मुझे अंग्रेज़ी शब्द Disquiet के लिए हिन्दी में कोई उचित शब्द मिला ही नहीं. कोई एक साल से फ़र्नान्दो पेसोआ की डायरीनुमा किताब "The Book of Disquiet" का तर्ज़ुमा कर रहा हूं जिसे पेसोआ "एक तथ्यहीन आत्मकथा" कहता है. फ़िलहाल मैं डिस्क्वायट को कुशान्ति कहना पसन्द करूंगा बशर्ते भविष्य में कोई बेहतर शब्द मिल/सूझ गया. पहला टुकड़ा पढ़िये. फ़र्नान्दो पेसोआ कौन था यह जानने के लिए नैट खंगालिये, कबाड़ख़ाना खंगालिये -
एक तथ्यहीन आत्मकथा
इन बिखरी छवियों में, और मैं बिखरे होने के सिवा कुछ नहीं होना चाहता, मैं बेपरवाही के साथ अपनी तथ्यहीम आत्मकथा लिख रहा हूं, मेरा जीवनरहित इतिहास. ये मेरी स्वीकारोक्तियां हैं, और अगर मैं इनमें कुछ कहता हूं तो ऐसा इसलिए है कि मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं है.
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मैं ऐसे समय में पैदा हुआ था जब अधिकतर युवाओं ने ईश्वर पर से यक़ीन खो दिया था, ठीक उसी वजह से बूढ़े उस पर यक़ीन करते थे - बिना यह जाने कि क्यों. और चूंकि मानव आत्मा नैसर्गिक रूप से तर्क के बजाय भावना के आधार पर निर्णय किया करती है, इन अधिकतर युवाओं ने तय किया कि ईश्वर का स्थान मानवता ने लेना चाहिये. मैं अलबत्ता एक ऐसा आदमी हूं जो हमेशा उसकी सरहदों पर रहता हूं जिससे मेरा सम्बन्ध होता है, जो सिर्फ़ उस भीड़ को ही नहीं देखता जिसका वह हिस्सा होता है बल्कि उसके इर्द गिर्द की चौड़ी-ख़ाली जगहों पर भी उसकी निगाह जाती है. यही वजह रही कि मैंने उनकी तरह ईश्वर को पूरी तरह नहीं त्यागा और मैंने मानवता को कभी पूरी तरह स्वीकार नहीं किया. मैंने ईश्वर से बहस की, जिसका अस्तित्वमान होना असम्भव लगता है, कि यदि वह है तो उसकी पूजा की जानी चाहिये; जहां तक मानवता का सवाल है वह एक जैविक विचार मात्र है और जिस पशु प्रजाति के हम हिस्से हैं उस से अधिक कुछ नहीं, सो वह किसी भी अन्य पशु प्रजाति जितनी ही पूजा किये जाने की पात्र है. स्वतन्त्रता और समानता के अपने अनुष्ठानों के साथ मानवता का पंथ मुझे उन प्राचीन पन्थों को पुनर्जीवित करने जैसा लगता है जिसमें ईश्वर या उनके सिर पशुओं जैसे होते थे.
सो, ईश्वर पर और पशुओं के किसी समूह पर विश्वास करने में अक्षम मैं सरहदों पर रह रहे बाकी लोगों के साथ चीज़ों से एक दूरी बनाए रखता हूं, दूरी जिसे ह्रास कहा जाता है. ह्रास अचेतन की सम्पूर्ण हानि है, जिसके भीतर जीवन का सकल आधार होता है. अगर सोच सकता, तो दिल धड़कना बन्द कर देता.
