पत्रिका नया पथ के जुलाई-सितंबर, 2011 अंक में महबूब शायर मजाज़ (१९ अक्टूतबर, १९११ - ५ दिसंबर, १९५५) पर उन की बहन हमीदा सालिम का एक अविस्मरणीय संस्मरण छपा है. वहीं से इसे साभार पेश कर रहा हूँ.
बडे भाई मजाज़ - १
आपा के बाद जग्गन भइया थे, यानी असरारुल हक़ 'मजाज़'. वे १९ अक्टूबर १९११ ई. में मुबारक-सलामत की सदाओं के दरम्यान नबीख़ाने की सहदरी में पैदा हुए. उनसे डेढ़-दो साल बड़ा बच्चा ख़त्म हो चुका था, इसलिए बहुत ही मन्नतों-मुरादों से पाले गये. मोहर्रम की सातवीं को फ़क़ीर बनाये जाते, फिर दसवीं को पायक. एक कान में मन्नत का बुंदा डाला गया, जो सात साल की उम्र में अजमेर जाकर उतारा गया. छींक भी आ जाती तो सदक़े उतरते. नौ साल के हुए थे कि जवान भाई का नागहानी इंतिक़ाल हो गया. घर पर क़यामत टूट पड़ी. माँ और नानी दीवानगी की हद तक उनके तहफ़्फ़ुज़ में लग गयीं. मजाल था कि बेटा अकेले घर से बाहर क़दम निकाले. एक नौकर साये की तरह साथ रहता था. बाहर जाते तो वापसी तक माँ की आँखें दरवाज़े पर होतीं. कोई सुबह ऐसी न गुज़रती कि माँ ने उनकी जिंदगी के लिए दो रकअत शुक्राने के न पढ़े हों. होने को तो दो बेटे थे- इसरार भाई और अंसार भाई, माँ की ममता सब ही के लिए होती है. लेकिन इसरार भाई के साथ उनकी वाबस्तगी ममता की हदों को भी पार कर गयी थी. ऐसा लगता था वही कायनात का मेहवर हैं. ये तो उनकी अपनी ज़ाती कशिश थी, वरना हम सब में रक़ाबत का जज़्बा पैदा होना नागुज़ीर था. माँ ने उनकी परवरिश में कितनी रातें जागकर गुज़ार दीं, इसका अंदाज़ा यूँ हो सकता है कि उनकी उर्फि़यत जग्गन होने की वजह तस्मिया ये थी कि रात को ख़ुद जागते थे और माँ को भी जगाते थे, जिंदगी की यह इज़तिराबी कैफि़यत शायद कुछ ऐसी फितरी खुसूसियत थी, जो जिंदगी की आखि़री साँस तक उनके साथ रही. इसरार भाई और आपा की उम्र में काफ़ी फ़ासला था. उन दोनों के दरम्यान ख़ुर्दी-बुज़ुर्गी का रिश्ता था. मैं बहुत छोटी थी, लिहाज़ा मेरी तरफ़ मोहब्बत और शफ़क़त का रवैया. अलबत्ता बीच के तीन इसरार भाई, अंसार भाई और सफि़या आपा ऊपरतले के थे. उन तीनों में छीन-झपट, छेड़-छाड़ और कभी-कभी मारपीट की भी नौबत आ जाती थी. हर वक़्त माँ के सामने उन तीनों के मुक़दमे पेश होने पर फ़ैसला इसरार भाई के हक़ में होता. अगर मामला अब्बा के सामने पेश होता तो सिर्फ़ वो ही थे जो ग़ैर-जानिबदार रहते थे. इसरार भाई ने अब्बा के साथ हमेशा रिवायती अदब व लिहाज़ रखा. उनके सामने कभी सिगरेट न पी. यहाँ तक कि तरन्नुम के साथ कलाम सुनाने से भी गुरेज़ करते थे.
