Wednesday, January 9, 2013

यह मातृभूमि एक अटकल से ज्यादा कुछ नहीं



सीरियाई महाकवि अदूनिस की एक और कविता - 

असीम उड़ानें

-अदूनिस

चांदी और सीसे से ढाले गए फरिश्तों के लिए,
अपने सुनहरे लबादों को घसीटती रेत के लिए,
वर्णमाला के पिंजरे में सुबकते, ढहते

उसकी धरती एक फेफड़ा है जिस में से खून रिसता है,
जिस तरह कोई नदी अपनी राह बदल देती है
और बिजली अपनी चमकदार लपट;
और मैं देखता हूँ उसे गहरी नींद सोए हुए.

तब भी, मैं सामना करता हूँ इन रेगिस्तानों का,
जैसे मैं किसी भाषा की भोर होऊँ.
बिना हैरत किये मैं कहता हूँ :
इच्छा का एक समय और धातु की खिड़कियाँ
और यह जगह – सब बिखर रहे हैं.
-हमेशा से ही बिखर रही थी यह जगह,
यह बासीपन और धूल के नक़्शे भर थी.
हमेशा से बंटती रही है यह जगह
घेरेबंदी और भकोसने की दो मुठ्ठियों में.

तब भी मैं इस भूलभुलैया का सामना करता हूँ
जैसे मैं किसी भाषा की भोर होऊँ.
और मैं हैरत के साथ कहता हूँ :
एक सितारा उभरा और उसे हड़प गयी चींटियाँ,
और मैं दुबारा कहता हूँ कि धुआँ
हवाओं का विवाह-संस्कार होता है. 

अरी हवाओ,
स्वीकारो उसे जो कुछ बचा है मेरी देह का :
दो गुलाब, मेरी चिंताएं और मेरी इच्छा,
उनसे बुनो अपने अदृश्य शाल,
और उन्हें बनने दो
भटकाव और
उसके अरबी खंडहरों के वास्ते हमारे अभिवादन.

बिना हैरत किये मैं कहता हूँ :
यह मातृभूमि एक अटकल से ज्यादा कुछ नहीं,
और अब ...
-एक भी शब्द न बोलना.
क्या तुम पगला गए हो, या तुम्हारी कल्पनाओं ने तुम्हें रास्ते से भटका दिया?
और अब यह एक कब्रिस्तान है :  धातु का बना एक पुलिसवाला, जीवितों को दफ़न किए जाने की जगह,
और तुम्हारा घर कहाँ है?

अगर तुमने यहाँ-वहां सरहदें पार की होतीं
और कपड़ों जैसे तहाए गए
अँधेरे के अतल गड्ढे में फेंक दिए गए
उन लोगों को देखा होता जो रोशनी के लिए तड़पा करते हैं,
तब तुमने चाहा होता कि सारी भाषा बन जाती
विनाश और दहकती आग,
तुमने ये नक़्शे, ये झंडे फाड़ दिए होते,
और मेरी तरह, कह रहे होते ईश्वर को बुरा-भला.
यह मातृभूमि एक अटकल के टुकड़े से ज्यादा कुछ नहीं.

बिना हैरत किये मैं कहता हूँ :
करोड़ों हरे हैं ; उन्हीं से उभरती हैं आवाजें और गूंजें
और मैं भेड़िया  हूँ इस विस्तार का,
वह इकलौता जो सहता है मृत्यु की यंत्रणाओं को,
और लड़खड़ा कर भटक जाता है रास्ता,
न कोई सितारा, न कोई दिशानिर्देश,
इस खेत और दूसरे के बीच खोया हुआ मैं,
घास की नसों की टोह लेता,
हरेक फूल से पूछता हुआ
उसकी बहन का नाम.

और बिना हैरत किये मैं कहता हूँ :
मुझे दिलासा दो, ओ थकान के समय.
अब मुझे असंभव की चट्टान से लगकर झुके रहना अच्छा लगने लगा है,
जैसे किसी बच्चे को पसंद आता है
बांसुरी की पीठ की सवारी करते हुए
अन्तरिक्ष की यात्रा करना.

-मत कहना : हताशा और पलायनवाद.
हवा पलायन करती है ताकि धरती का आलिंगन कर सके,
और हताशा खोलती है अपने राजसी दरवाज़े
नक्षत्रों के रास्तों में होने वाले विस्फोटों के लिए.
कहो : सभी संदेशों का वाहक.
और खजूर के पेड़ों के तनों के पीछे छिपे
गवाह की आवाज़ सुनो,
और रेशम की पत्तियों में खजूरों और अदरक से लिखे हुए
गवाह को पढ़ो ...
और बिना हैरत किये मैं ओस से कहता हूँ :
क्या तुमने वह जगह देखी है, क्या महसूस किया है खेतों को?
क्या उन्हें लोग ढंके हुए हैं या आलू?
इस तरह मैं ओस को बेतरह प्यार करने की हिम्मत करता हूँ
और उस के लिए गाता हूँ,
बहता हुआ जैसे कि शुरुआती भोर उसका किनारा हो,
जो पेड़ों की शाखाओं के दरम्यान अपने थैलों को चिठ्ठियों की तरह खोलती है.
तुम अपने हाथों में क्या लिए जा रहे हो?
किसके वास्ते क्षितिज लिखता है अपने रहस्यों को?
क्या तुम्हारे किनारों से लगी हुई सड़क कोई दूसरा रक्त है,
एक जोखिमभरी कौंध
या हांफता हुआ कोई कवि?

और बिना हैरत किये मैं कहता हूँ :
मेरी हैरानी यह है कि मैं अब तक बूढ़ा नहीं हुआ,
कि इन भग्नावशेषों ने
मुझ पर
महत्तर गरिमा बख्शी है.
-यहाँ एक गुलाब है जो अपनी वासना में
उसकी बांहों के लिए एक स्त्री बन जाना चाहता है.
-यहाँ उसकी बुझ चुकी आगें हैं
जो दमकने लगी हैं.

और अब मैं एक बच्चा हूँ,
जैसे कि चंद्रमा हो
मेरे क़दमों की घंटियाँ.

और मैं हैरत के साथ कहता हूँ :
मेरे पास मेरी संवेदना है,
मेरा अनंत नशा.
स्त्रियाँ हैं चिठ्ठियाँ जो अपनी सारी इच्छाएं फुसफुसाती हैं मेरे कानों में
और मैं उन्हें देता हूँ अपनी असीम उड़ानें.
और, सारे संशयों से मुक्त, मैं घोषणा कर रहा हूँ :
मेरा है यह जीवन –
रोशनी की चिंगारियां और घोड़े,
छवियों के रथों से हड़बड़ी में बाहर आए हुए.

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