मुझ जैसे कुछ उन लोगों के लिए जो नहीं जानते कैसे जिया जाए, जीवन क्या है सिवाय परित्याग की मदद से अपने भाग्य को स्वीकारने और उस पर विचार करने के? धार्मिक जीवन को न जानते हुए और जान सकने में अक्षम होने पर, चूंकि विश्वास को तर्क द्वारा नहीं पाया जा सकता, और मनुष्य की अमूर्तन अवधारणा पर विश्वास करने और उस पर प्रतिक्रिया तक करने में अक्षम, हमारे पास जीवन के सौन्दर्यबोधी विचार के अलावा कुछ नहीं बचता कि हमारे पास आत्मा के होने का कोई तर्क हो. किसी भी या सारे संसारों की गम्भीरता के प्रति उदासीन, दैवीय के प्रति बेपरवाह, और किसी भी मानवीय चीज़ से घृणा करते हुए हम किसी परिष्कृत एपीक्यूरियनिज़्म में विकसित की गई तर्कहीन सनसनियों के आगे अपने को फ़िज़ूल में समर्पित कर देते हैं जैसा हमारे मस्तिष्क की नसों के लिए उपयुक्त होता है.
विज्ञान से केवल उसका मूल सिद्धान्त लेकर - कि हर चीज़ जानलेवा नियमों से जुड़ी हुई है, जिस के खिलाफ़ हम कोई प्रतिक्रिया नहीं कर सकते क्योंकि स्वयं नियम ही प्रतिक्रियाओं को निर्धारित करते हैं - और यह देखते हुए कि कैसे यह सिद्धान्त चीज़ों की प्राचीन दैवीय घातक अवधारणाओं से मेल खाता है, हम किसी भी प्रयास को छोड़ देते हैं जैसे कमज़ोर देह वाला कोई बड़े शारीरिक कार्य करना त्याग दे, सो हम किसी भावनाओं के किसी कर्तव्यनिष्ठ छात्र की तरह सनसनियों की पुस्तक पर झुक जाते हैं.
किसी भी बात पर गम्भीरता से बात किये बग़ैर और अपनी सनसनियों को इकलौती निश्चित वास्तविकता के रूप में पहचान कर हम उन्हीं में शरण ले लेते हैं जैसे वे विशाल अनजाने देश हों. और अगर हम न केवल सौन्दर्यबोधी विचारों बल्कि उनकी अभिव्यक्ति के तरीकों पर मेहनत करते हैं तो ऐसा हमारी लिखी कविताओं और गद्य के लिए होता है - इन कविताओं और गद्य में किसी दूसरे की इच्छा या समझ को बदल देने की मंशा नहीं होती - यह फ़क़त ऐसा है जैसे जब एक पाठक कविता को सस्वर पढ़ते हुए पढ़ने के व्यक्तिगत अनुभव को पूरी तरह सार्वजनिक बना देता है.
हमें अच्छी तरह मालूम है कि हरेक रचनात्मक कार्य अधूरा होता है और यह भी कि हमारा सबसे संदिग्ध सौन्दर्यबोधी विचार वह होगा जिसकी मंशा लिखने की होगी. लेकिन सारी चीज़ें अधूरी हैं. कोई भी सूर्यास्त इतना सुन्दर नहीं हो सकता कि वह उस से सुन्दर न हो सके, नींद लाने वाली हवा का कोई भी झोंका ऐसा नहीं हो सकता कि हमें एक और दूसरी नींद न आ सके. सो मूर्तियों और पहाड़ों पर एक ही तरह से विचार करने वाले, किताबों और बीतते हुए दिनों का आनन्द उठाने वाले और हरेक चीज़ के बारे में सोचने वाले ताकि उन्हें हमारे अपने तत्वों में रूपान्तरित किया जा सके, हम ब्यौरों और आकलनों को भी लिखेंगे जो खत्म हो चुकने पर ऐसी असम्बद्ध चॊज़ें बन जाएंगी ताकि हम उनका ऐसे आनन्द उठा सकेंगे मानो वे एक दिन घटी थीं.
यह विनी सरीखे निराशावादियों का नज़रिया नहीं जिनके वास्ते ज़िन्दगी एक कारागार थी जिसमें व्यस्त रहने और भूल जाने के लिए वे घास-पात बुना करते थे.निराशावादी होने का मतलब हुआ हरेक चीज़ को त्रासद तरीक़े से देखना, जो अतिवादी और असहज कर देने वाला रवैया होता है. जहां यह सच है कि हम अपने द्वारा रचे गए काम को कोई महत्व नहीं देते और यह भी कि हम व्यस्त रहने के लिए रचना करते हैं लेकिन हम वैसे कैदी नहीं हैं जो अपने मुकद्दर को भूलने के लिए घास-पात बुना करता है; हम उस लड़की की तरह हैं जो खुद को व्यस्त रखने के अलावा और किसी भी कारण के बग़ैर तकियों के गिलाफ़ काढ़ा करती है.
