Friday, April 13, 2012

तारीफ़ों की चाशनी में चिपचिपी नहीं हुई है हमारी आत्मा



राजेश सकलानी के संग्रह पुश्तों का बयान की शीर्षक कविता पढ़िए -


पुश्तों का बयान 

हम तो भाई पुश्तें हैं
दरकते पहाड़ की मनमानी
सँभालते हैं हमारे कंधे 

हम भी हैं सुन्दर, सुगठित और दृढ़ 

हम ठोस पत्थर हैं खुरदरी तराश में 
यही है हमारे जुड़ाव की ताकत 
हम विचार और युक्ति से आबद्ध हैं 

सुरक्षित रास्ते हैं जिंदगी के लिए
बेहद खराब मौसमों में सबसे बड़ा भरोसा है
घरों के लिए 

तारीफ़ों की चाशनी में चिपचिपी नहीं हुई है 
हमारी आत्मा 
हमारी खबर से बेखबर बहता चला आता 
है जीवन।

(पुश्ता : भूमिक्षरण रोकने के लिए पत्थरों की दीवार। पहाड़ों में सड़कें, मकान और खेत पुश्तों पर टिके रहते हैं।) 

4 comments:

ghughutibasuti said...

वाह!
एक नया शब्द पता चला.
घुघूतीबासूती

Shalini Khanna said...

सुन्दर रचना........

प्रवीण पाण्डेय said...

तारीफ में आत्मा विद्रोह कर बैठती है।

Unknown said...

मामूली लोगों को गैरमामूली अर्थ और रोशनी। राजेश सकलानी को बधाई