Thursday, February 23, 2012

इश्क़ में रहज़न-ओ-रहबर नहीं देखे जाते


शायरी के हैदराबादी स्कूल से ताल्लुक रखने वाले अली अहमद जलीली साहब के वालिद फ़साहत जंग जलीली भी खासे बड़े शायर थे. अली अहमद जलीली को आधुनिक उर्दू शायरी में इस वजह से भी एक अलग जगह हासिल है कि उन्होंने अपनी ज़्यादातर रचनाओं में रोजमर्रा की जिंदगी और उसमें खटते इंसान की जद्दोजहद को सबसे बड़ी जगह डी.

अपनी शायरी को डिफ़ाइन करते हुए उन्होंने एक जगह लिखा है -

मौज-ए-खूँ में कलम डुबो लेना
य अली जब गज़ल लिखा करना.


बेगम अख्तर की गाई एक और मशहूर गज़ल पेश है. कलाम इन्ही जनाब अली अहमद जलीली का है.



अब छलकते हुए सागर नहीं देखे जाते
तौबा के बाद ये मंज़र नहीं देखे जाते

मस्त कर के मुझे, औरों को लगा मुंह साक़ी
ये करम होश में रह कर नहीं देखे जाते

साथ हर एक को इस राह में चलना होगा
इश्क़ में रहज़न-ओ-रहबर नहीं देखे जाते

हम ने देखा है ज़माने का बदलना लेकिन
उन के बदले हुए तेवर नहीं देखे जाते

2 comments:

Arvind Mishra said...

क्या खूब, याद आयी कोई हरजाई :)

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत खूब..