(पिछली किस्त से आगे - आज समाप्य)
अपनी नई कविताओं की रोशनी में कवि लीलाधर जगूड़़ी - दो
-शिवप्रसाद जोशी
इक्कीसवीं सदी का आम आदमी कैसा था ये उनकी कविता में हमने देखा अब ये सदी कैसी है इस पर भी जगूड़ी ने अपने रचनाकर्म के शुरुआती दिनों से एक तुलना करते हुए कविता लिखी है.
कमज़ोर आवाज़ को पहचान की हद तक उठाने का हल्ला था
...समय की कोई सांस्कृतिक सियासत थी कि
दो अकेले भी दोस्त हो जाते थे भले ही समूह झगड़ रहे हों
अब आवाज़ें बुलंद और सड़कें चौड़ी हैं
रुलाई की जगह गुस्सा है
सिसकने की जगह हल्ला नहीं हल्ला बोल है
शोक खानदानी बदले में बदल गये हैं...
नये नये प्रकार के गुरूर असहमति को घृणा में
घृणा को विचारधारा में बदल रहे हैं
समूहों में दोस्ती हो रही है
खुले विचारों वाले अकेले व्यक्तियों के ख़िलाफ़.
कई चीज़ें अजीब ढंग से नयी होती चली गयी हैं. एक नवधनाढ्य नव उदारवाद नव पूंजीवाद नव साम्राज्यवाद नव उपनिवेशवाद नव बाज़ारवाद उत्तरआधुनिकतावाद. नए नए प्रकार के गुरूर. एक दूसरे से टूटते एक दूसरे पर टूटते लोग- अपनी ही नफ़रतो और शंकाओं और नादानियों और ख़ुराफ़ातों को सहलाते हुए. एक नवबर्बरता, नवनात्सीवाद के हवाले ख़ुद को करते हुए. घृणा को ये विचारधारा बनाते हुए. धर्म और जाति के लाभ से झुके हुए. हालांकि ये दौर तत्काल प्रकट हुआ नहीं है. जगूड़ी अपने संघर्ष के दिनों से इन दिनों की तुलना करते हुए देख रहे हैं, निश्चय ही भयावह स्थिति है लेकिन ये मानने में उन्हें भी इंकार न होगा कि ये नौबत वहीं से बनती आई है. या उससे पहले से भी. अपनी अपनी आग के फूलों सहित हर चीज़ का आकार नए सिरे से खींचना पड़ता है अपनी यादों में.
और जगूड़ी की कविता में इधर जो नवगतियां आई हैं उनमें जो एक बाहर को निकलने की बेचैनी से भरी हुई युक्तियां आई हैं उनकी इस नवआवाज़ की उनके इस नएपन की एक प्रतिनिधि कविता कही जा सकती है तो वो है कला की ज़रूरत. यूं इस कविता में ऊपरी तौर पर लगता है कि ये जगूड़ी का अपने शिल्प का रिपीटिशन है उससे एक लगाव है जो खिंचा चला आ रहा है जबकि कविता उससे बाहर आना चाहती है. लेकिन ये कविता वाकई बाहर निकल आई है और वे दुहराव दरअसल उस खींच के निशान हैं. अपने को कुछ दरियाफ़्त कुछ आग्रह कुछ विनती में छुड़ाने के लिए जख़्मी होने के मद्धम निशान. बस कुछ इधर उधर की खरोंचे. ये हिंदी कविता में लीलाधर जगूड़ी की नई आवाज़ है जो कहती है
यह होने की कला
अपने को हर बार
बदल ले जाने की कला है
कला भी ज़रूरत है
वरना चिड़ियां क्यों पत्तियों के झालर में
आवाज़ दे-देकर ख़ुद को छिपाती है
कि यकीन से परे नहीं दिखने लगती है वह
जगूड़ी का ये नया काव्य दर्शन या उनका नया पोएटिक स्टेटमेंट कहा जा सकता है. उसे हम कुछ नीचे दर्ज उनकी कुछ कविता लाइनों के नमूनों से समझने की कोशिश करते हैं. यानी वो कुछ इसी तरह बना हुआ दिखता हैः -
