आज से कोई तीन-चार साल पहले जनाब श्रीहर्ष मेरे घर हल्द्वानी में अकस्मात ही पहुँच गए थे. वे बीकानेर से अपने किसी मित्र से मिलने नज़दीक ही सितारगंज या खटीमा या ऐसी ही जगह क़याम किये हुए थे और उन दिनों मेरी अनुदित की हुई ‘लस्ट फॉर लाइफ’ पढ़ रहे थे. किताब ख़त्म करने के बाद पीछे के पन्ने पर मेरा पता देख कर उन्हें लगा कि हल्द्वानी जाकर नाचीज़ से मिला जाए. वे जब हमारे घर आये हमारे घर पर एक तरह का अंतरिम समय गुज़र रहा था. पिता बेहद बीमार थे और कुछ समय बाद उन्होंने हमें छोड़ जाना था. मैं अपने परिवार से दूर माँ-बाबू की मिजाजपुर्सी के लिए हल्द्वानी में डेरा डाले था. और एक लम्बे समय से अजीब डिप्रेशन का शिकार था.
श्रीहर्ष जी मेरे पिता की ही जितनी आयु के थे तब. बल्कि पिताजी से एक साल बड़े. उनकी एक किताब जो वे मुझे भेंट कर गए थे, बतलाती है वे मेरे पिता से एक साल पहले यानी १९३४ में जन्मे थे.
उनसे बहुत ज्यादा बातें करने की गुंजाइश नहीं थी पर जितनी भी देर उनसे बातें हुईं मुझे लगा कि इस आयु में भी इतने सक्रिय यायावर का सा जीवन बिताने वाले इस शख्स से भविष्य में बातों का सिलसिला लम्बा खिंच सकता है.
बहरहाल दो-तीन घंटे हल्द्वानी साथ रहकर सादी दाल-रोटी का भोजन पाकर और अपनी सद्यःप्रकाशित कहानियों की किताब 'अपने अपने सुख' की प्रति भेंट दे कर, वे फिर मिलने को कहकर चल पड़े. अपने कई लेखक-पत्रकार मित्रों से बाद में छिटपुट उनकी बाबत और जानने की कोशिशें कीं पर किसी ने भी कोई ठोस जवाब नहीं दिया. दो-तीन दिन पहले मुझे जनाब करण सिंह चौहान के ब्लॉग पर यूँ ही जाने का अवसर मिला और वहां श्रीहर्ष पर एक आलेख देख कर मुझे लगा कि इसे कबाड़खाने पर भी होना चाहिए. करण सिंह चौहान जी का शुक्रिया.
श्रीहर्ष की कविताओं पर लिखना चाहते हुए भी…
- करण सिंह चौहान
मुद्दत बाद कलकत्ता के दो पुराने मित्रों का फोन आया कि कविमित्र श्रीहर्ष की कविताओं का एक प्रतिनिधि संकलन आने को है, जिसमें उनके सभी प्रकाशित संकलनों से चुनकर कविताएं ली जाएंगी । यह भी मुझसे अनुरोध किया कि मुझे उनपर भूमिका स्वरूप कुछ लिखना है । संक्षिप्त सी बातचीत के कुछ दिन बाद एक लिफाफे में सभी संकलनों का विवरण और कविताओं की फोटो कापी मिली । बातचीत में यह भी समझाने का अवसर नहीं था कि भूमिकाएं लिखना पुराने जमाने की बातें हैं और कि श्रीहर्ष जैसे पुराने कवि को किसी से भूमिका लिखवाने की जरूरत नहीं है । श्रीहर्ष भले ही कभी मुख्यधारा के चर्चित कवि नहीं रहे, लेकिन जनवाद के प्रभुत्व के जमाने में विचार की प्रतिबद्धताओं के कारण जाने जाते रहे और आज भी जाने जाते हैं ।
पुराने घनिष्ठ मित्र हैं इसलिए भूमिका न भी लिखूँ तो भी लिखकर यह जताना तो अपना फर्ज समझता हूँ कि चाहकर भी भूमिका जैसा कुछ क्यों नहीं लिख पा रहा हूँ । भूमिका न सही, अलग से ही कुछ कहना है ।
कलकत्ता शहर और हिन्दी के जाने-माने कवि श्रीहर्ष की कविताओं का यह एक प्रातिनिधिक संकलन होगा क्योंकि इसमें कवि ने १९७६ में प्रकाशित 'समय से पहले' से लेकर २००८ में प्रकाशित 'सपनों का मौसम' कविता संकलन तक के सात संकलनों से अपनी कविताओं का चुनाव किया है । आप यदि संकलन के नामों से कुछ उनकी काव्य-यात्रा का अंदाज लगाना चाहें तो उनके नाम इस प्रकार हैं
1. समय से पहले १९७६
2. राजा की सवारी १९८०
3. रोशनी की तलाश १९८४
4. मछलियां ठहरे तालाब की १९८७
5. घर का सच १९९३
6. मुरझाए चेहरों की चहल-पहल २०००
7. सपनों का मौसम २००८
