Friday, October 5, 2012

मंटो के मीराजी - २



(पिछली किस्त से आगे)


क्या मीराजी उसी किस्म का दरवेश और राहिब था ...?” यह सवाल उस वक़्त और बाद में भी कई बार मेरे दिमाग में पैदा हुआ मैं अमृतसर में साईं घोड़ेशाह को देख चुका था जो अलिफ़ नंगा रहता था और कभी नहाता नहीं था. उसी तरह के और भी साईं और दरवेशमेरी नज़र से गुज़र चुके थे जो गिलाज़त के पुतले थे, मगर उनसे मुझे घिन आती थी. मीराजी की गिलाज़त से मुझे नफ़रत कभी नहीं हुई, उलझन अलबत्ता बहुत होती थी.

घोड़ेशाह के क़बील के साईं आमतौर पर बक़द्र-ए-तौफीक मुगल्लज़ातबकते हैं मगर मीराजी के मुंह से मैंने कभी कोई गलीज़ कलमा न सुना. इस किस्म के साईं बज़ाहिर मुज़र्रद मगर दरपर्दा हर किस्म के जिन्सी फ़ेल के मुर्तकिब होते हैं. मीराजी भी मुज़र्रद था. मगर उसने अपनी जिन्सी तस्कीन के लिए सिर्फ अपने दिल-ओ-दिमाग को अपना शरीक-ए-कार बना लिया था. इस लिहाज़ से गो उसमें और घोड़ेशाह के क़बील के साइयों के एक गुना मुमासलत थी, मगर वह उनसे बहुत मुख्तलिफ था. वह तीन गोले था, जिनको लुढकाने के लिए उसको किसी खारिजी मदद की ज़रुरत नहीं पड़ती थी. हाथ की ज़रा सी हरकत और तखैय्युल की हल्की सी जुम्बिश से वह उन तीन अजसाम को ऊंची से ऊंची बुलंदी और नीची से नीची गहराई की सैर करा सकता था और यह गुर उसको उन्हीं तीन गोलों ने बताया था जो गालिबन उसे कहीं पड़े हुए मिले थे. उन खारिजी इशारों ही ने उस पर एक अज़ली और अबदी हक़ीक़त को मुन्कशिफ़ किया था: हुस्न, इश्क़ और मौत इस तस्लीम के तमाम उक़लीदिसी ज़ाविये सिर्फ उन तीन गोलों की मदद से उस की समझ में आए थे.लेकिन हुस्न और इश्क़ के अंजाम को चूंकि उसने  शिकस्त खुर्दा ऐनक से देखा था, जिसके शीशों में तरेड़े थे, इस लिए उसको जिस शक्ल में उसने देखा था, सही नहीं था. यही वजह है कि उसके सारे वुजूद में एक नाकाबिल-ए-बयान इब्हाम का ज़हर फैल गया था जो एक नुक्ते से शुरू होकर एक दायरे में तब्दील हो गया था, इस तौर पर कि उसका हर नुक्ता उसका नुक्ता-ए-आगाज़ है और वही नुक्ता-ए-अंजाम. यही वजह है कि उसका इब्हाम नुकीला नहीं था. उसका रुख मौत की तरफ था ण कि ज़िन्दगी की तरफ. रजाइयत की सम्त न कुनूतियत की जानिब. उसने आगाज़ और अंजाम को अपनी मुठ्ठी में इस जोर से भींच रखा था कि उन दोनों का लहू निचुड़-निचुड़ कर उसमें से टपकता रहता था. लेकिन सादियत पसंदों की तरह वाज इस से मसरूर नज़र नहीं आता था. यहाँ फिर उसके जज़्बात गोल हो जाते , उन तीन आहनी गोलों की तरह जिनको मैंने पहली मर्तबा हसन बिल्डिंग के फ़्लैट नम्बर एक में देखा था.

उसके शेर का एक मिसरा है:

नगरी नगरी फिरा मुसाफिर घर का रस्ता भूल गया.

