आज आप का यह अड्डा अपने पांच साल पूरे कर रहा है. और इत्तेफ़ाक़ से यह कबाड़खाने पर लगने वाली ढाई हजारवीं पोस्ट है. ज़ाहिर है आप लोगों के सहयोग और प्रेम ने ही इस उपलब्धि को संभव बनाया. इस के लिए धन्यवाद. मुझे कभी लगता ही नहीं था कि बेहद हलके-फुल्के तरीके से शुरू किया गया यह काम इतने दिनों तक चल जाएगा.
देखिये कब तक और चलता है.
इन पांच सालों में बहुत कुछ बदला है सिवा मूलभूत सच्चाइयों के. सारे संकट और गहरा चुके हैं.
खैर.
इस मौक़े पर मैं चार साल और एक दिन पहले कबाड़ी पंकज श्रीवास्तव द्वारा इस ब्लॉग पर लगाई गयी एक पोस्ट को दोबारा लगा रहा हूँ.
सॉरी, भगत सिंह .. सॉरी!
प्यारे भगत सिंह,
आज तुम्हारा एक सौ एकवां जन्मदिन है. २८ सितंबर २००८, दिन रविवार. ये बात मुझे तब पता चली जब मैं अपनी कुछ पुरानी किताबे कबाड़ी वाले को बेचने जा रहा था. हमने तय किया था कि इस वीकएंड पर पिज्जा खाने के लिए पैसे का इंतजाम पुरानी किताबें बेचकर किया जाए. दरअसल महीने का आखिरी है और मेरे क्रेडिट कार्ड की लिमिट पहले ही पार हो चुकी है. ऐसे में फिजूलखर्ची करना समझदारी नहीं. तमाम किताबें और आल्मारी तो पहले ही बेच चुका, पर पत्नी ने कुछ किताबें फिर भी रख ली थीं. खासतौर पर जिन्हें खरीदने के बाद मैंने दस्तखत करके तारीख डाली थी और उसे उपहार में दिया था. ये शादी के पहले की बात है. लेकिन अब दिल्ली के छोटे से फ्लैट में रहते हुए उसे भी समझ में आ गया है कि किताबें जगह काफी घेरती हैं. बच्चों को सन्डे-सन्डे पिज्जा खिलाने का वादा उसे परेशान कर रहा था. यूं भी किताबों के पहले पन्ने पर किए गए मेरे दस्तखत अब खासे बदरंग हो चुके हैं. इसलिए कबाड़ी बुला लिया था. इसी बीच मुझे तुम्हारी जीवनी दिख गई. बी.ए में खरीदी थी. इसमें तुम्हारे लेख भी थे जो कभी मुझे जबानी याद थे. कबाड़ी को सौंपने के पहले मैंने एक बार कुछ पन्ने उलटे तो कहीं दिख गया कि तुम २८ सितंबर २००८ को पैदा हुए थे.
...कबाड़ी करीब ढाई सौ रुपये देकर जा चुका है. पिज्जा का आर्डर दे दिया है. सोचता हूं कि जब तक पिज्जा आता है, तुम्हें एक पत्र लिख दूं . ताकि तुम्हें मेरा किताब बेचना बुरा न लगे. वैसे भी अब मुझे सारी बातें साफ-साफ बता देनी चाहिए. दुनिया काफी आगे बढ़ गई है. बेहतर हो कि तुम भी किसी भ्रम में न रहो, जैसे मैं नहीं हूं.
...तुम सोच रहे होगे कि सूचना क्रांति के दिनों में तुम्हारे जन्मदिन की जानकारी इतनी छिपी क्यों रह गई. गलती मेरी नहीं है. मैंने सुबह चार-पांच अखबार देखे थे और कई न्यूज चैनल भी सर्फ किए थे. तुम कहीं नहीं थे. हां, लता मंगेशकर के जन्मदिन के बारे में जानकारी जरूर दी गई थी. कहीं-कहीं उनका गया ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’... भी बज रहा था लेकिन तुम्हारी तस्वीर नहीं दिखा...या हो सकता है मेरी नजर न पड़ी हो. वैसे कोई छाप या दिखा भी देता तो क्या फर्क पड़ जाता. तुम्हारे बारे में सोचना तो हमने कब का बंद कर दिया है.
