अजीब दास्तां है ये
-संजय चतुर्वेदी
झगड़ा कुछ ज़मीन जायदाद का रहा
सो ईमान में कुछ ऐसी सलासत पैदा होत भई
कि कल तक जिसे हम
सती समर्थक और त्रिशूल फेंकने वाला बता रहे थे
हानि-लाभ के समीकरणों के अनुकूल होते ही
उसे मार्क्सवाद के निमित्त मान लिया गया
मार्क्सवाद था, क्या था, जो भी था
इदारों में बताया यही गया
सो इसी होशियार बेख़ुदी में कथित मार्क्सवादी आलोचना
काले पैसे के एक सबसे बड़े सिंडीकेट की ज़ीनत बनने को
अर्ज़ीनवीस हुई
वह भी दाल-रोटी के लिए नहीं
दाल मखनी के लिए
सो चार दिनों की चांदनी ये जान यार लोग
सर्पलस के डायलैक्ट से कीमिया-ए-जवानी को
इस तरह खींच के लाए हैं
कि जी जानता है.
(दाग़ देहलवी से माफ़ी मांगते हुए)
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('कल के लिए' के अक्टूबर २००४-मार्च २००५ अंक में प्रकाशित)
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('कल के लिए' के अक्टूबर २००४-मार्च २००५ अंक में प्रकाशित)
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