Thursday, September 8, 2011

क्या हम जनता से मुखातिब हैं?

क्या हम जनता से मुखातिब हैं?

कविता कृष्णन


'मैं अन्ना हूं' या 'वन्दे मातरम्' बोलने वाले सभी लोग न तो संघी हैं, न ही कारपोरेट समर्थक. वे हमारी वे सब बातें सुनने के लिए खुला रुख रखते हैं जो हमें कारपोरेट भ्रष्टाचार या उदारीकरण की नीतियों के बारे में उनसे कहनी हैं. सवाल यह है क़ि क्या हम इतने अहंकारी, श्रेष्ठ और पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो चले हैं क़ि हम उनसे बात भी न कर सकें?

सारी गरमी भर आल इंडिया स्टूडेंट्स असोसिएशन (आइसा) तथा इंकलाबी नौजवान सभा (आरवाईए) के कार्यकर्ता इसी कष्टप्रद कार्य में महीनों लगे रहे. उन्होंने सारे देश में अभियान चलाया- ऐसे मुहल्लों, गाँवों, बाज़ारों में जहां वामपंथ की कोई प्रत्यक्ष उपस्थिति नहीं थी. ऐसा नहीं है क़ि ये इलाके 'बड़े लोगों' की बहुलता वाले इलाके थे. अधिकांशतः ये इलाके ऐसे थे जिनमें मध्य और निम्न मध्यम वर्ग, मजदूर तबके के लोग तथा कैम्पसों के नजदीक छात्रों की बसावट वाले इलाके थे. अधिकांश जगह इन कार्यकर्ताओं को देख लोग यह मानने से शुरू करते थे क़ि वे अन्ना हजारे का अभियान लेकर उनके बीच आये हैं. जब ये छात्र कार्यकर्ता नौ अगस्त के संसद जाम करने के अपने आह्वान के बारे में बताते तो उनसे पूछा जाता था- 'जब अन्ना एक अभियान चला ही रहे हैं तो उससे अलग किसी अभियान की क्या जरूरत है?' तब वे उन्हें यह बताते क़ि वे एक प्रभावी भ्रष्टाचार विरोधी क़ानून के लिए इस आन्दोलन का समर्थन करते हैं, ताकि भ्रष्टाचारी दण्डित होने से बच न पायें. लेकिन इस तरह के क़ानून बनने मात्र से भ्रष्टाचार समाप्त नहीं होगा क्योंकि यह भ्रष्टाचार उन नीतियों का परिणाम है जो क़ि जल-जंगल-जमीन, खनिज, स्पेक्ट्रम, बीज आदि की कारपोरेट लूट को बढ़ावा देती है. कार्यकर्ताओं ने बिना लफ्फाजी के लोगों के साथ संवाद बनाना सीखा. बातचीत के दौरान वे उस राज्य से कारपोरेट लूट और भ्रष्टाचार के उदाहरण देते, जिस राज्य में वे अभियान को लेकर थे. वे लोगों को राडिया टेपों, पूंजी घरानों, सत्ताधारी कांग्रेस, विपक्षी भाजपा तथा मीडिया की भ्रष्टाचार में भूमिका के बारे में बताते थे.

बगैर अपवाद के उन्हें कहीं भी लोगों के शत्रुतापूर्ण रवैय्ये का सामना नहीं करना पड़ा. यह भी स्पष्ट था क़ि अन्ना के अभियान ने भ्रष्टाचार के सवाल पर लोगों में गहरी दिलचस्पी जगा दी थी, साथ ही सरकार के खिलाफ जमीनी कार्यवाही के प्रति भारी समर्थन भी भ्रष्टाचार विरोधी अभियान को जमीन और संसाधनों की कारपोरेट लूट, पानी, स्वास्थ्य और शिक्षा के निजीकरण, बेरोजगारी और महंगाई, ए एफ एस पी ए और ग्रीन हंट जैसी दमनकारी नीतियों के खिलाफ चल रहे संघर्षों के साथ जोड़ना, बहस-मुबाहिसे के दौरान आसान हो चला था.

हाँ, कैम्पसों और दूसरे इलाकों में विद्यार्थी परिषद् और संघ कार्यकर्ताओं ने अन्ना टोपी लगाकर 'अराजनीतिक' भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन का समर्थक होने का मुखौटा लगाए जरूर दिखे और उन्होंने आइसा और दूसरे जन संगठनों को अपने बैनर और नारों के साथ स्वतन्त्र भ्रष्टाचार विरोधी प्रतिरोध से हरचंद रोकने की कोशिश की. हमने उनका जवाब देते हुए उनसे मांग की क़ि येदुरप्पा और बेल्लारी पर, नितीश सरकार के अधीन BIADA जमीन घोटाले, जिसके चलते फारबिसगंज में गोली चली, पर वे अपना रुख स्पष्ट करें. ऐसा करते ही उनका आवरण तार-तार हो जाता था और उन्हें आन्दोलन के आम समर्थकों से अलगा देना संभव होता था. आन्दोलन में शामिल गैर-संघी लोगों के लिए हमारा नारा 'कांग्रेस-भाजपा दोनों यार, देश बेचने को तैयार!' लोकप्रिय हो जाता था और संघी तत्व अलगाव में पड़ जाते थे.

