३.
पहन
के जिस्म
भटकतीं
मजाज़ की नज़्में
कि
जिनमें नन्ही पुजारिन की सद सदाक़त है!
य’
कह रही हैं कि शायर तू कुद्रतन है सही
मगर
न भूल कि मजहब तेरा बगावत है!!
वह
कि आवारा भटकता रहा जो सडकों पर
इसे
न भूल कि अब तुझ में ढल गया है वह!
बशक्ले
आग तेरी नफ़सियत में ज़िंदा है
अब
अपने वक़्त से आगे निकल गया है वह!!
सवाल
जिसने गमे-दिल से वहशत-ए-दिल से
किया
था टूट के आख़िर करून तो क्या मैं करूं?
अजीब
क़िस्म के लोगों से भरी दुनिया में
जियूं
तो कैसे जियूं या मरूं तो कैसे मरूं!!
जवाब
कोई किसी सम्त से न आया जब
तो
उसने चाँद-सितारों को नोचना चाहा!
हयात-ओ-मौत
की जद्दोजहद में रहकर भी
ज़मीर-ओ-ज़ीस्त
के मसलों पे सोचना चाहा!!
जो
मेरे चेहरे पे दिखती है दोस्तो तुमको
खरोंच
वक़्त की मेरी नहीं है उसकी है!
तुम्हारे
ज़हन की दुनिया को परीशां करती
य’
सोच वक़्त की मेरी नहीं है उसकी है!!
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