यह ब्यौरा इसलिए दिया कि अनेक लोग साहित्य की जन्मपत्रियों से भी कई निष्कर्ष निकालते हैं । उनकी सुविधा के लिए यहां कुछ बातें स्पष्ट कर दूं । यानी १९७६ में जबसे उन्होंने संकलन के रूप में कविताओं को छपवाना शुरू किया तबसे चार साल पर एक संकलन आता रहा, बाद में उसमें कुछ शिथिलता लक्षित की जा सकती है जो बाद के तीन संकलनों में लगभग छह, सात और आठ वर्ष है । नामों के आधार पर कुछ लोग शोध करना चाहें तो उनकी सुविधा के लिए यह कहना होगा कि पहले तीन नाम क्रांतिकारी परंपरा में हैं, चौथा नाम कुछ ठहराव वाला है, पांचवे में बाहर से अंतर्मुख हो घर की ओर देखने जैसा है, छ्ठे में कुछ आशा-निराशा की दोलायमान स्थिति है और सातवां तो यथार्थ के विपरीत सपनों में समा जाने का है । इस तरह लगभग पैंतीस-चालीस वर्षों में फैली यह एक ऐसे प्रतिबद्ध कवि की काव्य यात्रा है जो इस पूरे दौर में वामपंथी विचारधारा से सिद्धांत और व्यवहार के स्तर पर जुड़ा रहा है । फिर भी आप कविताएं पढ़ेंगे तो इस प्रतिबद्धता की खूबियों-खामियों को साफ देख पाएंगे, यह भी कि इसमें कैसे उतार-चढ़ाव आए हैं या कहें चढ़ाव से उतार आए हैं ।
श्रीहर्ष लगभग चालीस साल से हमारे परिचित और मित्र रहे हैं । इसलिए अपनी चुनी हुई कविताओं के आने वाले संकलन के लिए मुझसे कुछ लिखने का अनुरोध करना स्वाभाविक ही है । पुराने वामपंथी लोगों में से अब लोग कम हो रहे हैं और जो बचे हैं वे भी अब वैसे आगमार्का नहीं रह गए हैं जैसे एक जमाने में रहा करते थे ।मैं तो बहुत पहले से ही क्रांतिकारियों के दस्ते से अलग हो (उस समय की शब्दावली में कहें तो गद्दारी कर) कुछ गुहावासी जैसा हो गया था, जो लोग सतत रहे उनकी धार भी अब वैसी पैनी नहीं रह गयी । इसलिए कविमित्र श्रीहर्ष का ध्यान मेरे जैसे पुराने 'साथी' की तरफ गया होगा जो क्रांति के पक्ष में तीखी न सही लेकिन 'तीखी ' बात कहने के लिए तो बदनाम रहा ही आया है । वैसे भी 'ओल्ड इज गोल्ड' के हिसाब से यह अनुरोध सही ही माना जायगा ।
श्रीहर्ष के स्वभाव और सोचने-समझने के ढंग में कोई खास बदलाव नहीं आया, यह इस अनुरोध से ही जाहिर है । लिखवाने को तो और बहुत से लोग अपनी प्रकाशित होने वाली किताबों की भूमिका अन्य किसी से लिखवाते रहे हैं, लेकिन बात उस जमाने की है जब जनवादियों का ऐसा करना एक खास मकसद से हुआ करता था । यानी भूमिका में एक तो वर्तमान परिस्थितियों का जनवादी आकलन हो और साथ ही किताब में लिखे हुए का जनवादी विश्लेषण हो । कोई किताब न पढ़ महज भूमिका ही देख ले तो स्पष्ट हो जाय कि उसमें क्या है ।
ऐसा करना उस किसी भी व्यक्ति के लिए कोई मुश्किल काम नहीं है जो किसी भी रूप में साहित्य से जुड़ा है । बल्कि यह तो किसी के लिए भी गौरव की बात होगी कि हिन्दी का इतना वरिष्ट कवि उसे इतना सम्मान दे रहा है कि अपने जीवन भर में रची कविताओं पर उसकी राय को भूमिका के रूप में छापने का प्रस्ताव कर रहा है। एक समय तक मैंने स्वयं यह भूमिका बखूबी निभाई है । बहुत से लोग अब भी बहुत सी पुरानी रवायतों को निभाते चले जा रहे हैं । इधर कुछेक सभा-गोष्ठियों में जाकर मैंने पाया कि ज्यादातर लोग आज भी लगभग वही बात दुहरा रहे हैं जो वे पच्चीस साल पहले कह रहे थे । हालांकि यह शर्मनाक और दुखद है लेकिन जनवादी साहित्यिक हलकों में इसे आस्था की दृढ़ता का सूचक माना जाता है । मैं ऐसी निस्सार आस्था और दृढ़ता का कभी कायल नहीं रहा । कोई कितना भी नामी-गिरामी व्यक्ति हो वक्ता के रूप में लेकिन यदि उसका नाम सुनते ही मुझे यह आभास हो कि 'मैं जानता हूं वह क्या कहेगा' तो मैं उसकी बकवास सुनने क्यों जाऊंगा ! किसी को सुनने या पढ़ने के पहले आपको पूरा यकीन और इत्मीनान होना चाहिए कि उससे कुछ नया सुनने या पढ़ने को मिलेगा। इसलिए जब इस तथाकथित निस्सार आस्था को छोड़ा तो भूमिका वगैरह लिखने की इस रवायत को भी छोड़ दिया ।
लेकिन श्रीहर्ष उन बेहद सीधे लोगों में रहे जो आस्था की दृढ़ता के बीच रहते हुए भी उससे जुड़ी पराकाष्ठाओं को नहीं सीख पाए । इसलिए आस्थावानों के रहते हुए भी मेरे जैसे अनास्थावान से ऐसे अनुरोध का खतरा ले रहे हैं । एक व्यक्ति के रूप में मेरे वे इतने प्रिय रहे हैं कि मैं चाह कर भी उनका यह अनुरोध नहीं टाल पा रहा हूं । साथ ही यह भी सच है कि उनकी कविताओं पर चाहकर भी भूमिका जैसा कुछ नहीं लिख पा रहा हूं ।आखिर मैं होता कौन हूं उनकी कविताओं को व्याख्यायित या विश्लेषित करने वाला ! किस हैंकड़ी से मैं कविता और उसके पाठकों के बीच में आन खड़ा होने की हिमाकत करूं, सिर्फ इसलिए कि मैं उनके लिखने वाले का दोस्त हूं और उसने दोस्ती के तकाजे से मुझे कुछ लिखने को कहा है ! मेरे हिसाब से ऐसा करना न तो कवि के हित में है, न कविताओं के और न इनके पाठकों के । मेरा हित इनसे सधता हो तो वह अलग बात है ।