ऐसे में हम सभी जो इस बात से चिंतित हैं क़ि संघ कहीं अन्ना के आन्दोलन पर सवार होकर आन्दोलन को फासीवादी दिशा न दे दे, उन्हें क्या करना चाहिए? क्या हमें इस बात की सुविधा है क़ि हम सुरक्षित रास्ता लें, पुस्तकालय में घुस जाएँ, उच्च आसन से आंदोलन का विश्लेषण करें, कयामत के दिन की भविष्यवाणी करें ताकि बाद को कह सकें क़ि हमने कहा था न! क्या हमें इसके गुजर जाने का इंतज़ार करना चाहिए? क्या हमें मैदान संघ परिवार के लिए खुला और निर्विरोध छोड़ कर हट जाना चाहिए? या क़ि हमें संघर्ष के मैदान में जाकर आम स्त्री-पुरुषों के साथ सड़कों पर कंधे से कंधा मिलाकर भ्रष्टाचार से लड़ते हुए अपनी पूरी ताकत झोंकते हुए भ्रष्टाचार विरोधी विमर्श को राजनीतिक बनाने की ओर बढना चाहिए?

बाबा रामदेव की औकात बता दी गई और यह संघ के लिए बड़ा भारी झटका था. संघ, अन्ना के नेतृत्व वाले आन्दोलन का फ़ायदा उठाने के लिए ढंके-छिपे तौर तरीकों से प्रयासरत है क्योंकि उन्हें मालूम है क़ि अपनी पहचान के साथ सामने आने पर उन्हें भाजपा के खुद के भ्रष्टाचार- चाहे वह कर्नाटक में हो या गुजरात में या पैसा लेकर सवाल पूछने का मामला हो, इन सब का जवाब देना होगा. प्रगतिशील ताकतों के लिए लोगों के बीच अपनी पहुँच को बढाने का भी यह मौक़ा है, जब लोगों को बेल्लारी और बस्तर की याद दिलाई जा सकती है. मोदी के गढ़ गुजरात में आइसा का अनुभव सबक लेने लायक है. मोदी यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार और दमन के खिलाफ अन्ना के समर्थन में बढ़-चढ़ कर बोलते रहे. आइसा और इंकलाबी नौजवान सभा ने सात सौ छात्रों का भावनगर में एक जुलूस निकाला जिसमें उन्होंने न केवल केंद्र सर्कार बल्कि गुजरात में भ्रष्टाचार, कारपोरेट लूट, फर्जी मुठभेड़ तथा साम्प्रदायिक हिंसा पर पर्दा डालने की मोदी सरकार की कोशिशों के खिलाफ नारे लगाए. मोदी के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के साथ होने के दावे को तार-तार करते हुए पुलिस ने जुलूस पर लाठी-चार्ज किया तथा नेतृत्वकारी कार्यकर्ताओं युनुस जकारिया, जिगनाब राना, सोनल चौहान और फरीदा जकारिया को जेल भेज दिया. अगले ही दिन इन गिरफ्तारियों के खिलाफ भावनगर के इंजीनियरिंग और मेडिकल कालेगों सहित तमाम कालेजों ने आइसा और इंकलाबी नौजवान सभा के आह्वान पर हड़ताल की. पांच हज़ार छात्रों ने स्थानीय प्रशासन के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन कर गिरफ्तार किये गए कार्यकर्ताओं की रिहाई को मजबूर किया. वामपंथी छात्र-युवा संगठनों ने अपने ही झंडे तले पहलकदमी अपने हाथ में ली, जिसके परिणामस्वरूप भ्रष्टाचार विरोधी गुस्से को उन्होंने मोदी सरकार के खिलाफ मोड़ दिया.

यह कांग्रेस थी जिसने पहले-पहल अन्ना के नेतृत्व में चल रहे आन्दोलन पर अनशन के द्वारा संसद को 'ब्लैकमेल' करने, संघ समर्थित, फासीवादी, संविधान विरोधी, लोकतंत्र के लिए खतरनाक होने के आरोप मढ़े. अब इन आरोपों की प्रतिध्वनि न केवल कांग्रेस के समर्थकों में बल्कि कुछ दूसरे असम्भाव्य से लगने वाले हलकों में भी सुनाई पड़ रही है. दो गंभीर व्याख्याकारों ने हाल ही में इस विषय पर तफसील से अपने विचार प्रकट किये हैं. एक हैं प्रभात पटनायक (जो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य हैं) तथा दूसरी हैं अरुंधति राय.

