इस महादेश का वृत्त चित्र :
सिद्धेश्वर की ये कविताएं आप को एक एसेंशियल यायावरी पर ले जाती हैं . यह यायावरी कर्मनाशा और तमसा के घाटों से ले कर कौसानी और शिमला की पहाड़ियों तक चलती है. इस यायावरी मे आप हिमालय की तराईयों ले कर विध्याँचल के पार तक पहुँच जाते हैं.... बल्कि ट्राँस हिमालय के अकूत- अकथ तिलिस्म तक का आस्वाद ले लेते हैं . ये कविताऎं आप को बेचैन नहीं करती न ही कोई आध्यात्मिक क़िस्म की सांत्वनाएं देती हैं बल्कि स्टेप बाई स्टेप आप की आँखें खोलती हैं , चीज़ों को देखने का शऊर देती हैं. इस यात्रा मे आप के अन्दर उत्तरोत्तर एक समझ पकती है जो आप की तिलमिलाहट और खीझ को डाईल्यूट कर के आप को एक ठोस कौतूहल और एक सकारात्मक विस्मय सौंपती है जो आज जीवन मे नदारद है . अँधेरा इस यात्रा का स्थायी भाव है. जहाँ अँधेरा नही है, वहाँ धुँधलका तो है ही और बार बार यह धुँधलका छँटता है, कभी चकाचौँध की स्थिति भी आती है . उस कौँध मे आप को कुछ ऐसे ‘लोकेल’ मिलेंगे जिन से आप का सामना अक्सर ही होता रहा होगा , लेकिन आप की असावधान आखों ने जिन्हे बेतरह “मिस” कर दिया होगा . यही कारण है कि यह यायावरी एक पर्यटक की यायावरी क़तई नही है. सिद्धेश्वर का कवि इस पूरी यात्रा मे एक सहज साधारण आम आदमी की नज़र से चीज़ों को देखता हुआ ; कभी अचम्भित, कभी प्रफुल्लित और कभी आहत होता हुआ ; कहीं एक दम उस लोकेल मे घुल मिल जाता हुआ और कहीं सहसा कट कर उस मे ‘छूट’ सा जाता हुआ चलता है........ बड़ी बात यह है कि साथ ही साथ बहुत ज़रूरी टिप्पणियाँ करता चलता है . उस से भी बड़ी बात यह है कि इन टिप्पणियों मे न तो बड़े बड़े दावे हैं, न ही कोई बड़ा नारा. इन कविताओं को पढ़ कर पता चलता है कि सिद्धेश्वर एक सजग और बहुश्रुत कवि हैं. लेकिन कहीं भी कविता पर अपनी विद्वता को हावी नही होने देते और न ही स्थानिक या वैश्विक उथल पुथल और मारा मारी के प्रति अपनी सजगता को अपनी कविता का मुद्दा बनाते हैं . बल्कि इस सब के प्रति वे बहुत *कूल*, स्थिर और परिपक्वता पूर्ण तरीक़े से रिएक्ट करते हैं .
इस कवि की चेतना मे पंजाब का कवि पाश एक विचार की तरह बैठा दिखाई देता है . उसे पता है कि , “बीच का कोई रास्ता नही है” लेकिन इस बात को ले कर बहुत शोर मचाने की बजाय उसे चुपचाप अपना काम करते रहना पसन्द है . हालाँकि अंत मे अपने कथित काम के औचित्य पर सवाल खड़ा करना भी नही भूलता . यह कवि बड़ी उत्सुकता से बौद्धिक गोष्ठियों के सभागारों के बिम्ब खींचता है जहाँ के नीम अँधियारे से लौटते हुए दो ज़रूरी शब्द नोट करना कभी नही भूलता – “उम्मीद” , और “कविता” ! जब किसी कस्बे के चौराहे पर धुँधलका देख ठिठक कर स्कूटर रोकता है तो पूरे बाज़ार की पड़्ताल कर डालता है. वह् बाज़ार मे बिकती इमरतियाँ , जलेबियाँ ,मूँगफलियाँ , काठ के हस्तशिल्प , यहाँ तक कि रेहड़ियों और फड़ों के अँधेरे का फायदा उठा कर फल सब्ज़ियों मे सेंध मारने वाले कीड़े भी देख लेता है . एक उदास उजाड़ रेलवे स्टेशन इस यात्रा मे बार बार आता है – एक सपने की तरह ; और कवि इस के चित्र बनाने मे खूब रमता है. इस के अलावा इस कवि के सपनो मे बहुत कुछ आता है— काफल , आड़ू , सेब , खुमानी , रस्सों के पुल , सीढ़ीदार खेत , और स्कूल जाते बच्चों के बीच कभी अचानक मुक्तिबोध दिखाई दे जाते है – तेंदु पत्तों के गोदाम के बाहर सीढ़ियों पर बीड़ी पीते हुए !
