संगीत के आसपास कुछ कविताएं- ४
-शिवप्रसाद जोशी
पूरिया
कितनी कोशिश कर लो
एक ही शब्द सुनाई देता है
उसी से बना वो राग
उसी से आई लयकारी तानें मुरकियाँ
निर्मित हुआ द्रुत
तेज़ बहाव उसका
डुबोता हुआ सब कुछ
जहाँ तहाँ
मैं क्या थामूँ क्या छोड़ूँ
वह रस्सी जो एक तान है
वह पत्थर जो एक आलाप है
वे पत्ते जो बोल हैं
दुख के
वे इतने मुड़ेतुड़े लिपटे उलझे हुए
जाले
सदारंग सदारंग
उस आवाज़ के पीछे पीछे चला जाता हूं
भटकता झूमता
उस उठान के साथ पछाड़ें खाती वो
आत्मा
मैं उठना चाहता हूँ और गिरना चाहता हूँ
मैं मिटना चाहता हूँ
इस आवाज़ की धूल में धँस जाना चाहता हूँ
इस गान में डोलता हुआ
वो शब्द
मुझे इतना भर देगा और अवसाद से
इतने प्रखर नैराश्य से
देखूँगा और साफ़
हूँगा और सजग
रहूँगा और स्थिर
करूँगा और प्रेम
थोड़ा बहुत जो होगा सो होगा इन सबके बीच
रोना.
1 comment:
Waah! Bahut sundar....
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