प्रभात पटनायक ने अन्ना के अनशन पर 'संसद पर बंदूक तानने' का आरोप लगाया है. सवाल है क़ि कोई भी अनशन किस बिंदु पर जाकर लोकतांत्रिक नहीं रह जाता? क्या इरोम शर्मिला का अनशन 'ब्लैकमेल' है? या क़ि मजदूरों और छात्रों के आन्दोलनों में समय समय पर किये जाने वाले अनशन 'ब्लैकमेल' हैं? क्या मजदूरों की हडतालों को अनगिनत बार 'ब्लैकमेल' नहीं कहा जाता रहा है? ऐसा क्यों है क़ि अनशन तभी 'ब्लैकमेल' करार दिए जाते हैं जब उन्हें जन समर्थन मिलने लगता है या जब सरकार उनका दबाव महसूस करने को विवश होती है?

प्रभात पटनायक का कहना है क़ि लोगों को विरोध का अधिकार है ताकि वे 'चुने हुए प्रतिनिधियों को अपनी भावना से अवगत करा सकें'. उनका कहना है क़ि लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आज़ादी होती है लेकिन कोई भी अकेली भावना सब पर भारी नहीं पड़ने दी जाती और सब कुछ बहस-मुबाहिसे से तय होता है. क्या सचमुच ऐसा होता है? क्या सेज का क़ानून जोकि भूमि हड़प का दस्तावेज है, संसद में बगैर किसी बहस या आपत्ति के पारित नहीं हो गया? राडिया टेपों ने दिखलाया क़ि किस तरह संसद में क़ानून बनाए जाते हैं और नीतियाँ तय की जाती हैं. कैसे मंत्री, सांसद, विपक्ष के नेता, मुकेश अंबानी या रतन टाटा के हितों की सुरक्षा के लिए काम करते हैं. क्या यह सब निर्णय बहस-मुबाहिसे से लिए जाते हैं? सोचकर बड़ी हंसी आती है.

क्या किसानों, मजदूरों और आदिवासियों को 'संसदीय सर्वोच्चता' के आगे सर झुका देना चाहिए, जब संसद उनके अधिकारों को छीन लेने वाले क़ानून बनाती है? क्या उन्होंने अनेक मौकों पर ऐसे कानूनों की अवज्ञा नहीं की है? क्या जनता के संघर्षों को इतना ही अधिकार है क़ि वे संसद को अपनी 'भावना से अवगत कराएं'? क्या उन्हें यह अधिकार नहीं क़ि वे आवश्यक प्रभावकारी दबाव निर्मित करें ताकि यह सुनिश्चित हो सके क़ि संसद ऐसे सवालों पर उनकी भावनाओं का सम्मान करे जो उनके लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन गए हैं? एक ऐसी परिस्थिति में जब क़ि चुने हुए प्रतिनिधियों और उन्हें चुनने वाली जनता के बीच गहरे तौर पर एक गैर-बराबरी का रिश्ता है, क्या हम अनशन या हड़ताल जैसे तरीकों को 'अलोकतांत्रिक' करार दे सकते हैं?

प्रभात पटनायक कहते हैं क़ि जनता को महज अन्ना की जयजयकार करने वालों तथा समर्थक मात्र बने रहने वालों तक सीमित कर दिया गया है. इसी तरह अरुंधति राय की दलील है क़ि लोग 'खुद को भूखा मार देने की धमकी दे रहे' एक बूढ़े आदमी का नज़ारा देखने वाले 'दर्शक' मात्र रह गए हैं. हममें से कई लोग जंतर-मंतर पर अनशन कर रही मेधा पाटेकर के साथ शामिल हो गए थे. क्या हम भी महज दर्शक थे? क्या यह कहना अहंकार नहीं है कि 'हम जानते हैं कि हम क्या कर रहे हैं, हम प्रबुद्ध हैं, लेकिन ये लोग जो सड़कों पर अभी निकले हुए हैं, वे महज वर्ल्ड कप की ताली बजाऊ भीड़ हैं, मीडिया की पैदा की हुई भेड़ियाधसान हैं जिसे एक गुप्त एजेंडा के हित में बरगलाया गया है'. हमें इस बात से सावधान रहना चाहिए क़ि मीडिया इस आन्दोलन के साथ वही बर्ताव न कर सके जो वह दूसरे अधिकांश आन्दोलनों के साथ करती है. वामपंथी रैलियों में जुटी भारी भीड़ को 'किराए की भीड़' या सिखा-पढ़ा कर जुटाई गई भीड़ कहना अथवा माओवादियों पर भोले-भाले आदिवासियों और किसानों को बरगलाने का आरोप मढना मीडिया की ऐसी ही भंगिमाएं हैं. हमें इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि आम लीगों की भारी संख्या एक भ्रष्ट और दमनकारी सरकार को चुनौती देने और उसका सामना करने में एक नया आत्मविश्वास महसूस कर रही है. जनता की इस लामबंदी की प्रेरक शक्ति अन्ना के प्रति कोई अतार्किक श्रद्धा नहीं है. यह प्रेरक शक्ति सरकार के भ्रष्ट और तानाशाह होने, सरकारी लोकपाल के मसौदे के वाहियात होने में लोगों का दृढ विश्वास है. अधिकांश मीडिया भाले ही जनता को 'जयजयकार' करने वालों के रूप में प्रस्तुत कर रहा हो, हमें अवश्य ही जनता को उसके खुद के मूल्यांकन के आधार पर समझना होगा. पर्चा बांटने, जुलूस निकालने, सत्याग्रह आयोजित कराने, सांसदों और पुलिस बल का सामना करने, गिरफ्तारी देने में जो जनता की पहलकदमी खुली है, हमें उसका आदर करना चाहिए. आन्दोलन में शामिल युवाओं के एक बड़े तबके के लिए यह किसी भी जन कार्यवाही में भाग लेने का पहला अनुभव है. हमें उनके साथ संवाद का रिश्ता कायम करना चाहिए.

