ज़िन्दां
में रात हो गयी है
-संजय
चतुर्वेदी
महावीर
सिंह, जो शाहपुर, जिला एटा, उत्तर प्रदेश के देवीसिंह का बेटा था
१७
मई १९३३ को
वाजितपुर,
बंगाल के राजगोविंद का बेटा मोहनकिशोर नामदास
२६
मई १९३३ को
पाबना,
बंगाल के हेमचन्द्र का बेटा मोहित मोइत्रा, २८ मई १९३३ को
सदर
होशियारपुर, पंजाब के जवाहिर राम का बेटा रामरक्खा, १९१९ में
सारन
सिंह, जिला लुधियाने का मानसिंह, १९१७ में
खुलना,
बंगाल के तारक नाथ का बेटा इन्दुभूषण राय, अप्रेल १९१२ में
ये
वे तारीखें है जब इन लोगों की मृत्यु हुई
या
शायद धीमे-धीमे बहुत दूर
वर्षों
के अँधेरे में इनकी हत्या की गयी
जहां
से आज तक इनकी आवाज़ भी नहीं आ पाई
ये
वे नाम हैं जिनका पता बच्चों की किताबों में नहीं मिलता
बड़ों
की बातों या संचार-जगत में भी नहीं मिलता
इसका
ज़िक्र भी नहीं मिलता
कि
कौन-कौन इनकी हत्या में शामिल थे
और
हैं
फिर
भी ये, और इनके जैसे सैकड़ों हुए थे, और होंगे
हम
लोगों के बावजूद, और हम लोगों से उतने ही अलग और निरपेक्ष
जितने
कि हैं हम लोग
ये
और बात है
कि
शरीर ईंटों का बना तो है नहीं और दिल होता नहीं पत्थर
एक
अवसाद और ठगे जाने का एहसास कहीं बच जाता है
जो
कभी कभी थोड़ी ही देर को सही
सुनाई
पड़ता है
और
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को एक ऐसे पसमंजर में रख देता है
जिसे
छुपाया गया है
और
जिसमें मोहनदास करमचंद और सुभाषचंद्र शामिल हैं
यातनाओं
का इतिहास समाप्त नहीं होता
हम
पोर्ट ब्लेयर की इन कोठरियों को देख रहे हैं
शायद
यह मात्र संयोग हो
आजादी
के बाद भी तीस बरस लग गए
महानायकों
की इस तपस्थली को राष्ट्रीय स्मारक घोषित होने में
शायद
यह भी मात्र संयोग हो
कि
इसके लिए जीवित रह पाए कालापानी कैदियों को
आज़ाद
भारत की सरकार और मक्कार चुप्पियों से लम्बा संघर्ष करना पड़ा
उस
शासन से, जो चुपके से इस जेल और इसके इतिहास का
निशान
मिटाना चाहता था
हो
सकता है यह भी मात्र संयोग हो
कि
यह राष्ट्रीय स्मारक
इंदिरा
कांग्रेस के ऐतिहासिक पराभव के बाद देश को मिल सका
तब
तक देश की सभी बड़ी इमारतों पर
जवाहरलाल
और उनके वंशजों के नाम लिखे जा चुके थे
शायद
मेरा दिमाग़ ख़राब हो गया है
बाहर
निकलकर देखता हूँ
चारों
तरफ़ राहुल, प्रियंका हाथ हिला रहे हैं
पता
नहीं मैं सही हूँ या ग़लत
लेकिन
अचानक मुझे लगता है
जैसे
वे लाखों जीवितों
और
करोड़ों आत्माओं को मुंह चिढा रहे हों
उनके
पीछे लपकती भीड़ देखकर लगता है
क्या
हम शहीदों की विरासत के योग्य हैं
या
शहीदों से ही कुछ ग़लत हो गया
शायद
मैं परिप्रेक्ष्य खोता जा रहा हूँ
शायद
आज़ादी के बाद जैसी शिक्षा मिली
उससे
अशिक्षा की ओर बढ़ चला हूँ.(कथादेश, मई २००६ में प्रकाशित)
2 comments:
आज की बुलेटिन अकबर - बीरबल और ब्लॉग बुलेटिन में आपकी पोस्ट (रचना) को भी शामिल किया गया। सादर .... आभार।।
सही कहा है !!
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