Tuesday, July 5, 2011

ददा, मुझे भगत सिंह की याद दिलाता था

१-२ जुलाई की रात को आन्ध्रप्रदेश की पुलिस द्वारा सीपीआई (माओवादी) के प्रवक्ता चेरुकुरी राजकुमार उर्फ़ आज़ाद के साथ फ़र्ज़ी मुठभेड़ में मार डाले गए युवा पत्रकार हेम चन्द्र पाण्डे की पहली पुण्य स्मति के अवसर पर दिल्ली में हेम के मित्रों ने कबाड़ी भूपेन की कमान/सम्पादन तले "विचारधारा वाला पत्रकार - हेम चन्द्र पाण्डे" नाम से एक स्मारिका/पुस्तक प्रकाशित की. किताब में गौतम नवलखा, आनन्द स्वरूप वर्मा, सुभाष गाताड़े, जावेद नक़वी, सुकुमार मुरलीधरन, नीलाभ, अनिल चमड़िया और राहुल पंडिता इत्यादि के आलेख तो हैं ही हेम के लिखे चुनिन्दा लेख भी हैं. हेम चन्द्र पांडे से गहरे जुड़े रहे लोगों ने अपने आत्मीय तरीक़े से उसे याद किया है. इस किताब से आपको कुछेक चुनिन्दा हिस्से पढ़वाए जाएंगे. शुरू में पढ़िये हेम के छोटे भाई राजीव द्वारा अपने ददा की याद. राजीव स्वयं अच्छे पत्रकार हैं और वर्तमान में हल्द्वानी में अमर उजाला से जुड़े हुए हैं.


ददा, मुझे भगत सिंह की याद दिलाता था

राजीव पांडे

एक जुलाई को दिन में करीब ढाई बजे उसके लापता होने की ख़बर फोन पर मिली तो मैं नहीं घबराया. मुझे उम्मीद थी, जल्द ही उसका फोन आएगा और आवाज गूंजेगी ‘क्या हाल हैं बॉबी’. ऐसा नहीं हुआ. उसकी आवाज बंद कर दी गई थी. तीन जुलाई को उसके न रहने की अपुष्ट खबर मिली. मुझे जैसे ही सूचना मिली मैं हल्द्वानी में मां को घर पर अकेला छोड़कर दिल्ली के लिए रवाना हो गया. दिल्ली पहुंचकर पता चला कि एक फर्जी मुठभेड़ में पुलिस ने उसकी हत्या कर दी है. हत्या इसलिए की गई क्योंकि वो नक्सली नेता आजाद के साथ था. यह लोकतांत्रिक देश में तानाशाही का चरम था.

उत्तराखंड के छोटे से कस्बे देवलथल में पहली सांस लेने वाले हेम ने अंतिम सांस आंध्र प्रदेश में के जंगलों में ली या उसका शव वहां लाकर फेंक दिया गया, यह तो उसके हत्यारे ही बता पाएंगे. पर वह ख़ामोशी से नहीं मरा. उसकी मौत की हलचल पूरे देश में थी. विदेशों तक भी इसकी गूंज गई. जिस भाई ने तीन दिन पहले मुझसे दो-चार दिन में घर आने का वायदा किया था उसका शव लेने मुझे भाभी के साथ आंध्र प्रदेश के आदिलाबाद जाना था. यह किसी चुनौती से कम नहीं था. उसकी शहादत से ही मुझे हिम्मत मिली. वह जाते-जाते मुझे सच के लिए मरना भी सिखा गया.

दिल्ली से हैदराबाद के तीन घंटे के सफर में एकाएक सब बीती बातें याद आने लगीं. बचपन से लेकर जवानी तक. देवलथल के सामाजिक परिवेश और पारिवारिक स्थितियों ने उसे समय से पहले ही समझदार बना दिया था. वह मजबूरियों से हारा नहीं, स्थितियों में बदलाव की इच्छा उसमें पैदा हो गई. यह इच्छा हर गरीब, निम्न मध्यवर्गीय परिवार में होती है. पर हेम पांडे ने अपने परिवार से आगे निकलकर व्यापक स्तर पर बदलाव का सपना देखा-समाज को बदलने का सपना देखा.

हर बच्चे की तरह उसमें भी मां-पापा का पूरा असर था. मां की तरह धार्मिक होने के कारण ही वह मंगलवार और बृहस्पतिवार का उपवास रखता था बाद में स्थितियां बदल गईं. वह चीजों को तर्कों में तौलने लगा और किसी भी ऐसी चीज में विश्वास नहीं करता, जिसका अस्तित्व न हो. पापा की तरह शांत और गंभीर भी वह था. सबकी तरह पापा का भी साधारण-सा सपना था कि दोनों बच्चे नौकरी में लगें और परिवार का वक्त बदले. घर में किसी के पास भी स्थाई आय का जरिया न होने के कारण आर्थिक तंगी साथ चलती रही. हालांकि मां-पापा ने दिन-रात मेहनत कर हर जरूरत की चीज हमें दी. हम बढ़े हो रहे थे. सबकी उम्मीदें उस पर टिकी थीं. वह पढ़ने में भी तेज़ था. पर बदलाव की जो इच्छा उसके मन में घर कर गई थी उस रास्ते में करियर नाम का कोई पड़ाव नहीं आता.