इस यात्रा मे सुदूर दक्कन के अलवार भक्तों से ले कर जंगल को कलम बना देने वाले कबीर तक से आप की मुलाक़ात हो जाएगी . निराला की ‘पत्थर तोड़ती स्त्री’ और निर्मल वर्मा के ‘वे दिन’ भी नज़र आएंगे . पर्वतों पर सोना उडेलते कवि पंत मिल जाएंगे . वली दक्कनी का अपमानित तिरस्कृत भग्न मज़ार भी दिख जाएगा और अपने निखालिस प्रकाश मे सराबोर आधुनिक कवि वेणुगोपाल और उन को इस विशेषण के साथ स्मरण करने वाले वीरेन डंगवाल भी . लेकिन परम्परा यहाँ जड़ हो कर स्थिर नही हो गई है. यह कवि परम्परा से अभिभूत हो कर बैठ नही गया है. वह तो जैसे अपने तमाम प्रिय साहित्यिकों के काम मे कुछ नया जोड़ लेना चाहता है . मसलन पत्थर तोड़ती स्त्री के बारे कवि कहता है कि वो अब भी वहीं है, लेकिन एक अंतर आ गया है जिसे अनदेखा नही किया जा सकता :
“ धीरे - धीरे
ऊपर उठ रहे हैं उसके नत नयन
और समूचे इलाहाबाद को दो फाँक करते हुए
कहीं दूर देख रहे हैं।
अपने खुरदरे हाथों के जोर से
वह कूट - पीस कर एक कर देना चाहती है
दुनिया के तमाम छोटे - बड़े पत्थर”
यह कवि जितनी बारीक़ी से “भाषा के गोदामों” को खंगालता है उतनी ही शिद्दत से भूगोल के कंटुअर भी जाँच लेता है. और वो कंटुअर जब संघर्षशील आदमी की खुर्दुरी हथेलियों के हों तो कविता सहज ही समय के पार जा कर अपनी बुलन्दी अख्तियार कर लेती है :
“हथेलियों में कई तरह की नदियाँ होती हैं
कुछ उफनती
कुछ शान्त - मंथर - स्थिर
और कुछ सूखी रेत से भरपूर.
कभी इन्हीं पर चलती होंगीं पालदार नावें
और सतह पर उतराता होगा सिवार.
हथेलियों के किनार नहीं बसते नगर - महानगर
और न ही लगता है कुम्भ - अर्धकुम्भ या सिंहस्थ
बस समय के थपेड़ों से टूटते हैं कगार
और टीलों की तरह उभर आते हैं घठ्ठे”
इस तरह इन कविताओं का यायावर एक साथ भाषा,विचार , इतिहास और भूगोल के दरमियान विचरण करता है और सहज ही आप को भी इन तमाम सीमाओं के पार ले जाता है.मानो इस महादेश और उस के जन को , और उस के सच को , स्वप्नो को, उम्मीदों को बहुत क़रीब से दिखा देना चाहता हों . आप ज़रूर देखना चाहेंगे सिद्धेश्वर की आँखों से !!
- अजेय
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कविता संग्रह : कर्मनाशाकवि : सिद्धेश्वर सिंह
प्रकाशक : अंतिका प्रकाशन
सी-56/यूजीएफ-4, शालीमार गार्डन, एकसटेंशन-II, गाजियाबाद-201005 (उ.प्र.)
फोन : 0120-2648212 मोबाइल नं.9871856053
ई-मेल: antika.prakashan@antika-prakashan.com, antika56@gmail.com
मूल्य : रु. 225
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4 comments:
कविता-संग्रह के लिये सिद्धेश्वर्जी को बधाई!
भाई अजेय
आपने बहुत बारीकी से सिद्धेश्वर की कविताओं को परखा है । आप दोनों को बधाई ।
itne achchhe varnan se to padhne ka man kar gaya
भाई को बधाई
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