इसरार भाई बचपन से शोख़ व शरीर और ज़हीन थे. खेलकूद में आगे, उधमबाजी में मुमताज़, शरारत और शोख़ी के साथ-साथ तबीयत में एक तरह की सादगी और मासूयिमत भी थी, साथ ही साथ लाउबालीपन भी. हमारे एक चचा उन्हें सिड़ी और सनकी के नामों से मुख़ातिब करते थे. ज़मींदाराना माहौल में जो ऊँच-नीच का माहौल था, उससे वे बिलकुल बेनियाज़ थे. घर के काम करने वाले लड़कों के साथ उनका गहरा याराना था. गुल्ली-डंडे के दौर से निकले तो हॉकी और क्रिकेट के अच्छे खिलाड़ी रहे. अगरचे घर के लातादाद पलंग उनकी लाँग जंप और हाई जंप की नज़्र हुए तो दूसरी तरफ, शतरंज जैसे दिमाग़ लगाने वाले खेल में भी माहिर थे. कैरमबोर्ड की गोटों का दमभर में सफ़ाया हो जाता था और हम मुँह फाड़े देखते रह जाते थे. हर तफ़रीह से दिलचस्पी, हर खेल में माहिर, किसे मालूम था कि जिंदगी के सबसे अहम खेल में, जहाँ दिल की बाज़ी लगती है, ऐसी मात खायेंगे, ऐसी चोट खायेंगे कि चकनाचूर होकर रह जायेंगे. कि़स्मत को क्या कहिए, मोहब्बत के मैदान में क़दम बढ़ाया तो उस मैदान की तरफ़ जहाँ दाखि़ला ममनूअ था. नज़र उठायी तो ऐसी हस्ती की तरफ़ जिसको पाना नामुमकिन!
आज भी आसमान पर बादल देखकर अपने बचपन का सावन याद आ जाता है. क़स्बाती जिंदगी में बरसात का यह महीना हम लड़कियों के लिए बहुत अहमियत रखता था. हमारी सावन की तैयारी बहुत पहले से शुरू हो जाती थी. लाल और हरी चुंदरियाँ रंगरेज़ों से रंगवाई जाती थीं. मनिहारनें रंग-बिरंगे शाहाने टोकरियों में सजाकर घर पहुँचती थीं. घर-घर झूले पड़ते थे, पकवान तले जाते. लड़के-लड़कियों के साथ बुज़ुर्ग भी बहैसियत तमाशाई उस तफ़रीह में शरीक होते. हमारे घर में भी सावन बहुत ज़ोर-शोर से मनाया जाता था. इंतिज़ामात में इसरार भाई मय अपने दोस्तों के आगे-आगे होते. कोठरियों से झूले का तख़्ता निकालना, मोटी रस्सी दस्तयाब करना और कुएं के पास नीम के दरख़्त में झूला डालना उन्हीं की जि़म्मेदारी थी. मुआवजे़ में हम लड़कियों को उनको और उनके साथियों को पींगों का हक़ देना होता था. ये पींगें ऊँची से ऊँचीतर होती जातीं और हमारे बेसुरे सावन गीत भयानक चीख़ों में तबदील हो जाते, साथ-साथ पींगें मारने वालों के फ़लक़-शिगाफ़ क़हक़हे. ये शोर उस वक़्त रुकता जब कोई बुज़ुर्ग बाहर निकलकर डाँट-डपटकर हालात को क़ाबू में लाता. हम हंडकुल्हियाँ पकाते तो मिठास चखने के बहाने हमारी मीठे चावलों की हांडी आधी से ज़्यादा ख़ाली हो जाती. हमारी गुडिया और गुड्डे की शादी में वे क़ाज़ी का रोल अख्ति यार कर लेते. ‘गाजर, मूली, गोभी का फूल बोल गुडि़या तुझे निकाह क़बूल’ कहते-कहते हमारी लाड़ली गुडि़या की चोटी उनके हाथ में होती और वह ग़रीब उनके हाथ में नाचती नज़र आती. हम उनसे रूठते भी भला कैसे, अपना ही नुकसान था. हंडकुल्हियों के लिए गुड़, चावल, अनाज की कोठरियों से और गुडि़या के कपड़ों के लिए कतरनें माँ की ऊँची कारनिसों पर रखी हुई बुग़चियों से हम तक उन्हीं की मदद से पहुँचती थीं.