प्रभात पटनायक की दलील है कि अन्ना का 'मसीहापन' बुनियादी तौर पर अलोकतांत्रिक है. क्या गांधी द्वारा अपनाई गई रणनीति में मसीहापन के मजबूत तत्व नहीं थे? निस्संदेह 'महात्मा' के रूप में नेता का विचार अपने चरित्र में मसीहाई है. क्या इससे स्वाधीनता संग्राम जिसमें गांधी ने नेतृत्वकारी भूमिका निभाई, 'अलोकतांत्रिक' हो गया? इस तरह की रणनीति की आलोचना करना, यह कहना कि आन्दोलनों को और अधिक लोकतांत्रिक होना चाहिए, कि कोई भी एक नेता पवित्र गाय नहीं है, पूजा की वस्तु नहीं है, यह अलग बात है लेकिन यह कहना कि आन्दोलन लोकतंत्र के लिए खतरा है, अतिशयोक्ति है.

कोई यह याद कर ही सकता है कि नंदीग्राम के सवाल पर विरोध-प्रदर्शन कर रहे कोलकाता के बुद्धिजीवियों पर भी प्रभात पटनायक ने 'मसीहाई नैतिकतावाद' का आरोप मढ़ा था. ये बुद्धिजीवी एक समय माकपा के कट्टर समर्थक थे, लेकिन उन्होंने जमीन हड़पने के खिलाफ आंदोलनरत गरीब किसानों पर पुलिस फायरिंग के खिलाफ अपना विरोध दर्ज कराया था. पश्चिम बंगाल में कोई अन्ना नहीं था. तब वहां 'मसीहा' कौन था- नंदीग्राम या सिंगूर के किसान?

माकपा पोलितब्यूरो के सदस्य सीताराम येचुरी ने कहा है कि 'अन्ना की दलीलें संघ परिवार और भाजपा द्वारा इस्तेमाल की गई दलीलों के समतुल्य हैं जिनके अनुसार उनका कहना था कि भारत की अस्सी फीसदी जनता (हिन्दू जनता) विवादात्मक बाबरी मस्जिद की जगह पर राम मंदिर बनाना चाहती है... क्या संसद को इस मांग के आगे झुक जाना चाहिए?' क्या इस तरह की तुलना जायज है? फासीवाद किसी मांग की राजनीतिक अंतर्वस्तु में निहित होता है या कि हम किसी भी ऐसे आन्दोलन को फासीवादी कह सकते हैं जो संसद पर दबाव डालता हो? आईये इस सवाल को एक भिन्न तरीके से देखें- मान लीजिये कि भाजपा का संसद में पूर्ण बहुमत होता, और वह उसके बल पर अयोध्या में मंदिर निर्माण को बढ़ती. क्या इसे 'संवैधानिक' या 'लोकतांत्रिक' इस लिए कह दिया जाता कि संसद की ऐसी मंशा थी? स्पष्ट है कि मस्जिद गिराया जना और मंदिर अभियान असंवैधानिक थे- इसलिए नहीं कि वे संसद पर गैर-संसदीय दबाव डाल रहे थे, बल्कि इसलिए कि वे बहुसंख्यकवादी वर्चस्व तथा अल्पसंख्यकों के स्वातंत्र्य और अधिकारों को कुचलने की कोशिश कर रहे थे. जन लोकपाल बिल के मसौदे में ऐसा कुछ भी नहीं है जोकि संविधान या अल्पसंख्यकों के अधिकारों को चुनौती देता हो.

सड़क पर उतरे हुए लोग एक कानून की मांग कर रहे हैं जो कि पिछले बयालीस सालों से संसद की सूची में दर्ज है. जनता यह मांग कर रही है कि सरकारी लोकपाल बिल को जनमत द्वारा खारिज किये जाने का संसद आदर करे, और ऐसा कानून पारित करे जोकि जन भावनाओं के अनुरूप एक प्रभावी भ्रष्टाचार विरोधी संस्था का निर्माण करे.

