मेरी आँखें
मारीना स्वेतायेवा
हर निगाह से जलती हैं मेरी
आँखें
एक तरह से अलहदा होता है हर
दिन.
मैं बता रही हूँ तुम्हें, अगर
कभी दग़ा करूं, धोख़ा दूं तुम्हें.
चाहे जिसके भी होंठों को
चूमूं
प्यार और अपनेपन की गर्मी से
और रात के वक़्त खुशी के मारे
चाहे जिसके भी सामने करूं
आत्मस्वीकार
जियूं उस तरह जैसी माँएं
हिदायत देती हैं
और बनी रहूँ जिस तरह फूल
खिलता है
पुरुषों की तरफ ध्यान ही न
दूं,
और अपनी आँखों को
सिखाऊँ उनकी नज़रों की
अनदेखी करना –
सनोवर की यह सलीब देखते हो? इसी से लगकर,
जिस से इस कदर तुम शनासा हो, क़सम खाती हूँ मैं -
सब कुछ जाग जाएगा – तुम वहाँ मेरी खिड़की पर
बस सीटी भर
बजा देना
1 comment:
what a lovely poem
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