शरीर से बेख़बर होने के साथ-साथ पढ़ाई में भी बहुत तेज़ थे. हिसाब में होशियार, लिखाई मोती जैसी साफ़ सुथरी, ड्राइंग बहुत अच्छी, मिनटों में हम बच्चों के लिए सादा काग़ज़ पर पेंसिल की मदद से सुबुक-रफ़्तार घोड़ा और माइल-ब परवाज़ चिड़िया तैयार हो जाती थी. हमेशा अच्छे तालिबेइल्मों में शुमार हुआ. इब्तिदाई तालीम रुदौली के मख़दूमिया और लखनऊ के अमीनाबाद स्कूल में हुई. हाई स्कूल में फ़र्स्टम क्लास लाये. पढ़ने के साथ-साथ पढ़ाने का भी सलीका़ रखते थे. मुझ जैसे बदशौक़ इनसान को, जिसका मौलवी साहब के चाँटे के बाद पढ़ाई से बिलकुल दिल उठ गया हो, राह पर लाना उन्हीं का काम था. जाने यह हम दोनों के दरम्यान जज़्बाती बंधन की देन थी या उनका पढ़ाने का ढंग, कि मैं पढ़ाई जैसे खुश्क मशग़ले की तरफ़ फिर माइल हो सकी. उर्दू, अंग्रेज़ी, हिसाब सब ही कुछ तो उन्होंने मुझे पढ़ाया. मेरी पढ़ाई की बागडोर अगर उन्होंने अपने हाथ में न ली होती तो जाने मेरी जिंदगी किस राह पर होती. ख़ानदान की अपनी दूसरी हमउम्र लड़कियों की तरह घर की महदूद दुनिया में घुटी-घुटी सी जिंदगी मैं गुज़ार रही होती. सफि़या आपा भी उनसे हिसाब और अंग्रेज़़ी में कभी-कभी मदद लेती थीं, लेकिन ख़ात्मा बहसोमुबाहिसे पर होता था. रुझान और दिलचस्पियों के लिहाज़ से सफि़या आपा उनसे बहुत क़रीब थीं, लेकिन महज इस वजह से कि वो लड़की हैं, उनके दबाव में आने पर अपने को रज़ामंद नहीं कर पाती थीं. उन दोनों की लड़ाइयों में डाँट बेचारी सफि़या आपा ही को सुननी पड़ती थी. कहने को तो ये कहा जाता था कि छोटी हो, लेकिन यह बात भी दबी-छुपी नहीं रखी जाती कि तुम लड़की हो. उस माहौल में भला लड़की और लड़के का क्या मुक़ाबला, वह भी जग्गन भइया जैसी लाड़ली औलाद से.