इसलिए कविताओं पर सीधे लिखना नहीं है । कविता तो लिखी जाकर खुद यहां बाहैसियत मौजूद हैं और आप उनसे सीधे बात करेंगे ही । मैं क्यों इस सुकून और सीधे संवाद में हस्तक्षेप करुं । फिर भी कवि के बारे में कुछ ऐसी बाते हो सकती हैं जिनसे इस संवाद में मदद मिल सके । न भी मिले तो भी उनके कहने से कुछ बिगड़ने वाला नहीं है । वही यहां कही हैं ।
कलकत्ता में वैसे तो हमारे अनेकानेक मित्र हुए, अधिकांश में हिन्दीभाषी और कुछेक बंगाली भी, लेकिन कलकत्ता से मित्रता श्रीहर्ष और विमल वर्मा नामक दो हिन्दी साहित्य सेवियों के कारण ही हुई । इन दोनों से मित्रता कैसे हुई यह अब ठीक से याद नहीं, लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि यह सातवें दशक के शुरू की घटना है जब हम मार्क्सवादी पार्टी के संपर्क में आए और सहज ही उससे जुड़े देश के अन्य लेखकों के भी सहज संपर्क में आ गए । अब या तो यह भेंट उन बैठकों में हुई होगी जो पार्टी की ओर से समय-समय पर अपने बुद्धिजीवियों से विमर्श के लिए बुलाई जाती थीं । यह भी हो सकता है कि १९७३ की फरवरी में बांदा में लेखकों के पहले सम्मेलन में यह भेंट हुई हो जो प्रगतिशील और जनवादी नए-पुराने सब लेखकों को संगठन पर विचार के लिए बुलाई गई थी और उसमें उस समय के बहुत से पुराने और नए लेखकों ने भाग लिया था ।
यह वो समय था जब आजादी के बाद देश का माहौल बहुत तेजी से बदल रहा था । जनता के आंदोलन उभार पर थे और साम्यवादी पार्टियों के नेतृत्व में संगठित किसानों, मजदूरों, महिलाओं, बुद्धिजीवियों के जन-संगठन खूब सक्रिय थे । उनमें भी पश्चिम बंगाल में तो आग लगी हुई थी । सारे जानांदोलन उसको प्रेरणास्रोत की तरह लेते थे । वहां बात-बात पर जनसमूह हजारों-लाखों की तादाद में सड़क पर उतर आता था ।
एक वाक्य में कहें तो दुनिया के स्तर पर जहां रूस-चीन क्रांति के मक्का-मदीना थे वहीं भारत में पश्चिमी बंगाल को वह दर्जा प्राप्त था । और श्रीहर्ष और विमल वर्मा उसी पश्चिम बंगाल की राजधानी कलकत्ता के वासी थे । वासी क्या कहें, वहां प्रवासी थे । विमल वर्मा पूर्वी उत्तर प्रदेश या उससे लगे बिहार के किसी गांव से आए थे और श्रीहर्ष राजस्थान के बीकानेर से । उस जमाने में काम की तलाश में लोग कलकत्ता या बंबई चले जाते थे और सारा जीवन भर या तो वहां काम करते थे या वहीं बस जाते थे । घर-गांव छोड़कर जाते थे, रिश्ते-नातेदारों को छोड़कर जाते थे और ज्यादातर तो पत्नी-बच्चों तक को छोड़कर जाते थे । इस तरह आधुनिक हिन्दी साहित्य में विरह काव्य में इस स्थिति का बहुत योगदान रहा होगा ।
कलकत्ता और बंबई में प्रवासियों की इस बड़ी संख्या को अपनापा प्रदान करने में इन शहरों में बनी ट्रेड-यूनियनों और उनमें भी मार्क्सवादी पार्टियों की प्रभावी उपस्थिति का बड़ा हाथ रहा । उन्होंने बाहर से आए तमाम लोगों को वहां के स्थानीय लोगों से बराबरी का दर्जा दिलाने में महत्वपूर्ण योगदान किया । यही कारण था कि ये प्रवासी सहज ही साम्यवादी पार्टी के जन-संगठनों या स्वयं पार्टियों से जुड़ गए ।
श्रीहर्ष भी कलकत्ता में रह रहे अन्य अनेक हिन्दी लेखकों की तरह मार्क्सवादी पार्टी में थे । बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि मार्क्सवादी पार्टी के हिन्दी बुद्धिजीवी सर्किल में थे । इसके फायदे और नुकसान दोनों थे । फायदे तो ये थे कि वे उस बड़े जनसमुदाय का हिस्सा थे जो पार्टी से जुड़ा था और जिसमें स्थानीय बंगालियों का बहुमत था । इस संपर्क से बाहर का व्यक्ति स्थानीय हाट-बाजार से सहज ही जुड़कर एक सामूहिक शक्ति का हिस्सा तो हो ही जाता था इससे काम-काज मिलने में भी बहुत सुभीता हो जाता था, अखिल भारतीय स्तर पर लेखक के रूप में जान लिया जाता था । नुकसान यह था कि सत्तर के प्रारंभिक दौर में पार्टी कांग्रेसी हमलों का शिकार बनी हुई थी इसलिए उसकी आंच उससे जुड़े हिन्दी के लेखकों को भी झेलनी पड़ती थी । लेकिन कुल मिलाकर फायदा ही ज्यादा था ।