वह जान गया था कि अकेले लड़ाइयां नहीं जीती जातीं. बदलाव के लिए संगठन की जरूरत उसकी समझ में आई. किताबें उसकी दोस्त बनने लगीं. उसने आइसा ज्वाइन कर ली. वामपंथ की तरफ उसका रुझान बढ़ता गया. शोषण के खिलाफ पहली लड़ाई उसने अपने घर से ही शुरू की. देवलथल में होने वाले अवैध खड़िया खनन के खिलाफ वह पहली बार बोला. इस धंधे में ठेकेदार गरीब दलितों की जमीन से खड़िया निकाल लाखों कमाते और जमीन के मालिकों को मिलती दो वक्त की रोटी और दिनभर दारू. इसे लेकर कई बार उसका घर में विवाद भी हुआ. क्योंकि कई ठेकेदार हमारे पारिवारिक मित्र थे. लेकिन वह शोषण के खिलाफ खड़ा रहा.

पापा उसे काम-धंधे में झोंकने की सोचने लगे थे लेकिन वह बचता रहा. पापा ने उसे कई बार नौकरी से चिपकाने की कोशिश की पर ऐसा नहीं हुआ. बीए अंतिम वर्ष में उसने पापा से किसी भी तरह की सरकारी नौकरी करने से इनकार कर दिया. परिवार के लिए यह एक झटका था. उस समय समाज को बदलने का उसका यह जज्बा हमारे लिए पागलपन था. चार लोगों के परिवार में तीन उसे लेकर चिंतित थे पर वह मस्त था, उसके कमरे में लगातार किताबों की संख्या बढ़ रही थी. अब मां के कहने पर उपवास रखने वाला बेटा भगवान को लेकर सवाल करने लगा. वह सवाल करता था लेकिन किसी की आस्था का मजाक उसने कभी नहीं उड़ाया. वह किसी भी कुरीति के खिलाफ बोलता था तो बड़ी संजीदगी से. उसे पता था कि आदमी के पैदा होने के साथ ही रूढ़ियों में उसे कैसे जकड़ लिया जाता है. इन रूढ़ियों को किसी से दूरी बनाकर नहीं उन्हें तर्कों से काटकर और सामने वाले की सोच बदलकर जीता जाता है. जबकि आज के बहुत से युवा मार्क्स, लेनिन या माओ की जीवनी पढ़कर ही खुद को क्रांतिकारी मानने लगते हैं. माथे पर चंदन-टीका लगाने वालों से वह एक दूरी रखते हैं, हालांकि, संकट के समय इन्हें हनुमान चालीसा याद आ जाती है. हेम इन सबसे अलग था. प्रत्येक विचारधारा का व्यक्ति उसका मित्र बन जाता था. उसकी नजर में कभी कोई व्यक्ति बुरा नहीं था. मैं कभी किसी की बुराई भी करता तो वह मुझे पूर तर्कों के साथ समझाता कि परिस्थितियां कैसे आदमी को बुरा बनने पर मजबूर करती हैं. वह उन परिस्थतियों को बदलना चाहता था. किसी भी बुराई के लिए उसने व्यक्ति को कभी दोषी नहीं माना. मैंने उसकी यह बात मान ली थी, लेकिन उसके जाने के बाद मैं उसकी इस बात से असहमत हूं. आज वह होता तो मैं उससे पूछता उसके उन चुनिंदा दोस्तों के बारे में, जिन्होंने उसकी मौत पर दुख तक व्यक्त नहीं किया. उनमें से अधिकांश उसके वैचारिक मित्र थे. मैं उससे पूछता कि क्या किसी विचारधारा से जुड़ा व्यक्ति धूर्त हो सकता है कि वह उसका इस्तेमाल सिर्फ़ अपने हित के लिए करे. ऐसे बहुत से सवाल हैं जो मैं अपने उस भाई से पूछता, जिसने अपने विचार के लिए प्राण दे दिए.

वैचारिक मतभेद पाटने की कला उसे आती थी. वह तर्कों से अपनी बात मनवाता था, किसी पर कभी कुछ थोपता नहीं था. अपने विचार के प्रति उसकी यह प्रतिबद्धता ही थी कि कई दक्षिणपंथियों को वह वामपंथ की धारा में ले आया. कभी घोर अराजक रहे पापा को भी उसने सही दिशा दी थी. उसकी राजनीति में रुचि पहले उन्हें काफ़ी अखरती थी. बाद में व्यवस्था को लेकर पापा से उसकी अक्सर बहस होने लगी. इन बहसों का ही असर था कि धीरे-धीरे वे उसके साथ सेमिनारों में जाने लगे, कई बार मैं भी गया. कभी गुमसुम रहने वाले हेम पांडे का भाषण सुनने लायक होता था. उसके संबोधन का केंद्र हमेशा समाज का सबसे पिछड़ा व्यक्ति रहा. कभी अपने बेटे के लिए नौकरी का रोना रोने वाले पापा को अब उस पर गर्व होने लगा था. पापा समझ गए थे कि हेम ऐसे लोगों की मदद कर रहा है जिनके लिए न संविधान में कोई जगह और न ही सरकार की कोई योजना उन तक पहुंचती है. उसने हमारे परिवार को दुनिया को नए तरीक़े से देखने का नजरिया दिया था. हम खुशकिस्मत हैं कि इस बार भगत सिंह हमारे परिवार में पैदा हुआ.