इसरार भाई ने हम बहनों का साथ हर मोड़ पर दिया और हर आड़े-तिरछे मौके़ पर काम आये. लड़कियाँ सोलह-सतरह साल की हो जायें और उनके हाथ पीले न हों तो ऐसा लगता था जैसे पूरा कुनबा ही उस ग़रीब के बोझ से दबा हुआ हो. बड़े के नाते साफि़या आपा ही उस मुसीबत का शिकार रहीं. उल्टा-सीधा कोई भी रिश्ता आता, ख़्वाह तहसीलदार हो, ख़्वाह लंबा-तड़ंगा थानेदार, माँ और मश्विरेका रिश्तेदारों की ख़्वाहिश होती थी कि फ़र्ज़ से अदायगी हो ही जाये तो बेहतर. हमारे ये भाई ही आड़े आते, माँ को रिश्ते की नामौजूनियत का अहसास दिलाते. जब भाई अख़्तर की तरफ़ से पयाम आया तो उन्होंने रिश्ते की मुनासिबत की हिमायत की. वे सफि़या आपा की ख़्वाहिश से बाख़बर थे. इसके बावजूद, मुझे याद है, उन्होंने सफि़या आपा से कहा था, ‘मिज़ाज बहुत जिन्नाती है, सोच लो.’ मुझे यक़ीन है कि वे भाई अख़्तर की जिंदगी की पेचीदगियों, फ़ातिमा बहन के साथ उनके ताल्लुक़ात से ज़रूर वाकि़फ़ रहे होंगे. आखि़र को वो भाई अख़्तर के क़रीबी दोस्त थे, लेकिन सफि़या आपा के फ़ैसले और ख़्वाहिश का एहतराम करते हुए उन्होंने इस बात की भनक हम लोगों के कानों तक नहीं पहुँचने दी. माँ-बाप पर बेटी कितनी भी भारी क्यों न हो, इतनी दूभर भी नहीं होती कि वे उसे जानते-बूझते, बक़ौल भाई अख़्तर की रिश्ते की एक बहन के, उसे जि़ंदा मक्खी निगलने देते. सफि़या आपा को एक और दिल तोड़नेवाली आज़माइश का सामना करना पड़ता. मेरी शादी के सिलसिले में भी बज़ाहिर एक छोटा-सा ही वाक़आ है. लेकिन इसरार भाई की शख्सिमयत का एक अहम सबूत. एक ऐसे मुतवस्सित घराने के माहौल का ख़याल करिए, जो नयी क़द्रों की तरफ़ हाथ बढ़ा रहा हो और साथ ही साथ पुराने बंधनों को तोड़ने की भी हिम्मत न रखता हो. मैं अलीगढ़ इकोनोमिक्स डिपार्टमेंट की पहली और अकेली सिन्फ़े-नाज़ुक की नुमाइंदा थी. पसेपरदा लेक्चर्स सुनने की इजाज़त थी, लेकिन लाइब्रेरी और सेमिनार में दाखि़ला ममनूअ था. सालिम और हमज़ा अलवी* के ज़रिये ज़रूरी किताबें और रसाइल मुझ तक पहुँच पाते थे. सालिम के साथ ज़हनी कुर्ब ने धीरे-धीरे जज़्बाती लगाव की सूरत अख्तिेयार की. उस ज़माने में लगाव का इज़हार जुबान से करना बड़ी हिम्मत का काम था. मैं यूनिवर्सिटी की तालीम ख़त्म करके भी लखनऊ में थी और सालिम दिल्ली जनरलिज़्म को अपनी लाइन बनाने चले गये थे. अपने घर आज़मगढ़ जाते हुए कभी-कभी लखनऊ रुकते थे और मेरे घर आते थे. एक ऐसी ही मुलाक़ात के दौरान उन्होंने मुझे एक रुक़्आ थमाया. इतने में इसरार-भाई कमरे में दाखि़ल हुए, ये कमरा उन्हीं का था. सालिम तो सलाम-दुआ के बाद रुख़सत हो गये और मैं कुछ इस तरह बौखलायी कि रुक़्आ वहीं छोड़कर अंदर आ गयी. दूसरी सुबह मैंने उस कमरे का कोना-कोना छान मारा, पर ये रुक़्आ न मिलना था न मिला. उस कमरे में था ही क्या, एक पलंग, एक मेज़, एक कुर्सी, आलमारी पर चंद किताबें और चंद रसाइल और एक सूटकेस में चंद जोड़े कपड़े. अपनी तलाश में मुझे खिड़की की कारनिस पर जले काग़ज़ के कुछ बाकि़यात ज़रूर नज़र आये. मैं अपनी जगह परेशान और पशेमान, लेकिन मेरे अज़ीम भाई ने इशारतन भी मुझसे जि़क्र नहीं किया कि उन्हें रुक़्आ मिला था, जिसे उन्होंने जला दिया था.