... तुम्हें लगता होगा कि तुमने असेंबली में बम फेंककर बहुत बड़ा तीर मारा था. लेकिन आजकल दिल्ली में आए दिन बम धमाके हो रहे हैं और तमाम बेगुनाह मारे जा रहे हैं. ये सारा काम वे कमउम्र नौजवान कर रहे हैं जिन पर तुम कभी बहुत भरोसा जताते थे. कहते थे कि नौजवानी जीवन का बसंत काल है जिसे देश के काम आना चाहिए. एक ऐसा देश बनाने में जुट जाना चाहिए जहां कोई शोषण न हो, गैरबराबरी न हो, सबको बराबरी मिले...वगैरह-वगैरह. लेकिन फिलहाल इन फिजूल बातों से नौजवान अपने को दूर कर चुके हैं. उनका एक तबका अमेरिका में बसने के लिए मरा जा रहा है, दूसरा ऐसा है जिसकी देशभक्ति सिर्फ क्रिकेट मैच के दौरान जगती है. कुछ ऐसे जिन्हें तुम्हारे हैट से ज्यादा ओसामा बिन लादेन की दाढ़ी अपनी ओर खींच रही है और कुछ इसे हिंदू राष्ट्र बनाने में जुटे हुए हैं. सब एक दूसरे के दुश्मन बन गए हैं और जरा सी बात पर किसी की जान ले लेना उनके बाएं हाथ का खेल बन गया है. तुम अश्फाक उल्लाह खान के साथ मिलकर जो देश बनाना चाहते थे, वो अब सपनों से भी बाहर हो चुका है. बल्कि ऐसी दोस्तियां भी सपना हो रही हैं.
पर तुम इन बातों को कहां समझ पाओगे. तुम तो नास्तिक थे. तुम्हीं ने लिखा था- “मैं नास्तिक क्यों हूं.“… उसमें तुमने ईश्वर को नकारा था. कहा था कि अगर भारत की गुलामी ईश्वार की इच्छा का परिणाम है, अगर करोड़ों लोग शोषण और दमन की चक्की में उसकी वजह से पिस रहे हैं तो वो नीरो है, चंगेज खां है, उसका नाश हो!.....तो सुन लो, न ईश्वर का नाश हुआ, न धर्म का. मुल्ला, पंडित, ज्योतिषी, ई बाबा, ऊ बाबा, अलान बाबा, फलान बाबा सबने मिलकर युद्द छेड़ दिया है. अखबार, न्यूज चैनल, पुलिस, सरकार, सब इस मुहिम में साथ हैं. नौजवानों के बीच तुम कहीं नहीं हो. वे घर से निकलने के पहले न्यूज चैनलों के ज्योतिषियों की राय सुनते हैं. उसी के मुताबिक कपड़ों का रंग और दिशा तय करते हैं. तुम्हारी हस्ती एक तस्वीर से ज्यादा नहीं. उसमें भी घपला हो गया है. तुम लाख नास्तिक रहे हो, लोग तुम्हें सिख बनाने पर उतारू हैं. संसद परिसर में तुम्हारी मूर्ति लगा दी गई है, जिसमें तुम पगड़ी पहने हुए हो. तुम्हारी शक्ल ऐसी बनी है कि तुम्हारे खानदान वाले भी नहीं पहचान पाए. पहचानी गई तो सिर्फ पगड़ी.