श्रीहर्ष इसलिए भी अधिक फायदे में थे कि वे पूरब से न आकर राजस्थान से आए थे जहां से आने वालों में ज्यादा संख्या उन मारवाड़ियों की थी जो कलकत्ता में व्यवसाय जमाने या फैलाने आए थे । इन लोगों के यहां काम मिलने में सुविधा होती थी । एक दूसरा फायदा श्रीहर्ष को यह था कि वे कलकत्ता में सपत्नीक थे इसलिए खानाबदोशों की तरह नहीं बल्कि बाकायदा जमे गृहस्थों की तरह क्वार्टर लेकर रहते थे । हम लोग जब कलकत्ता गए तो इसी कारण उनके मेहमान बन गए । विमल वर्मा उन्हीं के साथ उनके क्वार्टर में रहते थे । और भी पार्टी से जुड़े लेखक वहां थे, अयोध्या सिंह, इसराइल, अरुण माहेश्वरी आदि लेकिन पटरी इन दोनों के साथ ही बैठती थी, इसलिए इनके यहां ही रहना हुआ । उस रहने में कलकत्ता, कलकत्ता के लेखकों, वहां के माहौल, सांस्कृतिक पर्यावरण, बंगाल, वामपंथी राजनीति सबको नजदीक से देखने-जानने का मौका मिला ।
सातवें दशक में मार्क्सवादी पार्टी के संघर्ष के दिन थे । उसने बहुत आतंक झेला, हमले सहे, जिससे वहां के कामरेडों की व्यक्तिगत जिंदगी भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती थी । यही कारण है कि उस समय वहां लिखी जा रही जनवादी कविता में एक तरफ जहां आतंक और भय के वातावरण की झलक है वहीं उसके विरुद्ध संघर्ष के जोरदार स्वर भी हैं । देश के दूसरे हिस्सों में इसका आभास कर पाना मुश्किल था क्योंकि बाकी देश और बंगाल की परिस्थितियों में कोई समानता नहीं थी । इसलिए श्रीहर्ष और अन्य कवियों की कविताओं में यह जो आतंक का माहौल या उसे चुनौती देता क्रांतिकारी आवेश दिखाई देता है वह उस समय भी हमको कुछ अतिवाद जैसा लगता था ।
बाद में तो मार्क्सवादी पार्टी अन्य सहयोगी दलों के साथ खुद सत्ता में आ गई जिसने अगले कई सालों तक किसानों में अपना आधार फैलाने के लिए अनथक काम किया । यह सब प्रचार-प्रसार, आशा-विश्वास, निर्माण-भविष्य कविताओं में भी आया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं । धीरे-धीरे पार्टी इतनी मजबूत हो गई कि अपने बलबूते पर ही सत्ता में रह सकती थी । उसका आधार बहुत व्यापक और गहरा हो गया था । इसी क्रम में उसमें ऐसा अहंकार पनपने लगा जो निरंकुशता और निर्विरोध स्थितियों में पनपता है । इसी से पनपते हैं भ्रष्टाचार और विकृतियां । यही सब वहां हुआ और इस सबके बारे में बाहर से जानते हुए भी हम लोग चुप्पी साधे रहे क्योंकि पार्टी का मामला जो था । बंगाल के लोगों को तो इसका अहसास ही नहीं रहा होगा क्योंकि वे सत्ता के फायदों में सहभागी थे । यह सारी स्थितियां सामान्य रूप से वहां लिखी जा रही कविता में और खास तौर पर श्रीहर्ष की कविता में किस रूपाकार और मुहावरे में ढलकर व्यक्त हुईं यह तो उस दौर में लिखी गईं उनकी कविताओं से ही पाठक जानेंगे ।
फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि सत्ता के इस घटाटोप ने रचनाकार या रचना को संपूर्ण में ही अपने में समो लिया । श्रीहर्ष जैसे लोगों के मन में धीरे-धीरे इस सब से मोहभंग होना और बुनियादी सवालों का उठना जरूरी था । उसने कोई स्पष्ट विरोध या विद्रोह का रूप भले ही धारण न किया हो लेकिन उनके प्रारंभिक क्रांतिकारी उत्साह को ठंडा करने का काम तो किया ही होगा । इसे भी उनकी कविता की यात्रा से समझा जा सकता है ।
उसके बाद तो दुनिया के स्तर पर बहुत कुछ घटा और समाजवादी व्यवस्थाएं एक-एक कर ढह गईं । स्वयं पश्चिमी बंगाल में वामपंथी व्यवस्था का चौथाई दशक तक बने रहना कुछ सिद्ध नहीं कर पाया । इसलिए देखना चाहिए कि कवि ने इस सब को कविता के स्तर पर किस तरह से लिया है । दिलचस्प होगा यह देखना कि क्या वह उस बेहूदी अड़ पर कायम है जो कट्टर मार्क्सवादियों की पहचान होती है या उसमें इस सब ने कोई बुनियादी मानवीय सरोकारों की हलचल पैदा की है ।