प्रभात पटनायक यह मान कर चले हैं कि जो जनता विरोध में उतरी है, उसे सरकारी बिल और जन लोकपाल बिल के बीच फर्क की बारीकियां पता नहीं हैं. उनका कहना है कि आन्दोलन एक मसीहा पर निर्भर है और उसने तथ्यों के बारे में लोगों को शिक्षित नहीं किया. मेरा मानना है कि तथ्य कुछ और ही कहते हैं. सच तो यह है कि लम्बे समय के बाद पहली बार सामान्य जनता एक कानून के मसौदे की तफसीलों पर इतनी शिद्दत के साथ बहस कर रही है. आन्दोलन के नेताओं ने दोनों बिलों के बीच फर्क की बारीकियों को लोगों तक पहुंचाने के लिए काफी मेहनत की. रामलीला मैदान पर सवाल-जवाब के सत्रों के माध्यम से तथा देश भर में अनेक अन्य आयोजनों के जरिये, वीडियो और इंटरनेट के जरिये उन्होंने यह काम किया है. जन लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करने वालों से पूछे गए सवालों के जवाब धैर्यपूर्वक दिए गए हैं और कुछ आलोचनाओं को भी स्वीकार किया गया है. जरूरी नहीं कि हम जन लोकपाल बिल के हर प्रावधान से सहमत हों, या उसके बारे में बढ़े-चढ़े दावों से, लेकिन यह बहुत बड़ी बात होगी यदि संसद में लाये जाने वाले हरेक विधेयक को इसी तरह जन-निरीक्षण और बहस-मुबाहिसे की प्रक्रिया से गुजरा जाय, जैसा कि लोकपाल विधेयक के मसले में हो रहा है. इन कानून के मसौदों को न केवल राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् और उदारवादी अभिजनों के बीच निरीक्षण और बहस के लिए रखा जाना चाहिए बल्कि आम जनता के बीच भी.

अनेकशः अन्ना द्वारा संसद के सामने समय सीमा रखने के 'अलोकतांत्रिक' व्यवहार की आलोचना की गई किन्तु तथ्य यह है क़ि हमारे अधिकांश सांसदों को अमेरिका द्वारा निश्चित की गई 'समय-सीमा' का पालन करने से कोई गुरेज नहीं था. उदाहरण के लिए परमाण्विक समझौते के मसले पर.

अरुंधति राय ने जन लोकपाल के आन्दोलन की तुलना माओवादी आन्दोलन से करते हुए फरमाया कि उसका उद्देश्य 'भारतीय राजसत्ता को उखाड़ फेंकना' है. आश्चर्य है कि सरकार भी ऐसी ही तुलना करती आयी है. अंतर महज यह है कि अरुंधति के अनुसार सरकार 'खुद अपने आपको उखाड़ फेंकने' की मुहिम में शामिल है.

अगर सरकार वास्तव में इस खेल में शामिल है, अगर अवह खुद को उखाड़ फेंकने में सहयोग कर रहही है, अगर जन लोकपाल उसके कारपोरेट समर्थक एजेंडा और विश्व-बैंक निर्देशित सुधारों के कार्यक्रमों के अनुकूल है, तो क्यों नहीं उसने शुरू में ही जन लोकपाल के मसौदे को स्वीकार कर लिया? अन्ना हजारे को सार्वजनिक रूप से गालियाँ देकर और बाद में गिरफ्तार कर क्यों अपनी हुज्ज़त कराई? क्यों भाजपा भी इस मसौदे का समर्थन करने से अब तक मुंह चुराती रही? क्या जन लोकपाल का अभियान राजसत्ता को उखाड़ फेंकने का अभियान है? या तथ्यतः यह राजसत्ता के प्रति विश्वास की कमी को रोकने का प्रयास है? एक समय था जब न्यायपालिका, राजसत्ता की विश्वसनीयता को बहाल करने वाली संस्था मानी जाती थी. आज यह संस्था लोकपाल है.

अन्ना के अधिकांश आलोचक इस बात पर सहमत हैं कि लोकपाल का सरकारी मसौदा नख-दांत विहीन और कमजोर है. क्या एक प्रभावकारी और स्वतन्त्र लोकपाल का प्रावधान करने वाला कोई भी विधेयक दमनकारी है? क्या टीम अन्ना द्वारा बनाया जन लोकपाल बिल 'सुपर पुलिस' और 'कुलीनतंत्र' के समतुल्य है, जैसा कि उसे अनेकशः बताया जा रहा है? मुझे तो लगता है कि जन लोकपाल के अधिकारों के दायरे में पटवारी और चपरासी से प्रधानमंत्री तक, भ्रष्टाचार के सभी मामलों में जांच करने, निगरानी रखने और दण्डित करने के जो प्रावधान हैं, वे सी बी आई को पहले से ही प्राप्त हैं. दोनों के बीच बड़ा अंतर यह है कि लोकपाल के चयन और क्रिया-कलाप सरकार से अपेक्षया अधिक स्वतन्त्र होगा, और चयन की प्रक्रिया जनता की भागीदारी या हस्तक्षेप की भी इसमें कुछ न कुछ गुंजाईश है. जन लोकपाल के मसौदे में किन्हीं ख़ास धाराओं को हटाने या उनमें परिवर्तन करने अथवा उसके अधिकारों में नियंत्रण और संतुलन की प्रणाली की मांग करना एक बात है लेकिन पूरे मसौदे को ही दमनकारी बताना एकदम दूसरी बात है.

