Monday, October 8, 2012

मंटो के मीराजी – ५




(पिछली किस्त से आगे)


सख्त बारिश हो रही थी, जिसके बाईस बर्क़ी गाड़ियों की नकलों-हरकत का सिलसिला दरहम-बरहम हो गया था. खुश्क दिनहोने की वजह से शहर में शराब की दुकानें बंद थीं. मुज़ाफात में सिर्फ बांद्रा ही एक ऐसी जगह थी जहां से मुक़र्ररा दामों पर वह चीज़ मिल सकती थी. मीराजी मेरे साथ था. इसके अलावा मेरा पुराना लंगोटिया हसन अब्बास भी जो देहली से मेरे साथ चंद दिन गुज़ारने के लिए आया था. हम तीनों बांद्रा उतर गए और डेढ़ बोतल रम खरीद ली. वापस स्टेशन पर आए तो राजा मेंहदी अली खान मिल गया. मेरी बीवी लाहौर गयी हुई थी, इसलिए प्रोग्राम यह बना कि मीराजी और राजा रात मेरे ही हाँ रहेंगे.


एक बजे तक राम के दौर चलते रहे. बड़ी बोतल ख़त्म हो गयी. राजा के लिए दो पैग काफी थे. उनको ख़त्म करने के बाद वह एक कोने में बैठ गया और फ़िल्मी गीत लिखने की प्रैक्टिस करता रहा. मैं, हसन अब्बास और मीराजी पीते और फज़ूल-फ़ुज़ूल बातें करते रहे जिनका सर था न पैर. कर्फ्यू के बाईस बाज़ार सुनसान था. मैंने कहा अब सोना चाहिए. अब्बास और राजा ने मेरे इस फैसले पर साद किया. मीराजी न माना. अद्धे की मौजूदगी उसके इल्म में थी, इसलिए वह और पीना चाहता था. मालूम नहीं क्यों मैं और अब्बास जिद में आ गए और हमने वह अद्धा खोलने से इनकार कर दिया. मीराजी ने पहले मिन्नतें कीं फिर हुक्म देने लगा. मैं और अब्बास इंतिहा दर्जे के सिफ्ले हो गए. हमने उस से ऐसी बातें कीं कि उनकी याद से मुझे नदामत महसूस होती है. लड़-झगड़ कर हम दूसरे कमरे में चले गए.


मैं सुबहखेज़ हूँ. सबसे पहले उठा और साथ वाले कमरे में गया. मैंने रात को राजा से कह दिया था कि वह मीराजी के लिए स्ट्रेचर बिछा दे और ख़ुद सोफे पर सो जाए. राजा स्ट्रेचर में लबालब भरा था मगर सोफे पर मीराजी मौजूद नहीं था. मुझे सख्त हैरत हुई. गुसलखाने और बावर्चीखाने में देखा. वहां भी कोई नहीं था. मैंने सोचा शायद वह नाराजी की हालत में चला गया है. चुनांचे वाकियात मालूम करने के लिए मैंने राजा को जगाया. उसने बताया कि मीराजी मौजूद था. उसने ख़ुद उसे सोफे में लिटाया था. हम यह गुफ्तगू कर ही रहे थे कि मीराजी की आवाज़ आई : मैं यहाँ मौजूद हूँ.


वह फर्श पर राजा मेंहदी अली खान के स्ट्रेचर के नीचे लेटा हुआ था. स्ट्रेचर उठाकर उसको बाहर निकाला गया. रात की बात हम सबके दिल-ओ-दिमाग़ में औद कर आई लेकिन किसी ने उस पर तब्सिरा न किया. मीराजी ने मुझसे आठ आने लिए और भारी भरकम बरसाती उठाकर चला गया. मुझे उस पर बहुत तरस आया और अपने पर बहुत गुस्सा. चुनांचे मैंने दिल ही दिल में ख़ुद को बहुत लानत-मलामत की कि मैं रात को एक निकम्मी-सी बात पर उसको दुःख पहुँचाने का बाईस बना.


इसके बाद भी मीराजी मुझसे मिलता रहा. फिल्म इंडस्ट्री के हालात मुन्कलिब हो जाने के बाईस मेरा हाथ तंग हो गया था. अब मैं हर रोज़ मीराजी की शराब का खर्च बर्दाश्त नहीं कर सकता था. मैंने उस से कभी इसका ज़िक्र नहीं किया लेकिन उसको इल्म हो गया था. चुनांचे एक दिन मुझे मालूम हुआ कि उसने शराब छोड़ने के क़स्द से भंग खानी शुरू कर दी है.


भंग से मुझे सख्त नफरत है. एक-दो बार इस्तेमाल करने से मैं उसके ज़िल्लत आफ़रीं नशे और उसके रद्द-ए-अमल का तज़रबा कर चुका हूँ. मैंने मीराजी से जब उसके बारे में गुफ्तगू की तो उसने कहा : नहीं ... मेरा ख़याल है यह नशा भी कोई बुरा नहीं. इसका अपना रंग है, अपनी कैफियत है, अपना मिजाज़ है.


