(पिछली पोस्ट से जारी)
बालूसिंह के घर जाते वक़्त उन्होंने फिर हमसे तकरार की कि फ़िल्मी गीतों ने हमें अंघा बना दिया है। फ़िल्म देखने जाते नहीं। फ़िल्म ने फ़ोटोग्राफ़रों ने जो काम किया है इसका कोई इल्म नहीं, कोई ज़िक्र नहीं। दूसरे दिन हम फिर से बस से वापस लौट रहे थे। बारिश की वजसे रास्ते कीचड़ से भरे थे। गाड़ी को धक्का देकर, कभी गाड़ी में बैठकर आगे बढ़ते रहे। तभी मुझे यह समझ आया कि अच्छी कंपनी में मुसीबतों का रंग कुछ अलग ही होता है। एक बात जो वापसी के सफ़र की याद रही, वह यह कि मैंने अपने भाई से सवाल किया था कि क्या फ़िल्मी संगीत में कोई ऐब या ख़़राबी भी है? उन्होंने कहा एक बहुत बड़ा नुक़्स है। फ़िल्म संगीत में हिंदुस्तान के लोगों में एकता लाने की संभावना पर काम नहीं किया गया है। ये इंडिया के टुकड़े होने से नहीं बचा सका। किसी भी लेखक और आलोचक ने इस प्रश्न को नहीं उठाया। उन्होंने ये भी कहा, ‘ये ख़ुदा की मेहरबानी है, पार्टीशन से पहले ही उन्होंने सहगल को उठा लिया।’
बिजलीवाला शाह, दहशत में एक छोटा चश्मा
जब हम घर लौटे तो दोनों को मच्छर के काटे का वरदान मिला। दस बारह दिन तक डाक्टरों की सूइयाँ खाते रहे। बिजलीवाला शाह हमारी कम्युनिटी में उन गिने चुने लोगों में थे, जिनका पढ़ाई-लिखाई किताबों से नाता था। हमारी कम्युनिटी में वह एक गहरी सोच वाले इंसान थे। अलीगढ़ में मुग़ल शायरों पर उन्होंने थीसिस लिखी थी। वह कहते मेरा दिमाग़, सोच-समझ, मेरे जज़्बात हमारी तारीख़ के एक वर्ष में क़ैद है, वह है 1857। इस बरस में हिंदुस्तान में क्या हुआ। अगर हम ठीक से इसे समझें तो हमारे भविष्य का दरवाज़ा खुल जाएगा। वह ख़ुद कहते कि वह उस वक़्त के आदमी नहीं है, उनका जन्म तो इस सदी में हुआ। एक लिहाज़ से वह भाई अय्यूब के उस्ताद थे।
ग़ालिब, दाग़, सौदा, हाली, ज़फ़र इनकी शायरी पर घंटों बातें करते ताकि मेरे भाई और अच्छा गा सकें। लेकिन बिजली वाले शाह एक अजीब शाह थे। मुझे ताज्जुब होता था कि जिस आदमी की इतनी पढ़ाई-लिखाई हो वह इस तरह का काम क्यों करता है? कम्युनिटी वालों को सबसे बड़ा एतराज़ यह था कि शाह ने काली अफ़्रीकी से शादी की थी। इसलिए बहुत से लोग कहते थे कि ज़्यादा पढ़ाई-लिखाई इंसान के लिए अच्छी चीज़ नहीं है। मेरे भाई ने एक दिन समझाया कि उन्हें बिजली वाले के हौसले पर रश्क होता है। वह दुनिया में कितने अकेले हैं। उनके घर वाली के लिए उर्दू हवा में उड़ती हुई बेमानी आवाज़ है। शाह साहब चारदीवारी में अपनी यादों के सहारे एक लम्हे से दूसरे लम्हे पहुँच रहे हैं। मैं उनकी हिम्मत की दाद देता हूँ। इसी मुलाक़ात में बिजली वाले शाह ने हमें नायलोन की ईजाद के बारे में बताया। उन्होंने अख़बार में पढ़ा है, अमरीका में नायलोन का धागा बन चुका है और यह साइसेल का चक्कर ख़त्म होने वाला है। तो मेरे भाई ने कहा कि शाह साहब हमें बीमारी में ठीक करने आए हैं कि और बीमार करने? वह हँसने लगे। नहीं-नहीं, यह बदलाव तो सौ साल बाद होगा, अभी चिंता करने की ज़रूरत नहीं। उन्होंने कहा मैं यह इसलिए बता रहा हूँ, क्योंकि नायलोन की कहानी बहुत दिलचस्प है। 1937 में अमरीका की डुपौंट कंपनी ने हारवर्ड विश्वविद्यालय के एक होनहार प्रोफ़ेसर वॉल्स करदर्स को कंपनी में लिया ताकि वे नायलोन का धागा बनाये। वे कामयाब हुए। लेकिन पेटेंट मिलते ही अपनी ईजाद पर निराश होकर उन्होंने ख़ुदकुशी कर ली। 1940 में इस धागे का स्टॉकिंग जब न्यूयार्क के मेसी स्टोर में बिका तो, औरतों ने हंगामा कर दिया। जिस चीज़ का फ़ायदा करदर्स को मिलना चाहिए था, वह कंपनी ले रही थी।
तबीयत ठीक होने पर भाई तो नौकरी पर चले गए और मैं मास्टर दया भाई के डंडे खाने की तैयारी करने लगा। स्कूल जाने के पहले बारबार मेरे दिमाग़ में आ रहा था, काश, समय पीछे चला जाए जब हम सफ़र करने की तैयारी कर रहे थे। कोई भी इंसान तवारीख़ के बाहर नहीं रह सकता। जो इसकी कोशिश करता है, उसको सज़ा मिलती है। अगस्त 1947 में महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, मोहम्मद अली जिन्ना जो क्रांति लाए, तीसरी दुनिया के देशों में ब्रिटिश राज की लगाम ढीली पड़ने लगी। लेकिन ये आज़ादी दक्षिण एशिया में आई। अफ्ऱीक़़ा के हिंदुस्तानियों को अभी भी उसकी कोई ज़रूरत महसूस नहीं हुई। वे ब्रिटेन के वफ़ादार बने रहे। उनके लिए किपलिंग का गंगादीन खलनायक नहीं हीरो था। हालाँकि रेलगाड़ी हमारे बाप-दादाओं ने बनायी थी, लेकिन हमें सिर्फ़ सेकेंड क्लास में बैठने की इजाज़त थी और उसमें भी हम ख़ुश थे। थर्ड क्लास के डिब्बे में क्या हो रहा है, उससे हमें कोई मतलब नहीं था।
(अगली किस्त में समाप्य)
1 comment:
जलसा अभी तीन-चार रोज पहले ही असद जी ने भेजी...पढ़ने की शुरुआत मैंने आखिर के इस पाठ से ही...हिंदुस्तानी संगीत के बारे में दक्षिण अफ्रीका में बैठा एक व्यक्ति क्या-क्या करता- सोचता रहा, हम हिंदुस्तान में रहकर बॉलीवुड के प्रति कभी इतना संजीदा नहीं हुए होंगे। कभी न भूलनेवाला लेख है ये।
दम भर जो उधर मुंह फेरे ओ चंदा....इस गाने का ज़िक्र जब हुआ इसके बाद तो कई बार मैं इसे सही धुन में गुनगुनाने की कोशिश करती रही।
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