मैं जीवन को सड़क किनारे बनी एक सराय की तरह देखता हूं जहां मुझे तब तक रहना है जब तक उसके आगे पाताल से आने वाली बग्घी न आ लगे. मैं नहीं जानता वह मुझे कहां ले जाएगीक्योंकि मैं कुछ नहीं जानता. मैं इस सराय को किसी कारागार की तरह देख सकता हूं क्योंकि मैं इसके भीतर इन्तज़ार करने को बाध्य हूं; मैं इसे किसी सामाजिक केन्द्र की तरह भी देख सकता हूं क्योंकि यहां मेरी मुलाकात औरों से होती है. लेकिन मैं न तो उतावला हूं न साधारण. मैं छोड़ता हूं उन्हें जो अपने कमरों में खुद को बन्द कर बिस्तरों पर पसरे इन्तज़ार करना पसन्द करते हैं, और छोड़ता हूं उन्हें जो बैठक में आ कर बातचीत करना पसन्द करते हैं जहां से उनकी आवाज़ें और उनके गीत सुविधापूर्वक तैरते हुए यहां मुझ तक पहुंच जाएंगे. मैं दरवाज़े पर बैठा हुआ हूं - लैण्डस्केप के रंगों और ध्वनियों से अपनी आंखों और कानों को निहाल करता, और मैं हौले से गाता हूं - केवल अपने वास्ते - इन्तज़ार करते हुए रचे गए अपने अस्पष्ट गीत.
रात उतरेगी हम सब पर और बग्घी आ पहुंचेगी. मैं लुत्फ़ उठाता हूं उस मुलायम हवा का जो मुझे दी गई है और उस आत्मा का जिसकी मदद से इस लुत्फ़ को उठाया जा सकता है, अब मैं न सवाल करता हूं न कुछ खोजता हूं. यात्रा की जो पुस्तक मैं लिखता हूं - अगर उसे पढ़कर भविष्य की किसी तारीख़ को यात्रा कर रहे दूसरे लोगों का भी मनोरंजन होगा तो अच्छी बात है. अगर वे उसे न पढ़ें या उनका मनोरंजन न हो सके तो वह भी अच्छी बात है.
5 comments:
सार्थक पोस्ट...
शब्द नहीं ढूढ़ पा रहा हूँ इन भावों के लिये पर कुशान्ति स्वीकार नहीं है।
मेरी पिछली टिप्पणी ग़लत थी। यह किताब तो पुर्तगाली में है। बिल्कुल, मैं इस किताब को बिना देखे ही बोल रहा था। और शरद चंद्रा ने इस किताब के चुनिंदा अंशों का ही अनुवाद किया है, पूरी किताब का नहीं। उनकी प्रोफाइल से पता चलता है कि वे पुर्तगाली भी जानती हैं, लेकिन यह भी कि उन्होंने इस किताब का अनुवाद French-Portuguese से किया है। French-Portuguese— इसका क्या मतलब निकालें? —यह पुर्तगाली की कोई ख़ास बोली है या मतलब यह है कि उन्होंने फ्रेंच अनुवाद का भी सहारा लिया है?
@ सोनू - मेरे पास अंग्रेज़ी भी है, पुर्तगाली भी और शरद चन्द्रा के किए पेसोआ के तमाम दुकड़िया अनुवाद भी.
हां, रहा सवाल French-Portuguese का तो ऐसी कोई चीज़ नहीं होती. इसके अलावा मैंने जब शरद चन्द्रा के अनुवाद को अंग्रेज़ी से मिलाकर देखा तो वही हुआ जिसका भय था. :) लगे रहो भइये!
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