Saturday, November 10, 2012

वहाँ सौंदर्य सुगम नहीं है –शुभा का गद्य – ग्यारह


अधूरी बातें – ८

-शुभा

एक बढ़ई काम करते हुए कई चीज़ों पर ध्यान नहीं देता मसलन लकड़ी चीरने की धुन, उसे चिकना बनाते समय बुरादों के लच्छों का आस-पास फ़़ूलों की तरह बिखरना, कीलें ठोकने के घीमे मद्धिम और तेज सुर, खुद अपने हाथों का फ़़ुर्तीला हर क्षण बदलता संचालन और कभी चिंतन में डूबी, कभी चुस्ती और जोश से लपकती, कभी लगन में डूबी और कभी काम के ढलान पर आख़िरी झंकार छेड़ती अपनी गति वह स्वयं नहीं देखता. वह ख़ुद अपने में उतरते काष्ठ मूर्ति जैसे गहन सौंदर्य को भी नहीं देखता, अपनी परखती जांचती निगाह और एक अमूर्त आकृति को लकड़ी में उतारने की कोशिश में अपने चेहरे पर छाई जटिल रेखाओं के जाल को भी वह नहीं देखता. वह केवल काम का संतोष पाता है और कामचलाऊ जीवन-यापन के साधन.

एक आदमी आता है और उसकी कृति ख़रीद लेता है. वह कृति के सौंदर्य पर इतना मुग्घ है कि बढ़ई को नहीं देखता. वह कृति के उपयोग को लेकर भी आश्वस्त है. वह फिनिश्ड सौंदर्य और निर्बाध उपयोग को ही पहचानता है. सौंदर्य का होना उसके लिए अंतिम है. सौंदर्य का बननावह नहीं जानता. उसके रचनाकार को वह नहीं देखता क्योंकि वहाँ सौंदर्य सुगम नहीं है, वहाँ अधूरापन और जटिलताएं हैं वहाँ एक गति है जिसका पीछा करने मात्र के लिए एक रचनात्मक श्रम जरूरी है. यह श्रम निर्बाध उपभोग के आड़े आता है, इसलिए सौंदर्य के पुजारी बन चुके लोग पूर्ण, ठहरे हुए-हमेशा के लिए ठहरे हुए सौंदर्य को देखते हैं. मनुष्य को नहीं, बढ़ई को नहीं. मनुष्य की उपेक्षा और मृत सौंदर्य की पूजा आराम से साथ साथ चलते हैं. जा़हिर है अपने को न देखने वाले बढ़ई और केवल कृति को देखने वाले उपभोक्ता के बीच बड़ा सम्पूर्ण सामंजस्य होता है.

(‘जलसा’ पत्रिका से साभार)

2 comments:

travel ufo said...

वाह क्या बात है आपको दीपावली की शुभकामना

प्रतिभा सक्सेना said...

सब की अपनी दृष्टि, और उसका भी एक कोण !