निस्संदेह हमें यह मांग करनी चाहिए कि कारपोरेट जगत, मीडिया, बड़ी फंडिंग वाले एनजीओ और राजनीतिक पार्टियां भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों के दायरे में लाये जाने चाहिए. क्या एक जन लोकपाल अकेले ही भ्रष्टाचार से निपट पायेगा? आज अधिकांश भ्रष्टाचार सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की सह-भागेदारी (पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप) के दायरे का है. लिहाजा वे उपाय जो सार्वजनिक क्षेत्र के भ्रष्टाचार की रोक-थाम के लिए किये जायेंगें, वे सिर्फ आंशिक रूप से प्रभावकारी होंगें. जैसा कि प्रशांत भूषण अक्सर कहा करते हैं कि इस तरह का कानून भ्रष्टाचार के 'आपूर्ति पक्ष' (सप्लाई साइड) को ही संबोधित कर सकता है, लेकिन भ्रष्टाचार का 'मांग पक्ष' (डिमांड साइड) तब भी बना रहेगा, जब तक कि प्राकृतिक संसाधनों और सेवाओं के निजीकरण की नीतियां बनी रहती हैं. एक कानून जो कि सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र में काम करने वालों के भ्रष्टाचार पर ही केन्द्रित है वह इस समस्या का महज आंशिक समाधान ही करता है. वह रामबाण नहीं है. लेकिन क्या यह बात उसे दमनकारी और कारपोरेट हितो के लिए फायदेमंद बनाती है? मुझे ऐसा नहीं लगता. आखिर 'निजी' लुटेरों को 'सार्वजनिक' लुटेरों की जरूरत होती है- टाटा और अंबानी को ए राजा की जरूरत होती है, जिंदल, एस्सार, रियो टिंटो को मधु कोड़ा जैसों की जरूरत होती है. एक कानून जो राजाओं और कोडाओं से निपटने के लिए बने, वह भ्रष्टाचार के रोग के लिए रामबाण भले ही न हो, लेकिन एक अत्यंत आवश्यक उपाय जरूर है.

कुछ अखबार भ्रष्टाचार का इलाज उदारीकरण की बढ़ी हुई खुराक से करने का सुझाव अवश्य ही दे रहे हैं, जैसा क़ि कारपोरेट सेक्टर के विभिन्न स्वर. क्या इसका मतलब यह है कि भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन में जो लोग सड़कों पर उतरे हुए हैं, वे सब उसी शिद्दत के साथ अधिक उदारीकरण की मांग करने लग जायेंगें, जिस शिद्दत से वे जन लोकपाल की मांग कर रहे हैं? संभवतः नहीं. हाल-फिलहाल तक मीडिया ने भावी पीढी को उदारीकरण के उत्साही समर्थकों के बतौर प्रस्तुत किया था. क्या इस आन्दोलन में युवाओं की भागीदारी महंगी शिक्षा और असुरक्षित रोजगार की परिस्थिति में उदारीकरण के वायदों के खिलाफ इनके बढ़ते हुए मोहभंग को सूचित नहीं करती? क्या इस बात के पर्याप्त प्रमाण नहीं हैं क़ि सडको पर उतरे हुए लोगों का गुस्सा महज भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं बल्कि महंगाई और बेरोजगारी के खिलाफ भी है? उनमें से एक बहुत बड़ी संख्या ऊर्जा के निजीकरण के चलते उनके बिजली के बिलों में बढ़ोत्तरी की शिकायत कर रही है, वे महंगाई और बेरोजगारी के खिलाफ शिकायत दर्ज करा रहे हैं. यदि नव-उदारवादी विचारक और कारपोरेट मीडिया रोग को ही निदान बता रहे हैं तब निश्चय ही ज्यादा रेडिकल राजनीतिक ताकतों को इस क्षण आन्दोलन में उतरे लोगों के साथ संवाद बनाने की और भी ज्यादा जरूरत है ताकि भ्रष्टाचार और उदारीकरण के बीच गहरे संबंध को उजागर किया जा सके, ताकि जल-जंगल-जमीन, बिजली, खनिज, स्पेक्ट्रम, गैस, शिक्षा, सड़क, हाईवे, एयरपोर्ट आदि के निजीकरण के जरिये कारपोरेट लूट का भंडाफोड़ किया जा सके.

