'सिंहासन ऊंचा है सभाध्यक्ष छोटा है
अगणित पिताओं के
एक परिवार के
मुंह बाए बैठे हैं लड़के सरकार के
लूले काने बहरे विविध् प्रकार के
हल्की-सी दुर्गन्ध् से भर गया है सभाकक्ष'
रघुवीर सहाय ने ही यह भी लिखा था,
'राष्ट्रगीत में कौन खडा यह भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका गुन हरचरना गाता है'
क्या उपरोक्त पंक्तियों में महज संसद या राष्ट्र का उपहास है? उपहास है उन धनपशुओं और उनके राजनीतिक दलालों का जिन्होंने 'राष्ट्र' की सभी संस्थाओं, मर्यादाओं , प्रतीकों को खोखला बना दिया है, उन्हें हड़प लिया है . राष्ट्र के वास्तविक नागरिकों (किसानों, मजूरों , बहुजन) को 'राष्ट्र' के दायरे से बाहर खदेड़ दिया है. आज जिस तरह के अघोषित आपातकाल की स्थिति की ओर भारत अग्रसर है, उसका प्रतिकार सिर्फ 'अभिव्यक्ति की आज़ादी' के तर्क से नहीं, बल्कि 'विकल्प की ज़रुरत' के तकाज़े से किया जाना भी ज़रूरी है.
जन संस्कृति मंच असीम त्रिवेदी पर लगाए सारे आरोपों और धाराओं को निरस्त करने, उनकी अविलम्ब रिहाई की मांग करता है और इसके लिए नागरिकों से आन्दोलन में उतरने की अपील करता है.
(-प्रणय कृष्ण, महासचिव , जन संस्कृति मंच द्वारा जारी)
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