नौकरी से सेवामुक्त हो कवि अपने संपूर्ण जीवन की कर्मभूमि रहे कलकत्ता को छोड़ वापस बीकानेर में आ बसा । उसके काव्य सरोकारों में अनायास ही जो परिवर्तन हुआ उसे चीन्ह पाना कोई मुश्किल काम नहीं ।
यह लगभग पैंतीस-चालीस साल में फैली कवि की रचना है जिसमें आजादी के बाद सत्तर के दशक के बाद का पूरा इतिहास दर्ज है - अपने भावात्मक, विचारधारात्मक रागरंग लिए । इन कविताओं से गुजरना जहां कवि की व्यक्तिगत जिंदगी के रचनात्मक प्रतिफलन से गुजरना है, वहीं उसके द्वारा देश और जनता के यथार्थ की उकेरी आकृतियों से गुजरना है ।
मुद्दत बाद कलकत्ता के दो पुराने मित्रों का फोन आया कि कविमित्र श्रीहर्ष की कविताओं का एक प्रतिनिधि संकलन आने को है, जिसमें उनके सभी प्रकाशित संकलनों से चुनकर कविताएं ली जाएंगी । यह भी मुझसे अनुरोध किया कि मुझे उनपर भूमिका स्वरूप कुछ लिखना है । संक्षिप्त सी बातचीत के कुछ दिन बाद एक लिफाफे में सभी संकलनों का विवरण और कविताओं की फोटो कापी मिली । बातचीत में यह भी समझाने का अवसर नहीं था कि भूमिकाएं लिखना पुराने जमाने की बातें हैं और कि श्रीहर्ष जैसे पुराने कवि को किसी से भूमिका लिखवाने की जरूरत नहीं है । श्रीहर्ष भले ही कभी मुख्यधारा के चर्चित कवि नहीं रहे, लेकिन जनवाद के प्रभुत्व के जमाने में विचार की प्रतिबद्धताओं के कारण जाने जाते रहे और आज भी जाने जाते हैं ।
पुराने घनिष्ठ मित्र हैं इसलिए भूमिका न भी लिखूँ तो भी लिखकर यह जताना तो अपना फर्ज समझता हूँ कि चाहकर भी भूमिका जैसा कुछ क्यों नहीं लिख पा रहा हूँ । भूमिका न सही, अलग से ही कुछ कहना है ।
कलकत्ता शहर और हिन्दी के जाने-माने कवि श्रीहर्ष की कविताओं का यह एक प्रातिनिधिक संकलन होगा क्योंकि इसमें कवि ने १९७६ में प्रकाशित 'समय से पहले' से लेकर २००८ में प्रकाशित 'सपनों का मौसम' कविता संकलन तक के सात संकलनों से अपनी कविताओं का चुनाव किया है । आप यदि संकलन के नामों से कुछ उनकी काव्य-यात्रा का अंदाज लगाना चाहें तो उनके नाम इस प्रकार हैं
1. समय से पहले १९७६
2. राजा की सवारी १९८०
3. रोशनी की तलाश १९८४
4. मछलियां ठहरे तालाब की १९८७
5. घर का सच १९९३
6. मुरझाए चेहरों की चहल-पहल २०००
7. सपनों का मौसम २००८
यह ब्यौरा इसलिए दिया कि अनेक लोग साहित्य की जन्मपत्रियों से भी कई निष्कर्ष निकालते हैं । उनकी सुविधा के लिए यहां कुछ बातें स्पष्ट कर दूं । यानी १९७६ में जबसे उन्होंने संकलन के रूप में कविताओं को छपवाना शुरू किया तबसे चार साल पर एक संकलन आता रहा, बाद में उसमें कुछ शिथिलता लक्षित की जा सकती है जो बाद के तीन संकलनों में लगभग छह, सात और आठ वर्ष है । नामों के आधार पर कुछ लोग शोध करना चाहें तो उनकी सुविधा के लिए यह कहना होगा कि पहले तीन नाम क्रांतिकारी परंपरा में हैं, चौथा नाम कुछ ठहराव वाला है, पांचवे में बाहर से अंतर्मुख हो घर की ओर देखने जैसा है, छ्ठे में कुछ आशा-निराशा की दोलायमान स्थिति है और सातवां तो यथार्थ के विपरीत सपनों में समा जाने का है । इस तरह लगभग पैंतीस-चालीस वर्षों में फैली यह एक ऐसे प्रतिबद्ध कवि की काव्य यात्रा है जो इस पूरे दौर में वामपंथी विचारधारा से सिद्धांत और व्यवहार के स्तर पर जुड़ा रहा है । फिर भी आप कविताएं पढ़ेंगे तो इस प्रतिबद्धता की खूबियों-खामियों को साफ देख पाएंगे, यह भी कि इसमें कैसे उतार-चढ़ाव आए हैं या कहें चढ़ाव से उतार आए हैं ।
