खुदा कसम, तुम्हारी बेहद याद आती है । तुम उसी मुसाफिर की तरह हो जिसके बारे में अक्सर बात करते हैं मैं और मेरी यादें । कई शामें गुजर गयी उसके बाद आँखों में नमी लिए । अम्मा की बातें जो सच होती थी, नानी की बातें जिनमे परियां अक्सर डेरा डालती थी, जादू के खिलौने में इस तरह के कई कोनों से तुमने मिलाया था । हाथों की लकीरों में बसा लेने का अनुरोध, या आँखों के समंदर में उतर जाने की गुजारिश, तुम्हारे बगैर नामुमकिन होती । काँटों से ही सही, इस गुलशन की जीनत हो । कोई चिट्ठी, कोई सन्देश उस देश से भेजो न, जानता हूँ कि पहला ख़त लिखने में वक़्त तो लगता है । मैं बेहद अकेला हूँ धुंध में ।
5 comments:
सार्थक पोस्ट , आभार
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शब्दों के पालने में सजे गीत..
जादू - शब्दों और आवाज का
जगजीत जी की यादों को पेश करने का नया अंदाज बहुत अच्छा लगा।
शब्द और तरन्नुम को जब से समझा है तब से जगजीत जी का फैन हूं । आप किस तरह पोस्ट करते हैं अगर बता देंगे तो मैं भी कुछ अनसुना सा आप तक पहुंचा सकता हूं,बताइयेगा प्लीज़ ।
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