Friday, June 29, 2012

सिंध में सत्रह महीने - ४

(पिछली कड़ी से आगे)

चार.

भौगोलिक व्यतिक्रम के कारण सिंध प्रांत शेष भारत से कट-सा गया है, तिस पर अरबी लिपि ने तो और भी हद कर दी है. वह एक दीवार जैसी खड़ी है सिंध और भारत के दरम्यान. सिंध के पश्मिोत्तर भाग में बिलोचिस्तान की नग्न पहाड़ियां पड़ती हैं, उत्तर-पूर्व में बहावलपुर रियासत के विरल बस्तियोंवाले पंजाबी इलाक़े पड़ते हैं, पूर्व में राजपूताने का विशाल रेगिस्तान पड़ता है. पूर्व-दक्षिण कोने में कच्छ की छोटी-छोटी झाड़ीवाली भुरभुरी मरु-भूमि और कच्छ की खाड़ी पड़ती है, दक्षिण-पश्चिम में पड़ता है अरब महासागर. खानपुर से लेकर करांची तक सवा चार सौ मील से ऊपर सिंधुनद के दोनों किनारे लंगोटी की तरह फैला पड़ा है सिंधियों का छोटा-सा यह प्रांत. आबादी घनी नहीं है. सारा प्रांत आठ जिलों में विभक्त हैμसक्खर, शिकारपुर, जैकोवाबाद, लारकाना, दादू नवाबशहा, मीरपुर ख़ास, हैदराबाद, करांची. इनमें मीरपुर पड़ता है जोधपुर लाइन में और जैकोवाबाद क्वेटा लाइन में. अवशिष्ट जिले (करांची को छोड़कर) दरिया सिंध के कछारों में बसे हैं. जलवायु शुष्क है, वर्षा कम होती है. गर्मी भी खूब पड़ती है और जाड़ा भी खूब. परंतु ग्रीष्म ऋतु में भी वहां की रात्रि असह्य नहीं प्रतीत होती है.

अरब सागर की पश्चिमी हवा सारे सिंध को प्राणवंत बनाये रहती है. गेहूं और धान उपजते दोनों हैं, इतना उपजते हैं कि सिंधवासी उन्हें बाहर भी भेजते हैं. सिंध की शुमार हिंदुस्तान के उन चंद सूबों में की जाती है, जहां अन्न आवश्यकता से अधिक पैदा होता है. चारागाहों की बहुतायत है, इसलिए दूध-घी की भी कमी नहीं है. अभी तक सिंध की बहुत कम ज़मीन आबाद हो पायी है. सोवियत रूस की पंचवार्षिक योजनाओं की तरह जब कभी कोई विराट औद्योगिक योजना हमारे इस महादेश में लागू होगी, तो अकेला सिंध अनेक प्रांतों का भरण-पोषण कर लेगा. भारतीय शासन विधान (1935) के मुताबिक जो मंत्रिमंडल वहां क़ायम है, उसने इन बातों की ओर बहुत ही कम ध्यान दिया है. पिछले दो-तीन वर्षों के अंदर मुनाफ़ाख़ोरी और अन्नचोरी का जो चक्र अन्य प्रांतों में चला है, सिंध की स्वदेशी सरकार उन्हीं धूर्तों को प्रोत्साहित करती रही है जिन्होंने जनहित का गला घोंटकर करोड़ों का लाभ-शुभ प्राप्त किया है.

सिंध का शासन अंग्रेज़ों ने सिक्खों से छीना था. 1847 ई. में सर नेपियर ने इसे बंबई प्रांत में मिला दिया. अभी नौ साल पहले फिर इस प्रांत को बंबई से अलग कर दिया गया है. शिक्षा और व्यापार में सिंध अभी भी बंबई से जुड़ा हुआ है. धार्मिक और सामाजिक संबंध उसका पंजाब से है.

