अण्णा हज़ारे के "आन्दोलन" को लेकर यह आलेख हमारे कबाड़ी साथी शिवप्रसाद जोशी ने दोएक दिन पहले भेजा था. कुछ तकनीकी परेशानियों के चलते मैं इसे आज लगा पा रहा हूं.
जंतरमंतर से रामलीला मैदान तक एक आंदोलन
-शिवप्रसाद जोशी
अण्णा हज़ारे और उनके सहयोगियों के आंदोलन की गूंज से देश का समूचा मध्यवर्ग थरथरा उठा. न जाने ऐसा क्या हो गया है कि क्रांति और दूसरी आज़ादी और एक विलक्षण कायापलट की संभावनाएं एकाएक प्रकट हो गई हैं. महानगर और राज्यों की राजधानियां और क़स्बे इस संभावना पर लोटपोट हो रहे हैं. लोटपोट कुछ ऐसे ढंग से हो रहा है कि लोगों को लग रहा है कि भ्रष्टाचार ये मिटा वो मिटा. ये जैसे समाज और आंदोलन में क्रिकेट हो गया है. ये खुमारी जैसी है. ये बड़ी विकट किस्म की खुमारी है.
इसका संबंध ज़ाहिर है एक बहुत लंबे समय की फ़जीहतों के समय से है. ये समय 1947 से भी पहले 1857 से शुरू होता है. या शायद उससे पहले आप तारीख ले जाएं वहां जहां विरोध के बुलबुले फूटते ही थे.
16 अगस्त को गांधी से जोड़ने की और उनके साथ साथ भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों से जोड़ने की सुविधा का आंदोलन भी ये बना. ये एक ऐसे शत्रु के ख़िलाफ़ सुविधा शांति निश्चिंतता से भरा आंदोलन हो गया जहां पराजय का संकट नहीं हैं उसकी ग्लानि और उसका दंश नहीं है और किसी भी क़िस्म का कोई भय नहीं है. सब आ रहे हैं. चलो एक उत्सव है. कुछ के लिए एक अपनी बुनियादी भूमिका से बंक करने का वक़्त हो गया है. ये उदारवाद के युग की एक आसान और नाटकीय क्रांति है. यहां धूप और मिट्टी और धूल में रगड़ नहीं खानी है. यहां ख़ून की उछाड़ पछाड़ नहीं है. ये एक भोलीभाली एक्सरसाइज़ सहज प्राप्य संतोष और सदइच्छा का एक लंबे समय से दमित और अचानक प्रस्फुटित गुबार है. मैदान से लेकर मुर्दाबाद तक सबकुछ मुहैया कराया गया है. मैं भी अण्णा हम भी अण्णा भ्रष्टाचार और सत्ता राजनीति से त्रस्त रहे और अभयस्त हो चुके विशाल मध्यवर्ग के लिए राहत की संभावना की एक ठोस मज़बूत नली है. वे सोच रहे हैं कि लोकपाल आ जाएगा तो रिश्वत मांगने की जुर्रत न करेगा कोई सरकारी मशीनरी में.
एक बहुत निराला क़िस्म का विक्षोभ मध्यवर्ग में आ रहा है और वो अब ज़रा भ्रष्टाचार से निजात चाहता है. गोकि भ्रष्टाचार भी कोई स्याही है जिसे मिटाया जाना मुमकिन है. निजी कंपनियां, एनजीओ, नेता, दल, व्यापारी, दुकानदार, कर्मचारी, रिटायर्ड बिरादरी, थोक और फुटकर विक्रेता सब आ जा रहे हैं. छात्र भी ज़्यादा हैं. वे इसे युवा शक्ति कह रहे हैं.