नेतृत्व और संगठन बनाने की क्षमता भी हेम पांडे में कूट-कूट कर भरी हुई थी. आइसा छोड़ने के बाद वह एआईपीएसएपफ संगठन से जुड़ा. इसके बाद वह अपने कई मित्रों से अलग-थलग पड़ गया. लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी क्योंकि अपने विचार के लिए वह हमेशा समर्पित रहा. इसी का परिणाम था कि पिथौरागढ़ में उसने धीरे-धीरे इस छात्र संगठन को मजबूत बना दिया. हालांकि उसके सारे साथी उसकी तरह प्रतिबद्ध नहीं निकले. उसके जाने के बाद आज जब मैं आकलन करता हूं तो कई जगह वह मुझे अकेला नजर आता है. उसके मौकापरस्त दोस्तों को लेकर भी मेरी उससे कई बार चर्चा हुई. इसे लेकर उसका हमेशा एक ही जवाब होता, लोग आते-जाते रहते हैं लेकिन विचार अपनी जगह रहता है. उसकी मजबूती ही थी कि वह मरते दम तक अपने विचार के साथ रहा.
पढ़ाई पूरी करने के बाद जब पहाड़ के युवा रोजगार की तलाश में मैदानों की ओर भागते हैं उसने गांवों की ओर जाने वाला रास्ता चुना. जहां आज पढ़े लिखे युवाओं की सबसे अधिक जरूरत थी. पहाड़ के गांवों की तरफ जहां जवानी और पानी नहीं ठहरते. उन गांवों में रहकर उसने कई सालों तक गरीबों के लिए काम किया. लोगों को उनके हक के लिए जागरूक किया. मुझे आज भी याद है एक बार मैं अल्मोड़ा उसके कमरे में रुका था. कमरे में बिजली के कई बिल पड़े थे. मैंने पूछा तो पता चला कि वह गरीब गांव वालों के बिल थे. उन बिलों की गड़बड़ियों को ठीक कर उन्हें जमा करना था. यह सब ऐसे काम थे जिनके लिए किसानी, पशुपालन करने वाले किसानों को अपना पूरा दिन देना पड़ता था. निरक्षर लोगों के लिए यह और भी मशक्कत का काम होता था. इन सब कामों को ददा बड़ी जिम्मेदारी से निभाता. गांवों में घूमना और पढ़ना-लिखना ही उसका जीवन बन गया था. खाने-पीने की अनियमितता से उसका शरीर कमजोर हो रहा था. लेकिन उसकी चेहरे पर मासूम चमक लगातार तेज़ हो रही थी. आदिलाबाद के जंगल में पड़े उसके शव के चेहरे पर भी मुस्कराहट थी.

शादी और एक लंबे दौर तक गांवों में काम करने के बाद आजीविका के लिए वह दिल्ली तो गया लेकिन गरीब और जरूरतमंद लोगों से वह कभी दूर नहीं हुआ. दिल्ली में पत्रकारिता को उसने पेशा बनाया. गांव छोड़ने के बावजूद उसकी कलम में हमेशा गांव और गरीब किसान ही रमे रहे. आज जब पत्रकारों की कलम से बाजार की बोली के अलावा और कुछ नहीं निकलता वह शोषित समाज के दर्द को शब्द देता रहा. लोगों की पीड़ा समझने के लिए उसकी यात्रा अनवरत तब तक चलती रही जब तक उसकी सांस नहीं रोक दी गई. सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ वह खुद और उसकी कलम हमेशा मुखर रही. उसकी कलम से निकले प्रतिरोध के स्वरों को कभी खामोश नहीं किया जा सकता. कागजों में छूट गए उसके शब्द बोलेंगे और तब तक बोलेंगे जब तक अन्याय जिंदा है.


(पुस्तक प्राप्त करने हेतु इस पते पर मेल करें - bhupens@gmail.com अथवा भूपेन से इस नम्बर पर बात करें -.+91-9999169886 पुस्तक की कीमत है १५० रुपए)

3 comments:

मनोज कुमार said...

रोचक आलेख।

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

सचमुच, कलम के प्रतिरोध के स्‍वरों को कभी खामोश नहीं किया जा सकता।

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जादुई चिकित्‍सा !
इश्‍क के जितने थे कीड़े बिलबिला कर आ गये...।

प्रवीण पाण्डेय said...

बुद्धि के स्वर सदा विकसित हों और समाज में स्थान पायें, श्रद्धांजलि।