अलबत्ता जब महमूद साहब* के ज़रिये मेरे घर शादी का बक़ायदा पयाम पहुँचा, उन्होंने रिश्ते की पुरज़ोर हिमायत की. दूसरों के अहसासात का इस हद तक लिहाज़ रखने वाली शख्सिायत, ऐसी मोहब्बत करनेवाली हस्ती, ख़ुद नाकामयाबियों का शिकार रही. तन्हाई की तारीकियों में उलझती चली गयी और ऐसे उलझी कि निकल ही न सकी. ऐसा क्यों हुआ, कैसे हुआ, कि़स्मत को रोयें, समाजी कद्रों का मातम करें या मिडिल क्लास ज़हनियत पर लानत भेजें. लेकिन हुआ ऐसा ही. जवानी के आते ही कमउम्री की शोख़ी-शरारत को बेराहरवी और बदचलनी का नाम मिलने लगा. पास-पड़ोस से शिकायतें आनी शुरु हुईं. माँ-बाप परेशान हो उठे.
इसरार भाई ने मैट्रिक पास ही किया था कि अब्बा का तबादला आगरा हो गया. उनका दाखि़ला सेट जोंस कॉलेज में करवा दिया गया और केमिस्ट्री, फि़जि़क्स, मैथमेटिक्स जैसे मज़ामीन का इंतिख़ाब हुआ. माँ-बाप बेटे के इंजीनियर बनने के ख़्वाब देख रहे थे. उधर असलियत दूसरा रुख़ अख्तिमयार कर रही थी. घर, फ़ानी बदायूनी का पड़ोस मिला. कॉलेज में जज़्बी भाई और अपने से सीनियर सरवर साहब का साथ मिला. तबीयत का फितरी रुझान, जो अब तक गुलदानों में फूल सजाकर बच्चों के लिए नित नयी तस्वीरें बनाकर और खू़बसूरत चेहरे वालों के पास घंटों-घंटों वक़्त गुज़ारकर मुतमइन हो जाता था, भरपूर तौर पर उभर पड़ा और अपना सही रास्ता ढूँढ़ने पर माइल हुआ. ऐसा लगता था कि ये दोराहे पर खड़े थे- हैरान व परेशान. किधर जायें किधर न जायें. फितरत के तक़ाज़े एक तरफ़ खींच रहे हों और उनके चाहने वालों की तवक़्क़आत दूसरी तरफ़. जिंदगी में बदनज़्मी व अबतरी पैदा हुई. हिसाब व साइंस की खुश्क किताबों से दिल उठ गया. क्लासों से ग़ायब होना शुरू हुए. हाज़रियाँ कम हुईं. फ़ेल भी हुए. माँ-बाप परेशान हो उठे. बाप का तबादला अलीगढ़ हो चुका था. इंटर के बाद वहीं बुलवाये गये. मज़ामीन बदले गये, उर्दू, फ़लसफ़ा, तारीख़ जैसे मज़ामीन का इंतिख़ाब हुआ. अल्लाह-अल्लाह करके बी.ए. पास किया. वे इम्तिहान का परचा हल करने जाते और माँ जाये-नमाज़ पर सिजदे में होतीं. एम.ए. उर्दू में दाखि़ला लिया. उम्मीद बंधी कि मज़मून पसंद का है, जि़ंदगी राह पर आ जायेगी.