उसने भंग के नशे की खुसूसियत पर एक लेक्चर-सा देना शुरू कर दिया अफ़सोस है कि मुझे पूरी तरह याद नहीं कि उसने क्या कहा था. उस वक़्त मैं अपने दफ्तर में था और आठ दिनके एक मुश्किल बाब की मंज़रनवीसी में मशगूल था मेरा दिमाग़ एक वक़्त में सिर्फ एक काम करने का आदी है वह बातें करता रहा और मैं मनाज़िर सोचने में मशगूल रहा.


भंग पीने के बाद दिमाग़ पर क्या गुजरती है, मुझे इसके मुताल्लिक सिर्फ इतना ही मालूम था कि गिर्द-ओ-पेश की चीज़ें या तो बहुत छोटी हो जाती हैं या बहुत बड़ी. आदमी हद से ज्यादा ज़कीउलहिस हो जाता है. कानों में ऐसा शोर मचता है जैसे उनमें लोहे के कारखाने खुल गए हैं. दरिया पानी की हलकी सी लकीर बन जाते हैं और पानी की हल्की सी लकीरें बहुत बड़े दरिया. आदमी हंसना शुरू करे तो हंसता ही जाता है, रोये तो रोते नहीं थकता.


मीराजी ने उस नशे की जो कैफियत बयान की वह मेरा ख़याल है इस से बहुत मुख्तलिफ थी. उसने मुझे उसके मुख्तलिफ मदारिज़ बताए थे. उस वक़्त जब कि वह भंग खाए हुए था, गालिबन लहरों की बात कर रहा था : लो वह कुछ गड़बड़ सी हुई ... कोई चीज़ इधर-उधर की चीज़ों से मिलकर ऊपर को उठी ... नीचे आ गयी ... फिर गड़बड़ सी हुई ... और आहिस्ता आहिस्ता आगे बढ़ने लगी ... दिमाग़ की नालियों में रेंगने लगी ... सरसराहट महसूस हो रही है ... पर बड़ी नर्म-नर्म ... पहले नून था ... पूरे ऐलान के साथ ... अब यह गुनने में तब्दील हो रहा है ... धीरे धीरे ... हौले-हौले ... जैसे बिल्ली गुदगुदे पंजों पर चल रही है ... ओह, जोर से मियाऊँ हुई ... लहर टूट गयी ... गायब हो गयी ...और वह चौंक पड़ता.


थोड़े वक्फे के बाद वह यही कैफियत नए सिरे से महसूस करता : लो अब फिर नून के ऐलान की तैयारियां होने लगीं ... गड़बड़ शुरू हो गयी है ... आसपास की चीज़ें यह ऐलान सुनने के लिए जमा हो रही हैं  ... कानाफूसियाँ हो रही  ... हो  ... ऐलान हो  ... नून ऊपर को उठा, आहिस्ता आहिस्ता नीचे को  ... फिर वही गड़बड़ ... वही  ... आसपास की चीज़ों के हुजूम में नून ने अंगड़ाई ली और रेंगने  ... गुन्ना खिंचकर लम्बा हो रहा है ... कोई उसे कूट रहा है, रुई के हथौड़ों से  ... ज़र्बें सुनाई नहीं देतीं, लेकिन उनका नन्हा मुन्ना पर से भी हल्का लम्स महसूस हो रहा  ... गूं, गूं, गूं  ... जैसे बच्चा मान का दूध पीते पीते सो रहा है  ...  ठहरो दूध का बुलबुला बन गया  ... लो वह फट भी  ...और वह फिर चौंक पड़ता.


मुझे याद है मैंने उस से कहा था कि वह अपने इस तज़रबे अपनी इस कैफियत को अशआर में मिनो-अन बयान करे. उसने वादा किया था. उसने उधर तवज्जोह दी या भूल गया.   


कुरेद कुरेद कर मैं किसी से पूछा नहीं करता. सरसरी गुफ्तगुओं के दौरान में मीराजी से मुख्तलिफ मौजुओं पर तबादला-ए-खयालात होता था, लेकिन उसकी जातियात कभी मारिज़-ए-गुफ्तगू में नहीं आई थीं -  एक मर्तबा मालूम नहीं, किस सिलसिले में उसकी इजाबत-ए-जिन्सी के ख़ास ज़रिये का ज़िक्र आ गया. उसने मुझे बताया इसके लिए अब मुझे खारिजी चीज़ों की मदद लेनी पड़ती है ... मिसाल के तौर पर ऐसी टांगें जिन पर से मैल उतारा जा रहा है ... खून में लिथड़ी हुई खामोशियाँ ...


 यह सुनकर मैंने महसूस किया था कि मीराजी की जलालत अब इस इन्तहा को पहुँच गयी है कि उसे खारिजी ज़राए की इमदाद तलब करनी पड़ गयी है अच्छा हुआ जो वह जल्दी मर गया क्योंकि उसकी ज़िन्दगी के खराबे में और ज्यादा खराब होने की गुंजाइश नहीं रही थी. अगर वह कुछ देर से मरता तो यकीनन उसकी मौत भी एक दर्दनाक इब्हाम बन जाती.


(समाप्त)