मुसाफिर को रस्ता भूलना ही था, इसलिए कि उसने चलते वक्त नुक्ता-ए-आगाज़ पर कोई निशान नहीं बनाया था. अपने बनाए हुए दायरे के ख़त के साथ साथ घूमता वह यकीनन कई बार उधर से गुज़रा मगर उसे याद न रहा कि उसने अपना यह तवील सफ़र कहाँ से शुरू किया था. और मैं तो समझता हूँ कि मीराजी यह भूल गया था कि वह मुसाफिर है, सफ़र है या रस्ता. यह तस्लीम भी उसके दिल-ओ-दिमाग के खलियों में दायरे की शक्ल इख्तियार कर गयी थी.
उसने एक लड़की मीरा से मोहब्बत की और वह सनाउल्लाह से मीराजी बन गया. उसी मीरा के नाम की रिआयत से उसने मीराबाई के कलाम को पसंद करना शुरू कर दिया. जब उसे अपनी महबूबा का जिस्म मयस्सर न हुआ तो उसने कूज़ागर की तरह चाक घुमाकर अपने तखैय्युल की मिट्टी से शुरू-शुरू में उसी शक्ल-ओ-सूरत के जिस्म तैयार करने शुरू कर दी लेकिन बाद में आहिस्ता आहिस्ता उस जिस्म की साख्त के तमाम मुज़ैयात, उसकी तमाम नुमायाँ खुसूसियतें तेज़ रफ़्तार चाक पर घूम घूम कर नित नई हैयत इख्तियार करती गईं, सुर एक ऐसा वक़्त आया कि मीराजी के हाथ उसके तखैय्युल की नर्म नर्म मिट्टी आयर चाक मुतवातिर गर्दिश से बिलकुल बिलकुल गोल हो गए. कोई भी टांग मीरा की टांग हो सकती थी. कोई भी चीथड़ा मीरा का पैरहन बन सकता था, कोई भी रहगुज़र मीरा की रहगुज़र में तब्दील हो सकती थी, और इन्तेहा यह हुई कि तखैय्युल की नर्म-नर्म मिट्टी की सौंधी-सौंधी बास सडांध बन गयी, और वह शक्ल देने से पहले ही उसे चाक से उतारने लगा.

पहले मीरा बुलंद बाम महलों में रहती थी. मीराजी ऐसा भटका कि रास्ता भूलकर उसने नीचे उतरना शुरू कर दिया. उसको इस गिरावट का मुतलक़न अहसास न था. इसलिए कि उतराई में हर कदम पर मीरा का तखैय्युल उसके साथ था, जो उसके जूतों के तलवों की तरह घिसता चला गया. पहले मीरा आम महबूबाओं की तरह बड़ी खूबसूरत थी लेकिन यह खूबसूरती हर निस्वानी पोशाक में मलबूस देख-देख कर कुछ इस तौर पर उसके दिल-ओ-दिमाग पर मस्ख हो गयी थी कि उसके सही तसव्वुर की अलमनाक जुदाई का भी मीराजी को अहसास न था. अगर अहसास होता तो इतने बड़े अलमिये के जुलूस के चंद गैर मुबहम निशानात उसके कलाम में मौजूद होते, जो मीरा से मोहब्बत करते ही उसके दिल-ओ-दिमाग से निकलना शुरू हो गए थे.

हुस्न, इश्क़ और मौत. यह तिकोन पिचक कर मीराजी के वजूद में गोल हो गयी थी. सिर्फ यही नहीं दुनिया की हर मुसल्लस उसके दिल-ओ-दिमाग में मुदव्वर हो गयी थी. यही वजह है कि उसके अरकान-ए-सुलासा कुछ इस कदर आपस में गडमड हो गए थे कि उनकी तरतीब दरहम बरहम हो गयी थी. कभी मौत पहले, हुस्न आखीरऔर इश्क़ दरम्यान में. कभी इश्क़ पहले, मौत उसके बाद और हुस्न आखीर में. और यह चक्कर ना महसूस तौर पर चलता रहता था.

(जारी)              
            

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