फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’ की ग़ज़ल, आबिदा
परवीन की आवाज़ में –
नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही
न तन मे खून फ़राहम न अश्क आंखों में
नमाज़े-शौक़ तो वाज़िब है, बे-वज़ू ही सही
नमाज़े-शौक़ तो वाज़िब है, बे-वज़ू ही सही
किसी तरह तो जमे बज़्म, मैकदेवालों
नहीं जो बादा-ओ-सागर तो हा-ओ-हू ही सही
नहीं जो बादा-ओ-सागर तो हा-ओ-हू ही सही
गर इन्तज़ार कठिन है तो जब तलक ऐ दिल
किसी के वाद-ए-फर्दा से गुफ्तगू ही सही
किसी के वाद-ए-फर्दा से गुफ्तगू ही सही
दयारे-गैर में महरम अगर नहीं कोई
तो ‘फ़ैज़’ ज़िक्रे-वतन अपने रू-ब-रू ही सही
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