अलीगढ़ यूनीवर्सिटी का ये दौर उसका सुनहरा दौर था. उस दर्सगाह के उफ़क़ पर ऐसे-ऐसे सितारे उभरे और जगमगाये, जिनकी रौशनी से मुल्क का कोना-कोना फै़ज़याब हुआ. शेरो-शायरी, इल्मो-अदब, सियासी व समाजी, ग़रज़ कि हर मैदान में अलीगढ़ के तुलबा नुमायां नज़र आ रहे थे. इसरार भाई की जि़ंदगी का भी यह रौशनतरीन दौर था. यहाँ उनको रशीद अहमद साहब जैसे बुलंद पाया अदीब की सरपरस्ती मिली. महमूद साहब जैसे क़ाबिल व रौशन दिमाग़ व रौशन ख़याल उस्ताद की दोस्ती मिली. बशीर साहब व मुख़्तार साहब जैसे संजीदा और क़ाबिल हस्तियों का बुज़ुर्गाना क़ुर्ब मिला. जज़्बी भाई, भाई अख़्तर, सरदार जाफ़री, अख़्तरुल ईमान, अख़्तर हुसेन रायपुरी, और सबते भाई जैसे हमरुझान और हमख़याल दोस्तों की सोहबत मिली. एक उभरते हुए नौजवान शायर की हैसियत से इसरार भाई की मक़बूलियत अपने नुक़्तए उरूज़ तक पहुँची. उस वक़्त यूनिवर्सिटी से नौजवानों का एक ऐसा गिरोह उभर रहा था जिसको अलीगढ़ की तारीख़ भुला नहीं सकती. कोई अच्छा मुक़र्रर था तो कोई चोटी का अदीब व शायर. अदब बराय जिंदगी का पयामबर. सभी अपने-अपने हथियारों से फ़रसूदा निज़ाम से लड़ रहे थे. और नयी क़द्रों को जिंदा रखने में मुनहमिक थे. एक नया शऊर उभर रहा था. एक नयी जिंदगी जन्म ले रही थी. मुक़र्रर कभी-कभी अपनी ज़ुबानदराज़ी से तकलीफ़ पहुँचा जाता है. अदीब के क़लम की नोक की तेज़ी भी कभी-कभी खटक जाती है. लेकिन शायर तो दिलों का राज़दाँ होता है. अच्छे शायर की बोली दिल से निकलती है और दिल पर लगती है. उसका प्याम सच्चा होता है. उसकी बोली मीठी होती है. फिर मेरे भाई जैसा शायर, जिसके दिल में बग़ावत की आग, रगों में जवानी का जोश और साथ ही साथ गले में नग़मासंजी का वफ़ूर था, जिसने इंकि़लाब के नारे लगाने के बजाय इंकि़लाब के गीत गाये, जिसने अलीगढ़ को अपना चमन क़रार दिया और चमन भी ऐसा वैसा नहीं-
ये दश्ते जुनूं दीवानों का, ये बज़्मे-वफ़ा परवानों की,
ये शहरे-तरब रूमानों का, ये खुल्दे बरीं अरमानों की.
फि़तरत से सिखायी है हमको उफ़ताद यहाँ परवाज़ यहाँ,
गाये हैं वफ़ा के गीत यहाँ, छेड़ा है जुनूं का साज़ यहाँ.
तदबीर के पाये संगीं पर, झुक जाती है तक़दीर यहाँ,
ख़ुद आँख से हमने देखी है, बातिल की शिकस्ते फ़ाश यहाँ.
बहन के नाते मैं अलीगढ़ के तुल्बा व तालिबात की शुक्रगुज़ार हूँ, उन्होंने अपने इदारे के साथ इसरार भाई के साथ इस बेपनाह मोहब्बत व अक़ीदत की क़द्र की और इस नज़्म को यूनिवर्सिटी का तराना बनाया. जब यूनिवर्सिटी के नौजवान पूरी उमंग और तरंग से ये तराना सुनाते हैं, महफि़ल झूम उठती है और इन अशआर पर ईमान सा आने लगता है-
जो अब्र यहाँ से उट्ठेगा, वो सारे जहाँ पर बरसेगा,
हर जूए-रवाँ पर बरसेगा, हर कोहे-गराँ पर बरसेगा.
हर सरवो-समन पर बरसेगा, हर दश्तो-दमन पर बरसेगा,
ख़ुद अपने चमन पर बरसेगा, ग़ैरों के चमन पर बरसेगा.