सिंधी भाषा आजकल अरबी लिपि में लिखी जाती है. पुराने पंडित दो-तीन मुझे वहां मिले, जो अरबी से अपरिचित और नागरी मात्रा से परिचित हैं. अभी चालीस साल पहले तक सिंधी नागरी में लिखी जाती थी, बनियों ने तो अभी तक नागरी के अन्यतम रूप (मुंडा लिपि से मिलता-जुलता हुआ) पकड़ रखा है. वास्तव में सिंधी भाषा के सूक्ष्म उच्चारण-भेदों को प्रकट करने के लिए अरबी लिपि असमर्थ है. इस भाषा में पाली-प्राकृत-संस्कृत-अपभ्रंश से आनेवाले शब्दों की तादाद इतनी अधिक है कि देखकर दंग रह जाना पड़ता है. क्या मुसलमान, क्या हिंदू सभी इसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं. किसी बहुत बड़े मौलवी या पंडित की बात छोड़िये, साधारण सिंधी जनता जिस ठेठ सिंधी को व्यवहार में लाती है, उसमें 80 प्रतिशत तद्भव शब्द ही रहते हैं. अठारहवीं सदी के एक मुसलमान संत की वाणी देखिये, कैसी है –

पूरब पंधि न वीणां, गिरिनारी गुमनाम
विभिचारी थी बाटते, करनि कीन बिसराम
सीने में संग्राम, सचा सुना सुनिजे.


अपने में ही लीन-मग्न गिरिनारी योगी कर्म-कांडों में नहीं फंसते और न अपना मार्ग त्यागकर आराम ही
करते हैं - इनके हृदय में हमेशा युद्ध छिड़ा रहता है. पाठक देखें कि इसमें कितने तद्भव शब्द हैं. अब आधुनिक सिंधी का एक नमूना देखें -

जदहिं मात भारत जे चरिनन में तो
दिनो दानु भेटा में जेकी बि हो
लघुई जानि ते भी न हिकिड़ो वगो
लंगोटी टुकरु, व्यो उघाड़ो सजो
तदहिं तोते आसीस माता कई
बधाई वदी तुहिं जी पदिवी वई


 कवि वेकस ने गांधी को लक्ष्य करके कहा है - तुम्हारे पास जो कुछ भी था, सभी जब भारत माता के चरणों तुम भेंट चढ़ा बैठे, एक छदाम भी नहीं बचा, सिवाय लंगोटी के और क्या रहा? सारा अंग उघाड़ था, तब तुम पर माता की आशीष हुई; उसने तुम्हारी पदवी बढ़ा दी!

दुर्भाग्य की बात है कि साहित्य-सम्मेलन और नागरी-प्रचारिणी सभा जैसी प्रतिनिधि संस्थाएं सिंधी के प्रति उदासीन क्या, विमुख हैं. सिंधी के उन हज़ारों शब्दों की व्युत्पत्ति के आलोक में हम हिंदी के तद्भव शब्दों की जड़ तक जा सकते हैं. 

इधर चार-पांच वर्षों से राष्ट्रभाषा प्रचार समिति (वर्धा) के सदुद्योग से सिंध में हिंदी प्रचार का काम होने लगा है. हिंदुस्तानी की आड़ लेकर निख़ालिस उर्दू का प्रचार प्रांतीय सरकार की ओर से हो रहा है. सिंधी हिंदू अपनी सरकार से इस बात की मांग कर रहे हैं कि उनके लड़के को नागरी लिपि में हिंदुस्तानी लिखने-पढ़ने की छूट दी जाये. लीगी शिक्षामंत्री इस मांग से बिदकता है. हैदराबाद सिंध के दयाराम गिदूमल नेशनल कालेज के प्रोफेसर नारायणदास बथेजा को उस प्रांत की माध्यमिक शिक्षा में संस्कृत-प्रवेश का श्रेय प्राप्त है. वहां के सारस्वत ब्राह्मण प्रतिभाशाली होते हुए भी अपने संपन्न यजमानों से भूयसी-दक्षिणा पाकर इतने अलस, इतने तंद्रालु बन बैठे हैं कि अध्ययन-अनुशीलन की अधिक आवश्यकता भला उन्हें क्यों होने लगी? संस्कृत शिक्षा की दशा सिंध में वही है, जो पिंजरापोल की लूली-लंगड़ी गायों की होती है!

(जारी)

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