मई सन २००५ की गर्मियों में बाबा त्रिलोचन से हरिद्वार में अंतिम मुलाक़ात हुई थी. तखत पर लेते-अधलेटे बाबा के सिरहाने निराला रचनावली के आठ खंड सहेज कर धरे हुए थे. उनकी स्मृति कुछ क्षीण हुई तो थी पर आंखों में वही सवाल पूछने वाली गहराई बची हुई थी.
उस दिन बाबा ने मुझे २००४ में किताबघर से छाप कर आए अपने कवितासंग्रह जीने की कला उपहार के तौर पर दी थी.
पता नहीं क्यों मुझे बार बार इस संग्रह के नज़दीक जाना अच्छा लगता है. इसकी कविताओं में एक सादगी तो है ही एक ढीठ खिलंदड़ कवि की जिद भी साफ़ नज़र आती है.
ज़्यादा ज्ञान बघारने से परहेज़ करता हुआ मैं सीधे सीधे उस संग्रह की एक कविता आपके सामने प्रस्तुत करता हूँ -
जीने की कला
भूख और प्यास
आदमी से वह सब कराती है
जिसे संस्कृति कहा जाता है.
लिखना पढना पहनना ओढना
मिलना झगड़ना चित्र बनाना मूर्ति रचना
पशु पालना और उन से काम लेना यही सारे
काम तो इतिहास है मनुष्य के सात द्वीपों और
नौं खंड़ों में.
आदमी जहाँ रहता है उसे देश कहता है। सारी
पृथ्वी बँट गई है अनगिनत देशों में। ये देश अनेक
देशों का गुट बना कर अन्य गुटों से अक्सर
मार काट करते हैं.
आदमी को गौर से देखो. उसे सारी कलाएँ विज्ञान
तो आते हैं. जीने की कला उसे नहीं
आती.
3 comments:
aur ...
बहुत बड़ा सच, साधन इकठ्ठे करते करते हम जीने का उद्देश्य भूल बैठे हैं।
जो अन्धों की स्मृति में नहीं है
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हमें याद है
हम तब भी यहीं थे
जब ये पहाड़ नहीं थे
फिर ये पहाड़ यहाँ खड़े हुए
फिर हम ने उन पर चढ़ना सीखा
और उन पर सुन्दर बस्तियाँ बसाईं.
भूख हमे तब भी लगती थी
जब ये चूल्हे नहीं थे
फिर हम ने आकाश से आग को उतारा
और स्वादिष्ट पकवान बनाए
ऐसी ही हँसी आती थी
जब कोई विदूषक नहीं जन्मा था
तब भी नाचते और गाते थे
फिर हम ने शब्द इकट्ठे किए
उन्हे दर्ज करना सीखा
और खूबसूरत कविताएं रचीं
प्यार भी हम ऐसे ही करते थे
यही खुमारी होती थी
लेकिन हमारे सपनों मे शहर नहीं था
और हमारी नींद में शोर ..... ज़िन्दा हथेलियाँ होती थीं
ज़िन्दा ही त्वचाएं
फिर पता नहीं क्या हुआ था
अचानक हमने अपना वह स्पर्श खो दिया
और फिर धीरे धीरे दृष्टि भी !
बिल्कुल याद नहीं पड़ता
क्या हुआ था ?
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