और हां, तुम जिस साम्राज्यवाद से सबसे ज्यादा परेशान रहते थे, वो उतना बुरा भी नहीं निकला. तुम तो कहते थे कि विश्वबंधुत्व तभी कायम हो सकता है जब साम्राज्यवाद का नाश हो और साम्यवाद की स्थापना हो. लेकिन जिन्हें साम्राज्यवादी कहा जाता था वे तो बड़े शांतिवादी निकले. वे अशांति फैलाने वालों का सफाया करने मे जुटे हैं. अभी हाल में उन्होंने ईराक और अफगानिस्तान को नेस्तनाबूद करके शांति स्थापित कर दी है. उनकी रुचि अब हमपर शासन करने की नहीं है. वे हमसे अच्छा रिश्ता बना रहे हैं. वे हमें तरह-तरह के हथियार, परमाणु बिजली घर अजब-गजब कंप्यूटर और मोबाइल फोन सौंप रहे हैं. यहां तक कि बेचारे साफ पानी और कोल्ड ड्रिंक्स की बोतलों को भी हिंदुस्तान के गांव-गांव पहुंचाने में जुटे हैं. हम भी उन्हें बड़े भाई जैसा सम्मान दे रहे हैं. बल्कि उनसे बेहतर बातचीत होती रहे, इसके लिए हमने अंग्रेजी को दिल से अपना लिया है. तुम्हारे पंजाब के ही पैदा हुए सरदार मनमोहन सिंह आजकल देश के प्रधानमंत्री हैं. वे बाकायदा लंदन जाकर आभार जता आए हैं कि उन्होंने हमें टेक्नोलाजी दी और अंग्रेजी सिखाई. हम अहसान करने वालों को भूलते नहीं. हम उन्हें अपने खेत सौंपने की भी सोच रहे हैं. वे कहते हैं कि उनके बीज ज्यादा पैदावार देते हैं. थोड़ी गलतफहमी हो गई, इस वजह से कुछ हजार किसानों ने खुदकुशी जरूर कर ली, पर जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा. बड़े भाई ने भरोसा दिलाया है.
...और हां, जिस साम्यवाद की तुम बात करते थे, वो अब किसी की समझ में नहीं आता. हालांकि ऐसी बातें करने वाली कुछ पार्टियां बाकायदा मौजूद हैं. कुछ प्रदेशों में उनका शासन भी है. लेकन फिलहाल वे तुम्हारी तरह किसानों और मजदूरों के चक्कर में नहीं पड़ी हैं. वे एक कार कारखाने के लिए किसानों पर गोली चलाने से नहीं चूकतीं. कुछ ऐसे भी साम्यवादी हैं जो जंगलों में छिपकर क्रांति करने का सपना देख रहे हैं. पर न उन्हें जनता की परवाह है न जनता को उनकी. वैसे जिस रूसी क्रांति और लेनिन का तुम बार-बार जिक्र करते थे, वे अब भूली कहानी बन चुके हैं या फिर इतिहास में दर्ज एक मजाक.
६ जून १९२९ को तुमने लियोनार्ड मिडिल्टन की अदालत में बयान दिया था कि “क्रांति से तुम्हारा मतलब है कि अन्याय पर आधारित मौजूदा व्यवस्था में आमूल परिवर्तन. धनिक समाज एक भयानक ज्वालामुखी के मुख पर बैठा रंगरेलियां मना रहा है और करोड़ों शोषित एक खड्ड के कगार पर हैं, इसे बदलना होगा.“… तो समझ लो कि तुम्हारी बात सुनने वाला कोई नहीं है. भारत में जो कुछ हो रहा है वो भी आमूल परिवर्तन ही है.
... अगर तुम फिर से भारत में जन्म लेकर कुछ करने को सोच रहे हो तो भूल जाओ. कवि शैलेंद्र ने बहुत पहले लिखा था कि “भगत सिंह इस बार न लेना काया भरतवासी की, देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फांसी की’...तब ये व्यंग्य लगता था. पर अब सचमुच ऐसा होगा. मेरे इलाके के दरोगा देवीदत्त मिश्र इंस्पेक्टर बनना चाहते हैं. एक बड़े एन्काउंटर स्पेशलिस्ट की टीम में हैं. तुम अगर अपने पुराने सिद्धांतों पर अमल करते मिल गए तो गोली मारते देर नहीं लगाएंगे. अब अंगरेजी शासन नहीं है कि नाटक के लिए ही सही, मुकदमा चलाना जरूरी समझा जाए. मिश्रा जी तुम्हें मारकर शर्तिया प्रमोशन पा लेंगे.
इसलिए जहां हो, वहीं बैठे रहो. मुझे भी अब इजाजत दो. दरवाजे की घंटी बज गई है. शायद पिज्जा वाला आ गया है.
तुम्हारा कोई नहीं
पंकज...
देखिये कब तक और चलता है.
इन पांच सालों में बहुत कुछ बदला है सिवा मूलभूत सच्चाइयों के. सारे संकट और गहरा चुके हैं.
खैर.