एक पूरा ज़ोर लगाया जा रहा है कि कुछ गिर जाए. क्या गिराना चाहते हैं वे. क्या ये अपनी ही नैतिकता पर लंबे समय से रखा बोझ होगा. वे कौन है जो इस आंदोलन के पार्श्व में हैं और वहां से उसे फुला रहे हैं. और जब ये भीड़ न होगी जब लोग थक कर घरों को लौट जाएंगे जब एक टाइमिंग पूरी हो चुकी होगी तब क्या होगा. या दूसरा दृश्य सोचें कि लोकपाल बिल वैसा आ जाएगा जैसा मांगा जा रहा है जल्द ही पास हो जाएगा कानून बन जाएगा. या जिसकी ज़्यादा संभावना है कि अण्णा बिरादरी का ड्राफ़्ट भी रहे सरकार का भी रहे मिला जुलाकर बहुत सारे राय मशविरे के बाद एक बिल आ जाए, चर्चा हो जाए ढेर सारी और एक क़ानून बन जाए. उसके बाद. उसके बाद क्या करेंगे. लोकपाल की नियुक्ति उसका अमला तामझाम उसकी मशीनरी उसका दीन कौन होगा वहां.
मशहूर समाजशास्त्री आंद्रे बेते को इस आंदोलन पर संदेह है. उनका कहना है कि सही है कि लोगों को भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ बोलने का मौक़ा मिला है लेकिन वो फिर भी इसका सर्मथन नहीं करते क्योंकि पहले से ही जर्जर अस्थिर राज्य को इस जैसे आंदोलन और कमज़ोर करेंगे. बेते जैसे विद्वानों को इस आंदोलन को नागरिक बिरादरी का आंदोलन कहे जाने पर भी एतराज़ है.
बहरहाल उत्तरआधुनिकता वालों के लिए ये महायज्ञ जैसा हो गया है. जिसकी अभूतपूर्व टीवी कवरेज हो रही है. मीडिया का एक मालिक जो अपने स्ट्रिंगर अपने संवाददाता से कहता है कि बिजनेस लाओ जैसे जैसे भी वो अब लोकपाल लाओ की मुहिम को गर्वीलेपन से दिखाता है. सब अचानक कायांतरित होकर आत्मिक वैचारिक और भौतिक तौर पर धवल हो चुके हैं. ये देश में छा गई नव धवलता है.
हो क्या रहा है. ये गाना बजाना ये शोरोगुल ये हुंकार ये भगतसिंह ये गांधी ये क्रांति ये नाच ये जुलूस ये मोमबत्तियां ये स्टिकर ये टोपियां ये मुखौटे ये कटआउट इतने ज़्यादा क्यों हो गए. अण्णा आंदोलन की तो ये मंशा नहीं थी शायद. नागरिक बिरादरी के सक्रिय लोग इस “उत्सव” की तो मंशा नहीं कर रहे होंगे कि यही मुराद है. रामलीला मैदान ही देश क्यों बताया जा रहा है. लोकपाल क्या मध्यवर्ग की सुविधा के लिए लाया जाने वाला बिल है.
क्या इस देश की अधिसंख्य आबादी इस लोकपाल से मुक्ति की सांस ले पाएगी. क्या असंगठित क्षेत्र का तबका जो दायरे में ज़रा ज़्यादा ही ठहरता है वो अपनी रोटी और रोज़गार के नियंता ठेकेदार मालिक से एक नई मुक्ति की अपेक्षा कर सकेगा. ऐसी मुक्ति कि उसे रोज़गार ठोस मिले और जो मिले उसका मानदेय भरपूर न्यायसंगत मिले. क्या इस आंदोलन में दूसरे ज़मीनी आंदोलनों को सपोर्ट देने की ताब है. क्या मध्यवर्ग के इस मार्च में ठेकेदार बाहर रहे हैं या वे भी मैं अण्णा हूं कि टोपी पहने हैं.
एक सोई हुई सरकार को जगाने के लिए क्या फिर से कभी रामलीला मैदान जाना होगा. क्या हमारे समय की लड़ाइयां इतनी आसान हो जाएंगी. क्या रामलीला मैदान या तिहाड़ के दृश्यों से कमतर वे दृश्य हैं जो पोस्को के ख़िलाफ़ उड़ीसा के बच्चों के ज़मीनों पर लेटे हुए हमने कुछ देखे हैं. जैसे वे आसमान से गिरकर आए हुए कोई फूल हैं और ज़मीन पर बिछ गए हैं कि उन्हें फिर से उगने की चाहत है.
