शम्भू राणा का लाजवाब गद्य आप कबाड़ख़ाने में एकाधिक बार पढ़ चुके हैं. पूना से बागेश्वर तक का लम्बा सफ़र एक सड़ियल मारुति में किए जाने का उनका लम्बा संस्मरण खासा पसन्द किया गया था. आज उनका एक और संस्मरण पढ़िए.
फ़िल्मों की बहार उर्फ़ जाने कहां गए वो दिन
शम्भू राणा
जिस तरह पुराने हीरो अब हीरो नहीं रहे, एक दम ज़ीरो हो गए हैं या दादा-नाना बनकर खंखार रहे हैं, उसी तरह अपने शहर के दो सिनेमाघरों में भी एक वीरान पड़ा है तो दूसरा मॉल बन गया है. अपने को पुराने अभिनेताओं से भला क्या हमदर्दी? मगर उनके छायाचित्रों की क्रीड़ास्थली सिनेमाघरों की हालत पर खुल्लम-खुल्ला अफ़सोस है क्योंकि उनके साथ कई यादें वाबस्ता हैं.
सिनेमा हॉल में पहली बार मेरा पदार्पण यही कोई १२-१४ वर्ष की उम्र में हुआ होगा. ज़िन्दगी में जो पहली फ़िल्म देखी थी उसका नाम था - गरम खून. फिर धीरे-धीरे सिलसिला चल पड़ा और लत सी लग गई जो सिनेमा हॉल बन्द होने तक लगी ही रही.
क्या-क्या जतन करते थे सिनेमा देखने के लिए. चोरी, ठगी से लेकर कबाड़ बीनने तक. एक बार तो हद कर दी - हमारे लिए कोई हद वाली बात इसमें नहीं, सुनने वालों के लिए हो तो हो - हम दो-तीन दोस्त यूं ही टहल रहे थे. इत्तफ़ाक़न सिनेमा हॉल कके आसपास और इत्तफ़ाक़न ही पिक्चर का पहला शो शुरू होने वाला था. अब यह भी संयोग ही था कि एक कुष्ठ पीड़ित महिला वहीं सड़क पर अपना डब्बा लिए बैठी थी. हमें उसका मांगने का अन्दाज़ पसन्द था. वह एक स्वाभाविक मुस्कराहट के साथ बातें किया करती, जिसमें दीन-हीनता न के बराबर हुआ करती थी. उसे सिर्फ़ आपके सिक्कों में दिलचस्पी नहीं थी. वह लोगों से घर के हालचाल, स्वास्थ्य वगैरह भी पूछती थी. एक तरह का ममत्व था उसमें. बस इसी नाते हमारा उससे परिचय था. उस दिन भी उसने हमें पुकारा. मैंने कह दिया कि आज तो हमारे पास कुछ नहीं है. हो सके तो तुम हमें कुछ दे दो. उसने कहा - लला, मैंने तो ज़िन्दगी भर मांगा ही मांगा, भाग ही ऐसे ठहरे. दिया किसी को नहीं. आज मौक़ा है, बोलो कितने दूं .... उसने बोरे की तहें टटोलना शुरू किया. हमने तीन लोगों के सिनेमा और चाय के पैसे ले लिए इस शर्त पर कि दो-तीन दिन में वापस कर देंगे कुछ बढ़ा के.
एक दिन मेरा एक दोस्त और मैं पिक्चर के ही जुगाड़ में चार-छः पव्वे-अद्धे लिए कबाड़ी के पास जा रहे थे. रास्ते में एक जगह टेलीफ़ोन के खम्भे पर मैकेनिक चढ़ा बैठा था और समस्या के समाधान में बुरी तरह उलझा हुआ था. मेरे दोस्त ने नीचे पड़ी उसकी प्लास्टिक की चप्पलें झोले में डाल लीं. गर्मियों के दिन थे. कबाड़ी को दुकान में बैठे-बैठे झपकी आ गई थी. उस माई के लाल ने कबाड़ी के माल से भी दो-तीन पव्वे झोले में रखे तब कबाड़ी को जगाया. अफ़सोस कि ऐसी प्रचंड प्रतिभा का धनी वह किशोर उचित वातावरण न मिल पाने के कारण आगे चल कर कोई नामी चोर नहीं बन पाया. वर्ना मन्त्री न सही मन्त्री की नाक का बाल तो तब भी होता.
(जारी)
4 comments:
जय हो, वाह री किस्मत।
शम्भू राणा जी...
कहाँ गए वो दिन... पढ़ कर एक ही शब्द मुंह से निकला "वाह"
आगे कहानी खिस्काइये और बताइयेगा कि वो प्रतिभा संम्पन मित्र आजकल क्या कर रहे हैं. :)
फिलिम तो कहीं बी देख ही लेंगे बाबू जी, पहिले ई तो पूरा पढ़ाइये.
बाबू जी, लगता है फिलिम तो आप हॉल फुल होने पर ही दिखायेंगे. पन इसी बीच अपुन दोबरा पूना से बागेश्वर हो आये हैं...
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