इस मौक़े पर मैं चार साल और एक दिन पहले कबाड़ी पंकज श्रीवास्तव द्वारा इस ब्लॉग पर लगाई गयी एक पोस्ट को दोबारा लगा रहा हूँ.
सॉरी, भगत सिंह .. सॉरी!
प्यारे भगत सिंह,
आज तुम्हारा एक सौ एकवां जन्मदिन है. २८ सितंबर २००८, दिन रविवार. ये बात मुझे तब पता चली जब मैं अपनी कुछ पुरानी किताबे कबाड़ी वाले को बेचने जा रहा था. हमने तय किया था कि इस वीकएंड पर पिज्जा खाने के लिए पैसे का इंतजाम पुरानी किताबें बेचकर किया जाए. दरअसल महीने का आखिरी है और मेरे क्रेडिट कार्ड की लिमिट पहले ही पार हो चुकी है. ऐसे में फिजूलखर्ची करना समझदारी नहीं. तमाम किताबें और आल्मारी तो पहले ही बेच चुका, पर पत्नी ने कुछ किताबें फिर भी रख ली थीं. खासतौर पर जिन्हें खरीदने के बाद मैंने दस्तखत करके तारीख डाली थी और उसे उपहार में दिया था. ये शादी के पहले की बात है. लेकिन अब दिल्ली के छोटे से फ्लैट में रहते हुए उसे भी समझ में आ गया है कि किताबें जगह काफी घेरती हैं. बच्चों को सन्डे-सन्डे पिज्जा खिलाने का वादा उसे परेशान कर रहा था. यूं भी किताबों के पहले पन्ने पर किए गए मेरे दस्तखत अब खासे बदरंग हो चुके हैं. इसलिए कबाड़ी बुला लिया था. इसी बीच मुझे तुम्हारी जीवनी दिख गई. बी.ए में खरीदी थी. इसमें तुम्हारे लेख भी थे जो कभी मुझे जबानी याद थे. कबाड़ी को सौंपने के पहले मैंने एक बार कुछ पन्ने उलटे तो कहीं दिख गया कि तुम २८ सितंबर २००८ को पैदा हुए थे.
...कबाड़ी करीब ढाई सौ रुपये देकर जा चुका है. पिज्जा का आर्डर दे दिया है. सोचता हूं कि जब तक पिज्जा आता है, तुम्हें एक पत्र लिख दूं . ताकि तुम्हें मेरा किताब बेचना बुरा न लगे. वैसे भी अब मुझे सारी बातें साफ-साफ बता देनी चाहिए. दुनिया काफी आगे बढ़ गई है. बेहतर हो कि तुम भी किसी भ्रम में न रहो, जैसे मैं नहीं हूं.
...तुम सोच रहे होगे कि सूचना क्रांति के दिनों में तुम्हारे जन्मदिन की जानकारी इतनी छिपी क्यों रह गई. गलती मेरी नहीं है. मैंने सुबह चार-पांच अखबार देखे थे और कई न्यूज चैनल भी सर्फ किए थे. तुम कहीं नहीं थे. हां, लता मंगेशकर के जन्मदिन के बारे में जानकारी जरूर दी गई थी. कहीं-कहीं उनका गया ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’... भी बज रहा था लेकिन तुम्हारी तस्वीर नहीं दिखा...या हो सकता है मेरी नजर न पड़ी हो. वैसे कोई छाप या दिखा भी देता तो क्या फर्क पड़ जाता. तुम्हारे बारे में सोचना तो हमने कब का बंद कर दिया है.
