साध्वियाँ
-कुमार अम्बुज
उनकी
पवित्रता में मातृत्व शामिल नहीं है
संसार के सबसे
सुरीले राग में नहीं गूँजेगी
उनके हिस्से
की पीड़ा
परलोक की
खोज में
इसी लोक में
छली गयीं वे भी आखिर स्त्रियाँ हैं
जिनसे हो
सकती थी वसंत में हलचल
वे हो सकती
थीं बारिश के बाद की धूप
या दुनिया
की सबसे तेज धाविकाएँ
कर सकती थीं
नये आविष्कार
उपजा सकती
थीं खेतों में अन्न
वे हो सकती
थीं ममता का अनथका कंठ
जिसकी लोरी
से धरती के बच्चों को
आती हैं
नींद
मगर अब वे
पवित्र सूखी हुयी नहरें हैं
धार्मिक तेज
ने सोख लिया है
उनके जीवन
का मानवीय ताप
वे इतनी
पूजनीय हैं कि अस्पृश्य हैं
इतनी
स्वतंत्र हैं कि बस
एक धार्मिक
पुस्तक में कैद हैं
उनका जन्म
भी
किसी
उल्लसित अक्षर की तरह हुआ था
और शेष जीवन
एक दीप्त-वाक्य में बुझ गया
3 comments:
बहुत ही भावपूर्ण रचना,आभार.
और यह विडम्बना ही है , दुखद है
उनका जन्म भी
किसी उल्लसित अक्षर की तरह हुआ था
और शेष जीवन
एक दीप्त-वाक्य में बुझ गया
सत्य को उदघाटित करती मार्मिक रचना
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