टीवी वहां क्यों नहीं गया. क्यों नहीं पोस्को या वेदांत को जाने के लिए कह दिया जाता. वे हमारे उन खनिज और पानी और जीवन भरे पहाड़ों-पठारों के पास फिर न फटकते और विकास की दुहाई के लिए ये नवउदारवादी सेनाएं वहां बारबार किसी न किसी ढंग से लौटती हुई न आ जातीं.
आज कांग्रेस उसकी मुखिया उसके सिपहसलार उसकी सरकार के नुमायंदे उसके मुखिया बहुत सारे राजनैतिक दल दुविधा और अज़ोबोग़रीब खीझ से भरे हुए क्यों हैं. इसलिए कि उन्होंने देश की नब्ज़ नहीं देखी कि ठीक कहां धड़क रही है. राहुल गांधी एक संभावना बनकर कांग्रेस के भीतर एक नए ताप के प्रतीक बनते दिखे. उन्होंने उड़ीसा के लोगों से कहा मैं दिल्ली में आपका सिपाही हूं. सिपाही के पास न बंदूक थी न विचार न साहस न प्रेरणा.
सिपाही गुम हो गया. लोगों को ज़मीन पर लेटकर ज़मीन बचाने के लिए आंदोलन करना पड़ा. लेकिन सरकारें क़ानून को बुलडोज़र बना देती हैं. वे निरीह ग़रीब पर गर्वीले दुस्साहसी जन कब तक अपनी धरतियों से चिपके रहेंगे. वे कब जीवन जिएंगे. उनके बच्चे कब उठेंगे कब स्कूल जाएंगे. अण्णा देश के समूचे मध्यवर्ग को लेकर वहां चले जाएं. सारे टीवी कैमरे सारे विश्लेषक वहां चले जाएं. सारे रणनीतिकार सारे चाटुकार सारे सिपहसालार वहां चले जाएं. खनिज संपदा और देश की आर्थिक तरक्की का विदेशी निवेश को रिझाने का अपनी सामर्थ्य बढ़ाने का का वो एक अभूतपूर्व केंद्र है. और वो एक पूरा गलियारा है. जो बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश तक ज़्यादा है. ये एक पूरी की पूरी पट्टी है जहां टोपीविहीन आंदोलन की तपिश है. जनमानस दिल्ली और आसपास और टीवी और उसके आसपास से बनता होगा पर यहां जो बन रहा है उसे क्या कहेंगे.
अण्णा कहते हैं 65 फ़ीसदी भ्रष्टाचार मिट जाएगा अगर लोकपाल आ जाए. जन लोकपाल. वो 35 फ़ीसदी हिस्सा कौन सा होगा जिसके न मिट पाने की हिचकिचाहट अण्णा को है.
क्या ये उस “क्रांति” की अगली कड़ी है जो हमने कुछ साल पहले एक हिंदी फ़िल्म के ज़रिए समाज में घटित होते देखी थी जब गुलाबों और नाना पुष्पगुच्छों की बिक्री यकायक बढ़ गई थी. गांधी टोपियां उस समय हर जगह दिखने लगी थीं जैसे किसी जादूगर ने छड़ी घुमाकर सबके सिरों पर उसे स्थापित कर दिया हो. उसे गांधीगिरी कहा जा रहा था. इस बार अन्नागिरी कह रहे हैं. कैसे सब प्रभावित और आप्लावित होते जा रहे हैं. अब ये ऐसी अजीब क़िस्म की ज़िद और उद्वेग और ललकार का आंदोलन हो गया है कि इसका विरोध करने वाले या इस पर आलोचना की निगाह रखने वाले क़रीब क़रीब देशद्रोही कहे जाने लगे हैं. जैसे उस समय उन्हें यही कहा गया था जो दूसरे एटमी विस्फोट की ख़ुशी के उत्पात में शामिल नहीं थे. जो कारगिल की शहादतों को जुलूस बनाने वालों के साथ नहीं थे. जो मुंबई हमलों पर एक अतिरेकी और पड़ोसी देश को नेस्तनाबूद करने के फ़िराक़ ओ जुनून से बाहर थे. जो कश्मीर में मानवाधिकार का मामला उठाते थे जो आदिवासी इलाक़ो की लड़ाइयों में औचित्य देखते थे. जो क्रिकेट की जीतों में अपने भीतर सनसनी और बुखार का हमला न होने देते थे. जो जैसे थे वैसे ही रहते आते थे.