... तुम्हें लगता होगा कि तुमने असेंबली में बम फेंककर बहुत बड़ा तीर मारा था. लेकिन आजकल दिल्ली में आए दिन बम धमाके हो रहे हैं और तमाम बेगुनाह मारे जा रहे हैं. ये सारा काम वे कमउम्र नौजवान कर रहे हैं जिन पर तुम कभी बहुत भरोसा जताते थे. कहते थे कि नौजवानी जीवन का बसंत काल है जिसे देश के काम आना चाहिए. एक ऐसा देश बनाने में जुट जाना चाहिए जहां कोई शोषण न हो, गैरबराबरी न हो, सबको बराबरी मिले...वगैरह-वगैरह. लेकिन फिलहाल इन फिजूल बातों से नौजवान अपने को दूर कर चुके हैं. उनका एक तबका अमेरिका में बसने के लिए मरा जा रहा है, दूसरा ऐसा है जिसकी देशभक्ति सिर्फ क्रिकेट मैच के दौरान जगती है. कुछ ऐसे जिन्हें तुम्हारे हैट से ज्यादा ओसामा बिन लादेन की दाढ़ी अपनी ओर खींच रही है और कुछ इसे हिंदू राष्ट्र बनाने में जुटे हुए हैं. सब एक दूसरे के दुश्मन बन गए हैं और जरा सी बात पर किसी की जान ले लेना उनके बाएं हाथ का खेल बन गया है. तुम अश्फाक उल्लाह खान के साथ मिलकर जो देश बनाना चाहते थे, वो अब सपनों से भी बाहर हो चुका है. बल्कि ऐसी दोस्तियां भी सपना हो रही हैं.
पर तुम इन बातों को कहां समझ पाओगे. तुम तो नास्तिक थे. तुम्हीं ने लिखा था- “मैं नास्तिक क्यों हूं.“… उसमें तुमने ईश्वर को नकारा था. कहा था कि अगर भारत की गुलामी ईश्वार की इच्छा का परिणाम है, अगर करोड़ों लोग शोषण और दमन की चक्की में उसकी वजह से पिस रहे हैं तो वो नीरो है, चंगेज खां है, उसका नाश हो!.....तो सुन लो, न ईश्वर का नाश हुआ, न धर्म का. मुल्ला, पंडित, ज्योतिषी, ई बाबा, ऊ बाबा, अलान बाबा, फलान बाबा सबने मिलकर युद्द छेड़ दिया है. अखबार, न्यूज चैनल, पुलिस, सरकार, सब इस मुहिम में साथ हैं. नौजवानों के बीच तुम कहीं नहीं हो. वे घर से निकलने के पहले न्यूज चैनलों के ज्योतिषियों की राय सुनते हैं. उसी के मुताबिक कपड़ों का रंग और दिशा तय करते हैं. तुम्हारी हस्ती एक तस्वीर से ज्यादा नहीं. उसमें भी घपला हो गया है. तुम लाख नास्तिक रहे हो, लोग तुम्हें सिख बनाने पर उतारू हैं. संसद परिसर में तुम्हारी मूर्ति लगा दी गई है, जिसमें तुम पगड़ी पहने हुए हो. तुम्हारी शक्ल ऐसी बनी है कि तुम्हारे खानदान वाले भी नहीं पहचान पाए. पहचानी गई तो सिर्फ पगड़ी.
और हां, तुम जिस साम्राज्यवाद से सबसे ज्यादा परेशान रहते थे, वो उतना बुरा भी नहीं निकला. तुम तो कहते थे कि विश्वबंधुत्व तभी कायम हो सकता है जब साम्राज्यवाद का नाश हो और साम्यवाद की स्थापना हो. लेकिन जिन्हें साम्राज्यवादी कहा जाता था वे तो बड़े शांतिवादी निकले. वे अशांति फैलाने वालों का सफाया करने मे जुटे हैं. अभी हाल में उन्होंने ईराक और अफगानिस्तान को नेस्तनाबूद करके शांति स्थापित कर दी है. उनकी रुचि अब हमपर शासन करने की नहीं है. वे हमसे अच्छा रिश्ता बना रहे हैं. वे हमें तरह-तरह के हथियार, परमाणु बिजली घर अजब-गजब कंप्यूटर और मोबाइल फोन सौंप रहे हैं. यहां तक कि बेचारे साफ पानी और कोल्ड ड्रिंक्स की बोतलों को भी हिंदुस्तान के गांव-गांव पहुंचाने में जुटे हैं. हम भी उन्हें बड़े भाई जैसा सम्मान दे रहे हैं. बल्कि उनसे बेहतर बातचीत होती रहे, इसके लिए हमने अंग्रेजी को दिल से अपना लिया है. तुम्हारे पंजाब के ही पैदा हुए सरदार मनमोहन सिंह आजकल देश के प्रधानमंत्री हैं. वे बाकायदा लंदन जाकर आभार जता आए हैं कि उन्होंने हमें टेक्नोलाजी दी और अंग्रेजी सिखाई. हम अहसान करने वालों को भूलते नहीं. हम उन्हें अपने खेत सौंपने की भी सोच रहे हैं. वे कहते हैं कि उनके बीज ज्यादा पैदावार देते हैं. थोड़ी गलतफहमी हो गई, इस वजह से कुछ हजार किसानों ने खुदकुशी जरूर कर ली, पर जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा. बड़े भाई ने भरोसा दिलाया है.