टीवी चैनल अधिकांशतः आन्दोलन को तो चढ़ा रहे हैं, पर उसमें निहित मुद्दों को दबा रहे हैं. लेकिन इससे पहले कि हम कांस्पिरेसी या षडयंत्र के निष्कर्ष तक पहुंचे, हमें याद रखना चाहिए कि अधिकांश अखबारों ने आन्दोलन के समर्थन की जगह निर्णय लेने की प्रक्रिया में 'संसदीय सर्वोच्चता' को ही अपने सम्पादकीयों में स्थापित किया है. कुछ अपवादों को छोड़कर मीडिया की भूमिका और कवरेज समस्याग्रस्त और चुनिंदा चीजों को ही रेखांकित करने वाली है. उसने कारपोरेट भ्रष्टाचार पर किसी बहस-मुबाहिसे को शायद ही सतह पर आने दिया हो. लेकिन बड़े पैमाने पर जनता की लामबंदी को मीडिया के भड़कावे का परिणाम मानना पूरी तौर पर गलत है. अप्रैल के महीने में कई लोगों ने भविष्यवाणी की, 'पुलिस दमन और गिरफ्तारियों की संभावना का इन्तजार कीजिये, ये भीड़ मिनटों में छंट जायेगी.' इसके उलट अगस्त में लोगों ने बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां दीं. अब कुछ संशयात्मा लोग कह रहे हैं, 'टीवी कैमरे हटा लीजिये, और देखिये कि लोग कैसे छूमंतर हो जाते हैं.' मुझे ऐसा नहीं लगता.

अनिवार्यतः अन्ना के राजनीतिक दर्शन और उनकी सामाजिक दृष्टि को लेकर अनेक सवाल बहस तलब हैं. राजनीतिक और लोकतांत्रिक सवालों- मसलन जाति, साम्प्रदायिकता, राज्य दमन, आर्थिक नीतियां, आदि पर सुसंगतता की मांग हर आन्दोलन से की ही जानी चाहिए. अन्ना के पंद्रह अगस्त के भाषण ने जमीन की कारपोरेट लूट और पुलिस फायरिंग जैसे ज्वलंत सवालों को स्पर्श किया. लेकिन येदुरप्पा और बेल्लारी पर उनकी चुप्पी ज्यादा प्रकट थी. एक भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से निश्चय ही यह अपेक्षा की जाती है कि किसी सवाल पर अगर किसी मुख्यमंत्री को गद्दी छोड़नी पड़ी हो वह भी उस रिपोर्ट के आधार पर जिसे जन लोकपाल बिल बनाने वालों में से एक जस्टिस हेगड़े ने तैयार किया हो तो वह उसका जरूर ही स्वागत करे. भाषण दर भाषण येदुरप्पा और बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं पर चुप्पी और राजा, सिब्बल और कलमाडी जैसों के खिलाफ मुखर होना राजनीतिक अवसरवाद है.

राजनीतिक ताकतों के प्रति ही अन्ना के नेतृत्व वाले समूह का रवैया विरोधाभाषी है. काफी पहले मार्च 2011 में उन्होंने सभी राजनीतिक पार्टियों को आन्दोलन का समर्थन करने के लिए आमंत्रित किया था. लेकिन राजनीतिक कार्यकर्ता उनके मंचों पर हूट किये जाते हैं- भ्रष्टाचार पर उनके रवैय्ये के कारण नहीं, बल्कि सिर्फ उनकी राजनीतिक पहचान के चलते. समाजवादी विचारधारा के एक दल के कार्यकर्ताओं को रामलीला मैदान में इंडिया अगेंस्ट करप्शन के कार्यकर्ताओं द्वारा एक पुस्तिका के वितरण से रोक दिया गया जिसमें भ्रष्टाचार की परिघटना का विश्लेषण किया गया था. विडम्बना यह है कि इस पुस्तिका का लोकार्पण प्रशांत भूषण ने किया था. दूसरी ओर तमाम तरह के दक्षिणपंथी समूह न केवल खुले तौर पर अपना साहित्य वितरित कर रहे हैं बल्कि उन्हें मंच पर भी जगह मिल रही है- अनेक प्रकार के गैर-राजनीतिक आवरण 'राजनीति धोखा है' जैसी अराजनीतिक विचारधारा पर अन्ना का एकाधिकार नहीं है. दूसरे अनेक समूह हैं जो 'जन आन्दोलनों' को अराजनीतिक बताते हैं. हम इस परभाषा को स्वीकार नहीं कर सकते लेकिन सड़कों पर जनता के बीच उतरे बगैर हम इस विचार से प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते, और न इसे चुनौती दे सकते हैं.

