(पिछली किस्त से आगे)
दक्षिण भारतीय फिल्मों का अलग किस्सा है. इनका निर्माण लोगों की यौन कुंठाओं को दुहने के लिए किया जाता था. यह पिक्चरें अमूमन जाड़ों में लगा करती थीं. पिक्चे क्योंकि वर्जित विषय पर होती इसलिए ६ से ९ वाला शो सबकी सहूलियत का होता. पर्याप्त अँधेरे के कारण किसी परिचित द्वारा देखे जाने की आशंका कम रहती. अब यह बात अलग है कि परिचित या तो पहले हॉल में बैठा होगा या आपसे ज्यादा शातिर हुआ तो फिल्म शुरू होने के कुछ पल बाद हॉल में घुसेगा, जब बत्तियाँ गुल कर दी जाएँगी.
इन फिल्मों को जिस चीज़ के लिए देखा जाता वह मूल तत्व पिक्चर में उतना ही होता जितना होटल के पालक-पनीर में पनीर मिलता है. फिल्म में एकाध मिनट का एक सीन जोड़ दिया जाता जिसका फिल्म की बेसिरपैर की कहानी से कोई सम्बन्ध नहीं होता था. उस दृश्य में एक जोड़ा स्त्री-पुरुष प्राकृतिक अवस्था में वही शारीरिक क्रिया बड़े मनोयोग से संपादित कर रहे होते जिसे आदिकाल से एकांत में करते आए हैं और वेंटिलेटर की मदद से जीवन जब एक्सटेंशन में चल रहा होता है तब भी करने की तमन्ना रखते हैं. ऐसा दूसरा सीन हाफ टाइम के लगभग तुरंत बाद आता था. इसके बाद हॉल में नौसिखिए रह जाते या वो जिनका "जब तक सांस है तब तक आस है" पर अटल विशवास होता. अनुभ्वीजन हॉल को यूं छोड़ देते जैसे लम्पटों की सभा का त्याग सत्पुरुष के देते हैं.
आसपास के दुकानदारों को हॉल के स्टाफ से मालूम पड़ जाता कि पहला सीन कितने बजे है और दूसरा कितने बजे. वे लोग ठीक समय पर दरवाजा खोलकर भीतर घुसते, वहीं खड़े-खड़े दर्शन कर फिर दूकान में जा बैठते. सार-सार को गहि रहे, थोथा देहि उडाय.
ऐसी पिक्चरों के टिकट कुछ इज्ज़तदार लोग दूसरों से मंगवाते थे. ऐसे ही लोग शराब और कंडोम भी औरों से मंगवाते हैं. बड़े-बड़े महारथी नज़र आ जाया करते थे हॉल में, टोपी,मफलर और काले चश्मे की ओट लिए.
(अगली किस्त में समाप्य)
3 comments:
हमारा भी सेम टू सेम ऐसा ही अनुभव रहा है पटना में....
मस्त चल्लइ ए जे पिच्चर बाउजी ।
Woh chupke chupke theater me jane ka bhi ek alag romanch tha,jo ab laptop aur internet ke janjal me gumshuda tawarikh ban chuka hai.
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