...और हां, जिस साम्यवाद की तुम बात करते थे, वो अब किसी की समझ में नहीं आता. हालांकि ऐसी बातें करने वाली कुछ पार्टियां बाकायदा मौजूद हैं. कुछ प्रदेशों में उनका शासन भी है. लेकन फिलहाल वे तुम्हारी तरह किसानों और मजदूरों के चक्कर में नहीं पड़ी हैं. वे एक कार कारखाने के लिए किसानों पर गोली चलाने से नहीं चूकतीं. कुछ ऐसे भी साम्यवादी हैं जो जंगलों में छिपकर क्रांति करने का सपना देख रहे हैं. पर न उन्हें जनता की परवाह है न जनता को उनकी. वैसे जिस रूसी क्रांति और लेनिन का तुम बार-बार जिक्र करते थे, वे अब भूली कहानी बन चुके हैं या फिर इतिहास में दर्ज एक मजाक.
६ जून १९२९ को तुमने लियोनार्ड मिडिल्टन की अदालत में बयान दिया था कि “क्रांति से तुम्हारा मतलब है कि अन्याय पर आधारित मौजूदा व्यवस्था में आमूल परिवर्तन. धनिक समाज एक भयानक ज्वालामुखी के मुख पर बैठा रंगरेलियां मना रहा है और करोड़ों शोषित एक खड्ड के कगार पर हैं, इसे बदलना होगा.“… तो समझ लो कि तुम्हारी बात सुनने वाला कोई नहीं है. भारत में जो कुछ हो रहा है वो भी आमूल परिवर्तन ही है.
... अगर तुम फिर से भारत में जन्म लेकर कुछ करने को सोच रहे हो तो भूल जाओ. कवि शैलेंद्र ने बहुत पहले लिखा था कि “भगत सिंह इस बार न लेना काया भरतवासी की, देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फांसी की’...तब ये व्यंग्य लगता था. पर अब सचमुच ऐसा होगा. मेरे इलाके के दरोगा देवीदत्त मिश्र इंस्पेक्टर बनना चाहते हैं. एक बड़े एन्काउंटर स्पेशलिस्ट की टीम में हैं. तुम अगर अपने पुराने सिद्धांतों पर अमल करते मिल गए तो गोली मारते देर नहीं लगाएंगे. अब अंगरेजी शासन नहीं है कि नाटक के लिए ही सही, मुकदमा चलाना जरूरी समझा जाए. मिश्रा जी तुम्हें मारकर शर्तिया प्रमोशन पा लेंगे.
इसलिए जहां हो, वहीं बैठे रहो. मुझे भी अब इजाजत दो. दरवाजे की घंटी बज गई है. शायद पिज्जा वाला आ गया है.
तुम्हारा कोई नहीं
पंकज...
7 comments:
पाँच बरस। बोफ़्फ़ाइन। बधाई। यूँ ही साझा होता रहे उम्दा कबाड़।
५ बरस...२५०० वीं पोस्ट...
वाह...
बधाई...
और आभार भी,सदा कुछ अच्छा पढवाने के लिए.
शुक्रिया
अनु
बधाई हो हुजूर, आप लिखते रहें हम पढ़ते रहें सिलसिला सालों साल चलता रहा
वाह...
बधाई...
बहुत सही व् शानदार प्रस्तुति आभार उत्तर प्रदेश सरकार राजनीति छोड़ जमीनी हकीकत से जुड़े.
हार्दिक बधाई ...
अनवरत चलती रहे ये यात्रा ...
बहुत शुभकामनायें ......!!
वाह, पांच साल और ढाई हजार पोस्ट्स.
बहुत-बहुत बधाई!!
apki is karya se hamare jaise ko thoda bhut kuchh padne ko mil jata hai
Post a Comment