श्रीहर्ष लगभग चालीस साल से हमारे परिचित और मित्र रहे हैं । इसलिए अपनी चुनी हुई कविताओं के आने वाले संकलन के लिए मुझसे कुछ लिखने का अनुरोध करना स्वाभाविक ही है । पुराने वामपंथी लोगों में से अब लोग कम हो रहे हैं और जो बचे हैं वे भी अब वैसे आगमार्का नहीं रह गए हैं जैसे एक जमाने में रहा करते थे ।मैं तो बहुत पहले से ही क्रांतिकारियों के दस्ते से अलग हो (उस समय की शब्दावली में कहें तो गद्दारी कर) कुछ गुहावासी जैसा हो गया था, जो लोग सतत रहे उनकी धार भी अब वैसी पैनी नहीं रह गयी । इसलिए कविमित्र श्रीहर्ष का ध्यान मेरे जैसे पुराने 'साथी' की तरफ गया होगा जो क्रांति के पक्ष में तीखी न सही लेकिन 'तीखी ' बात कहने के लिए तो बदनाम रहा ही आया है । वैसे भी 'ओल्ड इज गोल्ड' के हिसाब से यह अनुरोध सही ही माना जायगा ।
श्रीहर्ष के स्वभाव और सोचने-समझने के ढंग में कोई खास बदलाव नहीं आया, यह इस अनुरोध से ही जाहिर है । लिखवाने को तो और बहुत से लोग अपनी प्रकाशित होने वाली किताबों की भूमिका अन्य किसी से लिखवाते रहे हैं, लेकिन बात उस जमाने की है जब जनवादियों का ऐसा करना एक खास मकसद से हुआ करता था । यानी भूमिका में एक तो वर्तमान परिस्थितियों का जनवादी आकलन हो और साथ ही किताब में लिखे हुए का जनवादी विश्लेषण हो । कोई किताब न पढ़ महज भूमिका ही देख ले तो स्पष्ट हो जाय कि उसमें क्या है ।
ऐसा करना उस किसी भी व्यक्ति के लिए कोई मुश्किल काम नहीं है जो किसी भी रूप में साहित्य से जुड़ा है । बल्कि यह तो किसी के लिए भी गौरव की बात होगी कि हिन्दी का इतना वरिष्ट कवि उसे इतना सम्मान दे रहा है कि अपने जीवन भर में रची कविताओं पर उसकी राय को भूमिका के रूप में छापने का प्रस्ताव कर रहा है। एक समय तक मैंने स्वयं यह भूमिका बखूबी निभाई है । बहुत से लोग अब भी बहुत सी पुरानी रवायतों को निभाते चले जा रहे हैं । इधर कुछेक सभा-गोष्ठियों में जाकर मैंने पाया कि ज्यादातर लोग आज भी लगभग वही बात दुहरा रहे हैं जो वे पच्चीस साल पहले कह रहे थे । हालांकि यह शर्मनाक और दुखद है लेकिन जनवादी साहित्यिक हलकों में इसे आस्था की दृढ़ता का सूचक माना जाता है । मैं ऐसी निस्सार आस्था और दृढ़ता का कभी कायल नहीं रहा । कोई कितना भी नामी-गिरामी व्यक्ति हो वक्ता के रूप में लेकिन यदि उसका नाम सुनते ही मुझे यह आभास हो कि 'मैं जानता हूं वह क्या कहेगा' तो मैं उसकी बकवास सुनने क्यों जाऊंगा ! किसी को सुनने या पढ़ने के पहले आपको पूरा यकीन और इत्मीनान होना चाहिए कि उससे कुछ नया सुनने या पढ़ने को मिलेगा। इसलिए जब इस तथाकथित निस्सार आस्था को छोड़ा तो भूमिका वगैरह लिखने की इस रवायत को भी छोड़ दिया ।
लेकिन श्रीहर्ष उन बेहद सीधे लोगों में रहे जो आस्था की दृढ़ता के बीच रहते हुए भी उससे जुड़ी पराकाष्ठाओं को नहीं सीख पाए । इसलिए आस्थावानों के रहते हुए भी मेरे जैसे अनास्थावान से ऐसे अनुरोध का खतरा ले रहे हैं । एक व्यक्ति के रूप में मेरे वे इतने प्रिय रहे हैं कि मैं चाह कर भी उनका यह अनुरोध नहीं टाल पा रहा हूं । साथ ही यह भी सच है कि उनकी कविताओं पर चाहकर भी भूमिका जैसा कुछ नहीं लिख पा रहा हूं ।आखिर मैं होता कौन हूं उनकी कविताओं को व्याख्यायित या विश्लेषित करने वाला ! किस हैंकड़ी से मैं कविता और उसके पाठकों के बीच में आन खड़ा होने की हिमाकत करूं, सिर्फ इसलिए कि मैं उनके लिखने वाले का दोस्त हूं और उसने दोस्ती के तकाजे से मुझे कुछ लिखने को कहा है ! मेरे हिसाब से ऐसा करना न तो कवि के हित में है, न कविताओं के और न इनके पाठकों के । मेरा हित इनसे सधता हो तो वह अलग बात है ।
इसलिए कविताओं पर सीधे लिखना नहीं है । कविता तो लिखी जाकर खुद यहां बाहैसियत मौजूद हैं और आप उनसे सीधे बात करेंगे ही । मैं क्यों इस सुकून और सीधे संवाद में हस्तक्षेप करुं । फिर भी कवि के बारे में कुछ ऐसी बाते हो सकती हैं जिनसे इस संवाद में मदद मिल सके । न भी मिले तो भी उनके कहने से कुछ बिगड़ने वाला नहीं है । वही यहां कही हैं ।
