Thursday, April 21, 2011

जैसे चॉकलेट के लिए पानी - १


लॉरा एस्कीवेल का उपन्यास जैसे चॉकलेट के लिए पानी समूचे दक्षिण अमेरिका में अब तलक एक कल्ट की सूरत ले चुका है. यह अपने तरीके का इकलौता उपन्यास है. इस का प्रकाशन १९९० में हुआ था. मूल स्पानी भाषा में इसकी बिक्री के सही सही आंकड़े अभी उपलब्ध नहीं हैं पर अंग्रेज़ी भाषा में अकेले अमेरिका में ही इसकी एक करोड़ से ऊपर प्रतियां बिकी हैं. दुनिया की कोई तीसेक भाषाओं में अनूदित हो चुकी इस शानदार किताब का अनुवाद ख़ाकसार ने आज से नौ बरस पहले किया था. स्पानी भाषा से सीधे हिन्दी में किया गया यह मेरा पहला अनुवाद था. यह किताब अधिक लोगों तक नहीं पहुंच पाई. हिन्दी की किताबें पहुंचती ही कितनों तक हैं?

आज से मैं इस किताब के शुरुआती अंश यहां कबाड़ख़ाने पर लगाना शुरू कर रहा हूं. कितने हिस्से कब तक लगाऊंगा कुछ कह नहीं सकता - आप लोगों के रेस्पॉंन्स पर सब निर्भर करता है. पेश है -


अध्याय १ - जनवरी

क्रिसमस रोल्स

आवश्यक सामग्री -

१ कैन सारडीन्स
१/२ चोरीज़ो सॉसेज
१ प्याज़
ऑरेगानो
१ कैन सेरानो मिर्च
१० कड़े रोल्स

बनाने की विधि -

बहुत सावधानी से प्याज़ को बारीक बारीक काटिये. प्याज़ काटते हुए आप रोएं नहीं (जो बहुत झुंझलाने वाला होता है), इसके लिए आप थोड़ा सा अपने सिर पर रख लें. प्याज़ काटते वक़्त रोने में सबसे बड़ी परेशानी यह है कि एक बार आंसू निकलने शुरू हुए कि वे निकलते ही जाते हैं - आप उन्हें रोक ही नहीं सकते. पता नहीं आपके साथ ऐसा कभी हुआ है या नहीं, मेरे साथ तो कई बार हो चुका है. मामा कहा करती थीं ऐसा इसलिए था कि मैं प्याज़ के प्रति ज़्यादा संवेदनशील थी, जैसी मेरी चचेरी दादी तीता.

तीता प्याज़ के प्रति इतनी संवेदनशील थी कि, लोग कहा करते थे, जब भी प्याज़ काटे जाते वह रोती ही जाती थी. जब वह परदादी के पेट में थी उसकी सिसकियां इतनी तेज़ होती थीं कि खाना बनाने वाली नाचा, जो आधी बहरी थी, भी आराम से उन्हें सुन लेती. एक बार उसकी सिसकियां इस कदर तेज़ थीं कि परदादी को समय से पहले ही प्रसव पीड़ा शुरू हो गई. इसके पहले कि उनके मुंह से एक भी शब्द या कराह निकल पाते, रसोईघर की मेज़ पर नूडल सूप, पुदीने और लहसुन, और हां प्याज़ की महक के बीच तीता समय से पहले ही दुनिया में आ गई. तीता को वह चपत मारने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी जो नवजात शिशु को रुलाने के लिए मारी जाती है, क्योंकि वह रोती हुई पैदा हुई थी. शायद इसलिए भी कि उसे तभी मालूम था कि इस जन्म में उसका ब्याह नहीं हो पाएगा. जैसा कि नाचा बताती थी, तीता एक तरह से आंसुओं में बहती हुई इस दुनिया में पहुंची. आंसुओं का ज्वार मेज़ के किनारे से रसोईघर के फ़र्श पर बाढ़ की शक्ल में गिरता रहा.

उस दोपहर, कोलाहल शान्त हो चुकने के बाद जब सूरज ने भी आंसुओं को सुखा दिया था, नाचा ने लाल पत्थरों के फ़र्श से आंसुओं का सूखा हुआ नमक बुहार कर इकठ्ठा किया. नमक इतना था कि उस से दस पाउन्ड का एक कट्टा भर गया - रसोई में लम्बे समय तक उसे इस्तेमाल किया गया. शायद अपने असामान्य जन्म के कारण ही तीता को रसॊई से विशेष लगाव रहा, जहां उसने अपने जीवन का लम्बा हिस्सा गुज़ारा.

तीता जब दो ही दिन की थी, मेरे परदादा दिल का दौरा पड़ने के कारण चल बसे और इस सदमे से परदादी की छातियां सूख गईं. चूंकि उस ज़माने में पाउडर का दूध भी नहीं मिलता था और कोई नर्स भी नहीं मिली जो बच्ची को दूध पिला सके, सारे घर में बच्ची की भूख को लेकर कोहराम मच गया. नाचा ने जिसे खाना पकाने के बारे में सब कुछ आता था, तीता के पोषण का ज़िम्मा लेने का प्रस्ताव किया. उसे लगा बच्ची के पेट को "शिक्षित करने" का यह बेहतरीन अवसर था. हालांकि उसने शादी नहीं की थी, न उसके बच्चे ही हुए थे. उसे लिखना-पढ़ना नहीं आता था लेकिन पाकशास्त्र की वह विशेषज्ञ थी. मेरी परदादी मामा एलेना ने कृतज्ञतापूर्वक उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. अपने शोक के बावजूद उनके पास करने को बहुत सारे काम थे. उन्हें रैंच कॊ ज़िम्मेदारी सम्हालनी थी - बच्चों के भोजन और पढ़ाई-लिखाई का खर्च वहीं से निकलना था, क्योंकि इतने के तो अधिकारी वे थे ही. इस सबके बाद नवजात बच्ची को खिलाने-पिलाने का ज़िम्मा बहुत कष्टप्रद होता.

उस दिन से रसोईघर तीता का साम्राज्य बन गया. चाय और मक्के के पतले सूप पर तीता बड़ी होती गई. खाने से सम्बन्धित किसी बात पर तीता की छठी इन्द्रिय का रहस्य यही था कि उसके खाने के समय रसोई की दिनचर्या से जुड़े हुए थे. सुबह उसे बीन्स उबलने की ख़ुशबू आ जाती, दिन में उसे पता लग जाता कि पानी तैयार है और मुर्गी के टुकड़े करने का वक़्त हो गया. शाम को डबलरोटी बेक हो जाने भी उसे अहसास हो जाता. तीता जान जाती उसे खाना खिलाए जाने का समय हो गया है.
(जारी)

3 comments:

मनोज पटेल said...

इस किताब को पढ़ने की इच्छा बहुत दिनों से थी. चलिए ऐसे ही सही. इस महान उपन्यास का स्वागत है. आपको बहुत-बहुत धन्यवाद.

बाबुषा said...

इसे एक बार में कैसे पढ़ा जा सकता है ? कैसे मिल सकती है किताब ?

sanjay vyas said...

'यह किताब अधिक लोगों तक नहीं पहुँच पाई..'
सच है.और मैं उन कुछ लोगों में शामिल हूँ जिनके पास ये पहुँच पाई.अद्भुत किताब है है ये और हिंदी में पढकर भी मूल सा आस्वाद देती है.
यहाँ पढ़ने वालों से कहूँगा कि बहुत बड़ी नहीं है ये किताब और यहाँ से भी आप सिलसिलेवार आगे बढते रह सकतें हैं.