Friday, June 14, 2013

नहीं जो बादा-ओ-सागर तो हा-ओ-हू ही सही


फ़ैज़  अहमदफ़ैज़की ग़ज़ल, आबिदा परवीन की आवाज़ में




नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही

न तन मे खून फ़राहम न अश्क आंखों में
नमाज़े-शौक़ तो वाज़िब हैबे-वज़ू ही सही

किसी तरह तो जमे बज़्ममैकदेवालों
नहीं जो बादा-ओ-सागर तो हा-ओ-हू ही सही

गर इन्तज़ार कठिन है तो जब तलक ऐ दिल
किसी के वाद-ए-फर्दा से गुफ्तगू ही सही

दयारे-गैर में महरम अगर नहीं कोई
तो ‘फ़ैज़’ ज़िक्रे-वतन अपने रू-ब-रू ही सही

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