चोटी के कई मीडिया टिप्पणीकार भी इसमें नई आज़ादी का आंदोलन पा चुके हैं. यहां तक कि वाम तबके के एक धड़े को भी अन्ना की आंधी में भ्रष्ट निज़ाम पूरा का पूरा उखड़ता दिख रहा है. केंद्र सरकार की मज़म्मत की ये एक सुनहरी और अखिल भारतीय घड़ी आ गई है. एक ऐसी फटकार से पूरा देश गूंजता हुआ सा टीवी पर दिख रहा है जैसे इसकी कभी किन्हीं और वक़्तों में कोई ज़रूरत ही न रही होगी जैसे कोई और मुद्दा कभी समाज में न आया होगा जैसे इस एक मुद्दे के अलावा समाज और सरकार स्वच्छ सुंदर होगी. जैसे बलात्कारी यहां न होते होंगे. शोषक अत्याचारी गुंडे हुड़दंगी और सांप्रदायिक न होते होंगे. जैसे खनन माफिया और ज़मीन माफ़िया यहां न पनपता होगा जैसे किसी की ज़मीन न हड़पी गई होगी जैसे विस्थापन यहां कोई अवश्यंभावी नियति न हो गई होगी. जैसे भट्टा पारसौल राहुल दौरे से पहले न होता होगा जैसे रामदेव मामले पर वृंदा करात और मज़दूरों का आंदोलन एक राजनैतिक ग़लती रही होगी जैसे टिहरी और 125 गांवों के डूबने से उत्तर भारत रोशनी और पानी से नहा चुका होगा जैसे नर्मदा से विस्थापन की लड़ाई नकली और विदेशी इशारों पर होती होगी जैसे भोपाल से कोई गैस ही न कभी लीक हुई होगी जैसे राजनैतिक दल औऱ नेता बारी बारी से आकर अपनी जनता का पैसा न बरबाद करते होंगे जैसे केरल में भूमिगत पानी कोल्ड ड्रिंक कंपनी के कारखाने ने चूस न लिया होगा जैसे खेत खाली ही न रहते आए होंगे जैसे बीज सड़ ही न रहे होंगे जैसे किसान ख़ुशी से जान दे रहे होंगे जैसे ग़रीबी बुहारकर एक कोने कर दी गई होगी और देश और समाज का नक्शा यूं चमकदार और साफ़ होगा.
और सिर्फ़ फटकार होगी तो इसलिए कि एक लोकपाल क्यों नहीं लाते, भ्रष्टाचार क्यों नहीं मिटाते.
जैसे लोकपाल 20 रुपए हर रोज़ कमाने वाले हिंदुस्तानी की तक़लीफ़ को ख़त्म कर देगा. जैसे वो उसे अचानक एक उस रेखा से खींचकर वहां रख देगा जहां चमचमाता शोरोगुल और प्रदर्शन और नारा और रामलीला मैदान है.
मुख्यधारा की राजनीति घबराई हुई सी इस आंदोलन को देख रही है. नेता टुकुर टुकुर ताक रहे हैं. जनता कुछ ज़्यादा ही विराट जनार्दन नज़र आ रही है. अण्णा टीम और टीवी की ये क़ामयाबी है कि एक आंधी सुनियोजित ढंग से उड़ाई जा रही है. नेताओं के कुर्ते और अधिकारियों के कॉलर फड़फड़ा रहे हैं.
