक बंदे भी खुदा का काम करते ही रहे।
इब्ने मरियम भी उठे मूसाए उमराँ भी उठे,
राम व गौतम भी उठे, फिरऔन व हामॉ भी उठे।
मस्जिदों में मौलवी खुतवे सुनाते ही रहे,
मन्दिरों में बरहमन श्लोक गाते ही रहे।
एक न एक दर पर जबींए शौक घिसटती ही रही,
आदमियत जुल्म की चक्की में पिसती ही रही।
रहबरी जारी रही, पैगम्बरी जारी रही,
दीन के परदे में, जंगे जरगरी जारी रही।
अहले बातिन इल्म के सीनों को गरमाते ही रहे,
जहल के तारीक साये हाथ फैलाते ही रहे।
जहने इंसानी ने अब, औहाम के जुल्मान में,
जिंदगी की सख्त तूफानी अंधेरी रात में।
कुछ नहीं तो कम से कम ख्वाबे सहर देखा तो है,
जिस तरफ देखा न था अब तक उधर देखा तो है।


3 comments:

Unknown said...

क्या अंदाज़ है-- बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना,
तेरी ज़ुल्फ़ों के पेच-ओ-ख़म नहीं है. क़ुर्बान-क़ुर्बान

iqbal abhimanyu said...

शहर की रात और मैं नाशाद ओ नकारा फिरूं,
जगमगाती जागती सडकों पे आवारा फिरूं,
ऐ गमे दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ॥
मजाज़ तो मेरे दिल की बात कहते हैं, उनसा शायर शायद ही हुआ है..

Unknown said...

True as you said,the poems themselves define beautifully who the poet was. (and still is).
Thanks for the reminder on Majaaz's centenary year.