-सिर्फ़ ताकने से नहीं नापा जा सकता आसमान
-विदाई की शांति के कुछ दिन बाद अपने ही किसी सुख की याद में नए पैरहन का प्रफुल्लित रस लेकर वही पेड़ भीतर से उल्लिसित हो उठता है
- मुझे थोड़ा बड़ा होना है पृथ्वी के साथ अगला पृष्ठ आकाश का जोड़कर
-बाहर मैं निकल आया हूं...मेरे साथ खड़ा है मेरा अन्तर्बाह्य
-तभी तो दिमाग कुछ रास्तों से सिर पर पैर रखकर भागने के लिए कहता है
- मगर सबको बाहर आज़ादी मिलनी चाहिए
-उनके मरे हुए शरीर में मौजूद है अपने को बचा न पाने की आखिरी ऐंठन जैसे वे अब भी पीछे की ओर जोर मारकर आगे की ओर सरक जाना चाहते हों
- जब मैं आया था तेज़ कदम झुके माथे के बावजूद संकरी गलियों और चौड़े रास्तों पर
बकौल जगूड़ी ये सही है कि “इस कोठरी इस बिस्तर और चीज़ों को छोड़कर काव्यभाषा भी बहुत दूर नहीं जा नहीं सकती” लेकिन वो लौटती है नई होकर. उपरोक्त लाइनों में आप देखते हैं वहां कैसी जाने की बेकली है, निकलने की उद्दाम आकांक्षा. बार बार. ख़ुद को बदलने की बदलते रहने की खु़द को भूल जाने और नया हो जाने की तीव्र लेकिन अंडरकरेंट उत्तेजना. एक नई मुक्ति की तलाश. यानी कई बार इस हद तक नई कि “अगली बार किसी और नए सिरे से पैदा होने को बताती हुई.” यही आज के लीलाधर जगूड़ी की कविता है. नई राजनीति नई अभिलाषा और नई खिन्नता से भरी हुई. अपनी चतुराई से आप ऊबी हुई.
कमज़ोर आवाज़ को पहचान की हद तक उठाने का हल्ला था
...समय की कोई सांस्कृतिक सियासत थी कि
दो अकेले भी दोस्त हो जाते थे भले ही समूह झगड़ रहे हों
अब आवाज़ें बुलंद और सड़कें चौड़ी हैं
रुलाई की जगह गुस्सा है
सिसकने की जगह हल्ला नहीं हल्ला बोल है
शोक खानदानी बदले में बदल गये हैं...
नये नये प्रकार के गुरूर असहमति को घृणा में
घृणा को विचारधारा में बदल रहे हैं
समूहों में दोस्ती हो रही है
खुले विचारों वाले अकेले व्यक्तियों के ख़िलाफ़.
कई चीज़ें अजीब ढंग से नयी होती चली गयी हैं. एक नवधनाढ्य नव उदारवाद नव पूंजीवाद नव साम्राज्यवाद नव उपनिवेशवाद नव बाज़ारवाद उत्तरआधुनिकतावाद. नए नए प्रकार के गुरूर. एक दूसरे से टूटते एक दूसरे पर टूटते लोग- अपनी ही नफ़रतो और शंकाओं और नादानियों और ख़ुराफ़ातों को सहलाते हुए. एक नवबर्बरता, नवनात्सीवाद के हवाले ख़ुद को करते हुए. घृणा को ये विचारधारा बनाते हुए. धर्म और जाति के लाभ से झुके हुए. हालांकि ये दौर तत्काल प्रकट हुआ नहीं है. जगूड़ी अपने संघर्ष के दिनों से इन दिनों की तुलना करते हुए देख रहे हैं, निश्चय ही भयावह स्थिति है लेकिन ये मानने में उन्हें भी इंकार न होगा कि ये नौबत वहीं से बनती आई है. या उससे पहले से भी. अपनी अपनी आग के फूलों सहित हर चीज़ का आकार नए सिरे से खींचना पड़ता है अपनी यादों में.