हर शहरे तरब पर गरजेगा, हर क़स्रे तरब पर कड़केगा,
ये अब्र हमेशा बरसा है, ये अब्र हमेशा बरसेगा.
इस वक़्त अपना देश एक बुहरानी दौर से गुज़र रहा है. ज़मीरफ़रोशी, रिश्वतख़ोरी और झूठ व फ़रेब का बाज़ार गर्म है. रहबराने मिल्लत और लीडराने क़ौम इक्तिगदार की कुर्सियों की तलाश में अंधाधुंध लगे हैं. मज़हब के नाम पर ख़ून की नदियाँ बह जायें. ग़रीब अवाम भूख व बेरोज़गारी का शिकार रहें. यूनिवर्सिटी और कॉलेजों तक में फि़रक़े व ज़ात-पांत की गिरोहबंदिया बढ़ती जायें, उन्हें क्या परवाह. उनकी निगाहें वोटों के बैंक पर हैं. बैलेंस उनके मुआफि़क़ रहना चाहिए, ख़्वाह क़ीमत कैसी भयानक क्यों न हो. एक तवक़्क़ो है, एक उम्मीद है. अफ़रातफ़री जब हद से तजावुज़ कर जाती है तो कोई ऐसी लहर ज़रूर उठती है, जो इंसान को तबाही से बचा लेती है. हर तख़रीब में तामीर के बीज होते हैं, इस नज़्म में शायर ने उसी उम्मीद का इज़हार किया है. एक ऐसे अब्र के बरसने का, जो जि़ंदगी के बदनुमा, घिनौने धब्बे धोकर इंसानियत को ताज़गी और नयी जिंदगी देगा. ये आस न हो तो इस दम घुटने वाले हालात में इंसान जिये कैसे. सवाल यह है कि ये दिन कब आयेगा और कितनी दूर है और अलीगढ़ के नौजवानों का उसमें क्या हिस्सा होगा. अलीगढ़ यूनिवर्सिटी का माज़ी गवाह है, हर क़ौमी तहरीक में, ख़्वाह वो समाजी इसलाह की हो, ख़्वाह सियासी आज़ादी की, अलीगढ़ का नौजवान आगे-आगे रहा. एक सोच थी, एक मक़सद था और उस मक़सद के हुसूल के लिए जोश था, वलवला था. तालीमे-निसवां की तहरीक ने, अदब बराय जिंदगी की तहरीक ने यहीं से जन्म लिया. सियासी मैदान में सोच ने दो रास्ते अख्तिौयार किये. अफ़सोस, कुछ को दो क़ौमियत के नज़रिए में राहे निजात नज़र आयी और पूरे जोश के साथ उस राह पर चल पड़े. और कुछ उसी जोशोख़रोश के साथ अपनी पूरी क़ुव्वत से मज़हब और क़ौमियत को अलग-अलग रखने की काविश में लगे रहे. सियासी व समाजी शऊर तबाहकुन सूरत अख्तिमयार कर रहा है. यहाँ तक कि हॉस्टलों में बिहारी और ग़ैर-बिहारी होने की बिना पर आये दिन झगड़े होते हैं. लड़कों में चाकू-छुरी चलने की नौबत आ जाती है. काश, उनके कानों में अपने मेहबूब शायर ‘मजाज़’ के यह अशआर गूँज उठें-
ऐ जवानाने वतन रूह जवां है तो उठो,
आँख उस महशरे नौ की निगरां है तो उठो.
ख़ौफ़े बेहुरमती और फि़क्रे ज़ियां है तो उठो,
पासे नामूसे निगाराने जहाँ है तो उठो.
उठो नक़्क़ारए अफ़लाक बजा दो उठकर,
एक सोये हुए आलम को जगा दो उठकर.
(- अगली किस्त में जारी)
(फुटनोट्स- हमज़ा अलवी- एम.ए. में मेरे क्लासफेलो, महमूद साहब- मेहमूद हुसैन, अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के उस्ताद)
No comments:
Post a Comment