पर क्या उनकी आत्मा तक ये फड़फड़ाहट जाएगी. क्या ये सनसनाहट ही रह जाएगी. क्या ये आंधी उस पूरे सिस्टम से आरपार हो सकती है और उसकी सफ़ाई कर सकती है जो नीचे तक भ्रष्टाचार से भरा हुआ है. या ये उस सिस्टम को और धूल गुबार उलझन और नई चालाकी से भर देगी.
क्या इस आंदोलन का स्वरूप ज़्यादा गहरा गंभीर ज़्यादा स्पष्ट ज़्यादा प्रचार मुक्त ज़्यादा विरागी नहीं हो सकता था. क्या दिल्ली ही इस आंदोलन का केंद्र हो सकता था. क्या लोकपाल की लड़ाई नीचे से उठती हुई न आती. एकदम निचले दर्जे से वहां से जहां रोटी रोज़ी और ज़िंदगी एक दूसरे से टकराती रहती हैं लहुलूहान होती रहती हैं और चीखें हरतरफ़ फैली रहती हैं. क्या वहां से लोकपाल की स्थापना का ये महान आंदोलन न उठना चाहिए था जो हमारे गांव हैं जो पंचायती राज के नाम पर एक भयावह नरक से बावस्ता हैं. जहां जघन्य भ्रष्टाचार किया जा रहा है. वे हमारे गांव वे हमारे नगर वे हमारे ज़िले वे हमारे राज्य और वो हमारी राजधानी वो हमारी अदालत वो हमारी संसद वो हमारा संविधान.
संविधान की बहुत मोटी जिल्द पर चिपकने से क्या फ़ायदा, उसके उन विकट दुरूह पन्नों पर जाते और वहां पलट पलट कर सब कुछ टटोलते. वहां जहां निपट अंधकार है सुनसान है और एक अजीब क़िस्म का जंगल है. उस जंगल में जाकर कुछ करते, दिल्ली में जो करें वो तो सब मंगल है.
4 comments:
संतो, ज्ञान की आँधी आई !
"एक पूरा ज़ोर लगाया जा रहा है कि कुछ गिर जाए. क्या गिराना चाहते हैं वे. क्या ये अपनी ही नैतिकता पर लंबे समय से रखा बोझ होगा ?"
शिव जी के उद्गार पढ़ ने के बाद ये ऊपर वाला फोटू मुझे बर्गर सा लग रहा है. अण्डा हज़ारे दो भगवाधारियों के बीच कुछ ज़्यादा ही अश्लील नज़र आ रहे हैं .....
I appreciate views expressed as it is individual's right.If we look in wider perspective- Anywhere in world you will see any movement started with select issues,it never said that there was/is no other issue.No movement,howsoever,strong it may be can cover all.What Gandhiji said- concentrate 1 issue only Freedom.Do we mean at time there were no other issues.
There is lot of frustration in middle class as this class understand every thing but is helpless and can't change system.Poor does not understand and has power to change Govt.They are purchased,misled by local leaders for their vested interest-May be mukhia's order,leader of caste/religion etc.
The advantage goes to people who come to power and control wealth of country indirectly.Their thinking is clear that for 5 years they will do manipulation as per their whims and fancy& no one can/should come in his way.Poor in any case does not know.Middle class understands but his voice is gagged.Upper class is very happy and sees an opportunity to use these elected representatives and form a nexus with them for mutual advantage.And story goes on..................
Anna is poor man and knows only one thing i.e people are suffering
and starts something.Others join,some knowingly and some without knowing the things.Anywhere
movement starts like this only.It is different thing that it will not start and end with this,as Lokpal is something like it is K.G class and you have to reach to post graduation level.It is long way.
One question how someone can reach to postgraduate level without going into KG class?
दाज्यू, इसे मामलों में बेर ठीक नहीं.
प्रारम्भ है, सुधार धीरे धीरे गति पकड़ लेगा।
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