और जगूड़ी की कविता में इधर जो नवगतियां आई हैं उनमें जो एक बाहर को निकलने की बेचैनी से भरी हुई युक्तियां आई हैं उनकी इस नवआवाज़ की उनके इस नएपन की एक प्रतिनिधि कविता कही जा सकती है तो वो है कला की ज़रूरत. यूं इस कविता में ऊपरी तौर पर लगता है कि ये जगूड़ी का अपने शिल्प का रिपीटिशन है उससे एक लगाव है जो खिंचा चला आ रहा है जबकि कविता उससे बाहर आना चाहती है. लेकिन ये कविता वाकई बाहर निकल आई है और वे दुहराव दरअसल उस खींच के निशान हैं. अपने को कुछ दरियाफ़्त कुछ आग्रह कुछ विनती में छुड़ाने के लिए जख़्मी होने के मद्धम निशान. बस कुछ इधर उधर की खरोंचे. ये हिंदी कविता में लीलाधर जगूड़ी की नई आवाज़ है जो कहती है
यह होने की कला
अपने को हर बार
बदल ले जाने की कला है
कला भी ज़रूरत है
वरना चिड़ियां क्यों पत्तियों के झालर में
आवाज़ दे-देकर ख़ुद को छिपाती है
कि यकीन से परे नहीं दिखने लगती है वह
जगूड़ी का ये नया काव्य दर्शन या उनका नया पोएटिक स्टेटमेंट कहा जा सकता है. उसे हम कुछ नीचे दर्ज उनकी कुछ कविता लाइनों के नमूनों से समझने की कोशिश करते हैं. यानी वो कुछ इसी तरह बना हुआ दिखता हैः -
-सिर्फ़ ताकने से नहीं नापा जा सकता आसमान
-विदाई की शांति के कुछ दिन बाद अपने ही किसी सुख की याद में नए पैरहन का प्रफुल्लित रस लेकर वही पेड़ भीतर से उल्लिसित हो उठता है
- मुझे थोड़ा बड़ा होना है पृथ्वी के साथ अगला पृष्ठ आकाश का जोड़कर
-बाहर मैं निकल आया हूं...मेरे साथ खड़ा है मेरा अन्तर्बाह्य
-तभी तो दिमाग कुछ रास्तों से सिर पर पैर रखकर भागने के लिए कहता है
- मगर सबको बाहर आज़ादी मिलनी चाहिए
-उनके मरे हुए शरीर में मौजूद है अपने को बचा न पाने की आखिरी ऐंठन जैसे वे अब भी पीछे की ओर जोर मारकर आगे की ओर सरक जाना चाहते हों
- जब मैं आया था तेज़ कदम झुके माथे के बावजूद संकरी गलियों और चौड़े रास्तों पर
बकौल जगूड़ी ये सही है कि “इस कोठरी इस बिस्तर और चीज़ों को छोड़कर काव्यभाषा भी बहुत दूर नहीं जा नहीं सकती” लेकिन वो लौटती है नई होकर. उपरोक्त लाइनों में आप देखते हैं वहां कैसी जाने की बेकली है, निकलने की उद्दाम आकांक्षा. बार बार. ख़ुद को बदलने की बदलते रहने की खु़द को भूल जाने और नया हो जाने की तीव्र लेकिन अंडरकरेंट उत्तेजना. एक नई मुक्ति की तलाश. यानी कई बार इस हद तक नई कि “अगली बार किसी और नए सिरे से पैदा होने को बताती हुई.” यही आज के लीलाधर जगूड़ी की कविता है. नई राजनीति नई अभिलाषा और नई खिन्नता से भरी हुई. अपनी चतुराई से आप ऊबी हुई.
2 comments:
कवि लीलाधर जगूड़़ी से परिचय कराने के लिये आप को धन्यवाद...
उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...
मुझे आश्चर्य है कि इतनी बेहतरीन प्रस्तुति के बावजूद कोई कमेन्ट नहीं है, स्वार्थपरता की हद है...किसी को अच्छी और ज्ञानवर्धक चीजों से कोई मतलब नहीं है, केवल अपनी ढपली लेकर अपना राग अलापना है।लेकिन आप लगे रहिए, अच्छी बातें, अच्छी चीजें और अच्छी रचनाएं किसी कमेन्ट की मोहताज़ नहीं होती......
शिव प्रसाद जोशी ने जिस भाषा में जगूडीजी की कविताओं की पडताल की है वह ध्यान खींचती है...जगूडीजी की कविताओं का आवेग पहाडी घुमावदार नदियों की वेगवती ध्वनियों से बहरपूर आलेख!
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