कलकत्ता में वैसे तो हमारे अनेकानेक मित्र हुए, अधिकांश में हिन्दीभाषी और कुछेक बंगाली भी, लेकिन कलकत्ता से मित्रता श्रीहर्ष और विमल वर्मा नामक दो हिन्दी साहित्य सेवियों के कारण ही हुई । इन दोनों से मित्रता कैसे हुई यह अब ठीक से याद नहीं, लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि यह सातवें दशक के शुरू की घटना है जब हम मार्क्सवादी पार्टी के संपर्क में आए और सहज ही उससे जुड़े देश के अन्य लेखकों के भी सहज संपर्क में आ गए । अब या तो यह भेंट उन बैठकों में हुई होगी जो पार्टी की ओर से समय-समय पर अपने बुद्धिजीवियों से विमर्श के लिए बुलाई जाती थीं । यह भी हो सकता है कि १९७३ की फरवरी में बांदा में लेखकों के पहले सम्मेलन में यह भेंट हुई हो जो प्रगतिशील और जनवादी नए-पुराने सब लेखकों को संगठन पर विचार के लिए बुलाई गई थी और उसमें उस समय के बहुत से पुराने और नए लेखकों ने भाग लिया था ।
यह वो समय था जब आजादी के बाद देश का माहौल बहुत तेजी से बदल रहा था । जनता के आंदोलन उभार पर थे और साम्यवादी पार्टियों के नेतृत्व में संगठित किसानों, मजदूरों, महिलाओं, बुद्धिजीवियों के जन-संगठन खूब सक्रिय थे । उनमें भी पश्चिम बंगाल में तो आग लगी हुई थी । सारे जानांदोलन उसको प्रेरणास्रोत की तरह लेते थे । वहां बात-बात पर जनसमूह हजारों-लाखों की तादाद में सड़क पर उतर आता था ।
एक वाक्य में कहें तो दुनिया के स्तर पर जहां रूस-चीन क्रांति के मक्का-मदीना थे वहीं भारत में पश्चिमी बंगाल को वह दर्जा प्राप्त था । और श्रीहर्ष और विमल वर्मा उसी पश्चिम बंगाल की राजधानी कलकत्ता के वासी थे । वासी क्या कहें, वहां प्रवासी थे । विमल वर्मा पूर्वी उत्तर प्रदेश या उससे लगे बिहार के किसी गांव से आए थे और श्रीहर्ष राजस्थान के बीकानेर से । उस जमाने में काम की तलाश में लोग कलकत्ता या बंबई चले जाते थे और सारा जीवन भर या तो वहां काम करते थे या वहीं बस जाते थे । घर-गांव छोड़कर जाते थे, रिश्ते-नातेदारों को छोड़कर जाते थे और ज्यादातर तो पत्नी-बच्चों तक को छोड़कर जाते थे । इस तरह आधुनिक हिन्दी साहित्य में विरह काव्य में इस स्थिति का बहुत योगदान रहा होगा ।
कलकत्ता और बंबई में प्रवासियों की इस बड़ी संख्या को अपनापा प्रदान करने में इन शहरों में बनी ट्रेड-यूनियनों और उनमें भी मार्क्सवादी पार्टियों की प्रभावी उपस्थिति का बड़ा हाथ रहा । उन्होंने बाहर से आए तमाम लोगों को वहां के स्थानीय लोगों से बराबरी का दर्जा दिलाने में महत्वपूर्ण योगदान किया । यही कारण था कि ये प्रवासी सहज ही साम्यवादी पार्टी के जन-संगठनों या स्वयं पार्टियों से जुड़ गए ।
श्रीहर्ष भी कलकत्ता में रह रहे अन्य अनेक हिन्दी लेखकों की तरह मार्क्सवादी पार्टी में थे । बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि मार्क्सवादी पार्टी के हिन्दी बुद्धिजीवी सर्किल में थे । इसके फायदे और नुकसान दोनों थे । फायदे तो ये थे कि वे उस बड़े जनसमुदाय का हिस्सा थे जो पार्टी से जुड़ा था और जिसमें स्थानीय बंगालियों का बहुमत था । इस संपर्क से बाहर का व्यक्ति स्थानीय हाट-बाजार से सहज ही जुड़कर एक सामूहिक शक्ति का हिस्सा तो हो ही जाता था इससे काम-काज मिलने में भी बहुत सुभीता हो जाता था, अखिल भारतीय स्तर पर लेखक के रूप में जान लिया जाता था । नुकसान यह था कि सत्तर के प्रारंभिक दौर में पार्टी कांग्रेसी हमलों का शिकार बनी हुई थी इसलिए उसकी आंच उससे जुड़े हिन्दी के लेखकों को भी झेलनी पड़ती थी । लेकिन कुल मिलाकर फायदा ही ज्यादा था ।
श्रीहर्ष इसलिए भी अधिक फायदे में थे कि वे पूरब से न आकर राजस्थान से आए थे जहां से आने वालों में ज्यादा संख्या उन मारवाड़ियों की थी जो कलकत्ता में व्यवसाय जमाने या फैलाने आए थे । इन लोगों के यहां काम मिलने में सुविधा होती थी । एक दूसरा फायदा श्रीहर्ष को यह था कि वे कलकत्ता में सपत्नीक थे इसलिए खानाबदोशों की तरह नहीं बल्कि बाकायदा जमे गृहस्थों की तरह क्वार्टर लेकर रहते थे । हम लोग जब कलकत्ता गए तो इसी कारण उनके मेहमान बन गए । विमल वर्मा उन्हीं के साथ उनके क्वार्टर में रहते थे । और भी पार्टी से जुड़े लेखक वहां थे, अयोध्या सिंह, इसराइल, अरुण माहेश्वरी आदि लेकिन पटरी इन दोनों के साथ ही बैठती थी, इसलिए इनके यहां ही रहना हुआ । उस रहने में कलकत्ता, कलकत्ता के लेखकों, वहां के माहौल, सांस्कृतिक पर्यावरण, बंगाल, वामपंथी राजनीति सबको नजदीक से देखने-जानने का मौका मिला ।