हममें से तमाम लोग, जिनके पास भ्रष्टाचार या संगठित राजनीतिक आन्दोलन का राजनीतिक विश्लेषण है, उनके लिए अन्ना आन्दोलन ऐसा नहीं है जिसके साथ आसान, सुविधाजनक, निरपेक्ष एकजुटता या समर्थन संभव हो. एकता और संघर्ष, उसके भीतर कार्यरत अन्य राजनीतिक शक्तियों के साथ प्रतिस्पर्धा की जरूरत हैं, लेकिन क्या अधिकांश बड़े आन्दोलन आमतौर पर उबड़-खाबड़ और अस्त-व्यस्त नहीं होते? क्या उनमें एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करती ताकतें नहीं होतीं? तहरीर चौक का आन्दोलन ऐसा ही था. जेपी आन्दोलन निश्चय ही ऐसा था. भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन भले ही तहरीर चौक या जेपी आन्दोलन (जिनका केन्द्रीय मुद्दा लोकतंत्र था) जितना महत्वपूर्ण न हो, लेकिन 'लोकपाल' के लिए आन्दोलन में उतरी जनता के लिए 'लोकतंत्र' का सवाल (जिसमें विरोध का अधिकार तथा जन आकांक्षाओं के मुताबिक़ संसद में कानून बनाने को सुनिश्चित करना शामिल है) प्रभावी हो चला है. हव्वा खड़ा करने की जगह हमें आन्दोलन के बीचो-बीच होना चाहिए और वास्तविक चुनौतियों और खतरों का मुकाबला करना चाहिए. हमें 'भ्रष्टाचार' और 'लोकतंत्र' की परिभाषाओं को विस्तारित करने की जरूरत है.

क्या भारतीय राजसत्ता के लिए संकट और उथल-पुथल का यह समय फासीवादी दिशा ले सकता है? निस्संदेह ऐसा हो सकता है. लेकिन क्या वामपंथी और प्रगतिशील ताकतें इस संकट के फासीवादी समाधान को अनिवार्य नियति के तौर पर स्वीकार करते हुए विरोध करने वाले लोगों को 'प्राक-आधुनिक' कहकर उनका अवमूल्यन कर सकती हैं? क्या हम विरोध कर रहे लोगों के बीच 'संसद की सर्वोच्चता' का प्रचार कर शासक वर्ग के साथ बिरादराना कायम कर सकते हैं? क्या इसकी जगह हमें भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों की भावना और संकल्प का स्वागत नहीं करना चाहिए? ऐसा करते हुए क्या हमें शुद्ध कानूनी लड़ाई जो क़ि भ्रष्टाचार के नीतिगत आधारों पर चुप है, उसके आगे का रास्ता प्रशस्त नहीं करना चाहिए? अपने राजनीतिक झंडों को झुकाकर और 'अराजनीतिक' दिखने के दबाव के आगे घुटने टेकने की जगह, यह समय है क़ि हम साहसपूर्वक सड़कों पर उतरें और विरोध में उमड़ी जनता के साथ भ्रष्टाचार के बारे में अपनी राजनीतिक समझ के आधार पर संवाद कायम करें.

इधर अन्ना के अनशन को इरोम के अनशन से तुलना कर अलगाने का फैशन बढ़ चला है. समाचार लेकिन यह है कि इरोम ने अन्ना के साथी अखिल गोगोई के आमंतरण के जवाब में अन्ना के "आश्चर्यजनक धर्मयुद्ध" का गर्मजोशी से समर्थन किया है, इरोम ने इंगित किया क़ि जहां अन्ना को अहिंसक तरीके से विरोध करने की स्वतंत्रता मिली, वाहें उन्हें यह स्वतंत्रता नहीं दी गई. इरोम ने अन्ना से अपनी रिहाई के लिए काम करने की अपील की और उन्हें मणिपुर की यात्रा का निमंत्रण दिया. क्या यह संभव नहीं कि हम इरोम की परिपक्वता से हम कोई सबक लें.

(समकालीन जनमत से साभार.)

2 comments:

Pratibha Katiyar said...

Behad jaroori aalekh.

Unknown said...

बिहारी नहीं जाट हैं- अन्ना हजारे के साथ हैं!
ये अन्दर की बात है- दिल्ली पुलिस हमारे साथ है!
१२ बोतल पेप्सी- सोनिया गांधी सेक्सी
ये नारे आंदोलनी भीड़ के हैं और इनकी आवाज़ मंच तक भी जा रही थी लेकिन इनका विरोध नहीं किया गया.
जिसका अंदेशा था वही हुआ, इस अनशन से गोलबंद हुयी भीड़ को भड़काने के लिए अब एक और रथयात्रा की घोषणा भी हो चुकी है.
हाँ कविता कृष्णन इरोम का अन्ना को जवाब भी देख लेतीं तो पार्टी लाइन के मज़बूरी को छोड़ तथ्य तो सही हो ही जाते.