सातवें दशक में मार्क्सवादी पार्टी के संघर्ष के दिन थे । उसने बहुत आतंक झेला, हमले सहे, जिससे वहां के कामरेडों की व्यक्तिगत जिंदगी भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती थी । यही कारण है कि उस समय वहां लिखी जा रही जनवादी कविता में एक तरफ जहां आतंक और भय के वातावरण की झलक है वहीं उसके विरुद्ध संघर्ष के जोरदार स्वर भी हैं । देश के दूसरे हिस्सों में इसका आभास कर पाना मुश्किल था क्योंकि बाकी देश और बंगाल की परिस्थितियों में कोई समानता नहीं थी । इसलिए श्रीहर्ष और अन्य कवियों की कविताओं में यह जो आतंक का माहौल या उसे चुनौती देता क्रांतिकारी आवेश दिखाई देता है वह उस समय भी हमको कुछ अतिवाद जैसा लगता था ।
बाद में तो मार्क्सवादी पार्टी अन्य सहयोगी दलों के साथ खुद सत्ता में आ गई जिसने अगले कई सालों तक किसानों में अपना आधार फैलाने के लिए अनथक काम किया । यह सब प्रचार-प्रसार, आशा-विश्वास, निर्माण-भविष्य कविताओं में भी आया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं । धीरे-धीरे पार्टी इतनी मजबूत हो गई कि अपने बलबूते पर ही सत्ता में रह सकती थी । उसका आधार बहुत व्यापक और गहरा हो गया था । इसी क्रम में उसमें ऐसा अहंकार पनपने लगा जो निरंकुशता और निर्विरोध स्थितियों में पनपता है । इसी से पनपते हैं भ्रष्टाचार और विकृतियां । यही सब वहां हुआ और इस सबके बारे में बाहर से जानते हुए भी हम लोग चुप्पी साधे रहे क्योंकि पार्टी का मामला जो था । बंगाल के लोगों को तो इसका अहसास ही नहीं रहा होगा क्योंकि वे सत्ता के फायदों में सहभागी थे । यह सारी स्थितियां सामान्य रूप से वहां लिखी जा रही कविता में और खास तौर पर श्रीहर्ष की कविता में किस रूपाकार और मुहावरे में ढलकर व्यक्त हुईं यह तो उस दौर में लिखी गईं उनकी कविताओं से ही पाठक जानेंगे ।
फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि सत्ता के इस घटाटोप ने रचनाकार या रचना को संपूर्ण में ही अपने में समो लिया । श्रीहर्ष जैसे लोगों के मन में धीरे-धीरे इस सब से मोहभंग होना और बुनियादी सवालों का उठना जरूरी था । उसने कोई स्पष्ट विरोध या विद्रोह का रूप भले ही धारण न किया हो लेकिन उनके प्रारंभिक क्रांतिकारी उत्साह को ठंडा करने का काम तो किया ही होगा । इसे भी उनकी कविता की यात्रा से समझा जा सकता है ।
उसके बाद तो दुनिया के स्तर पर बहुत कुछ घटा और समाजवादी व्यवस्थाएं एक-एक कर ढह गईं । स्वयं पश्चिमी बंगाल में वामपंथी व्यवस्था का चौथाई दशक तक बने रहना कुछ सिद्ध नहीं कर पाया । इसलिए देखना चाहिए कि कवि ने इस सब को कविता के स्तर पर किस तरह से लिया है । दिलचस्प होगा यह देखना कि क्या वह उस बेहूदी अड़ पर कायम है जो कट्टर मार्क्सवादियों की पहचान होती है या उसमें इस सब ने कोई बुनियादी मानवीय सरोकारों की हलचल पैदा की है ।
नौकरी से सेवामुक्त हो कवि अपने संपूर्ण जीवन की कर्मभूमि रहे कलकत्ता को छोड़ वापस बीकानेर में आ बसा । उसके काव्य सरोकारों में अनायास ही जो परिवर्तन हुआ उसे चीन्ह पाना कोई मुश्किल काम नहीं ।
यह लगभग पैंतीस-चालीस साल में फैली कवि की रचना है जिसमें आजादी के बाद सत्तर के दशक के बाद का पूरा इतिहास दर्ज है - अपने भावात्मक, विचारधारात्मक रागरंग लिए । इन कविताओं से गुजरना जहां कवि की व्यक्तिगत जिंदगी के रचनात्मक प्रतिफलन से गुजरना है, वहीं उसके द्वारा देश और जनता के यथार्थ की उकेरी आकृतियों से गुजरना है ।
(निवेदन -चाहता था श्रीहर्ष की एक तस्वीर यहाँ लगता पर मेरा स्कैनर खराब है और इंटरनेट पर उनकी कोई भी तस्वीर उपलब्ध नहीं है. साथियों से सहयोग की अपेक्षा है.)
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